Friday, April 30, 2010

अज्ञेय की कविताएँ













|| नहीं तेरे चरणों में ||


कानन का सौंदर्य लूट कर सुमन इकट्ठे कर के
धो सुरभित नीहार-कणों से आँचल में मैं भर के,
देव ! आऊँगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूंगा वह उपहार !

खड़ा रहूँगा तेरे आगे क्षण-भर मैं चुपका-सा,
लख कर मेरे कुसुम जगेगी तेरे उर में आशा,
देव ! आऊँगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूंगा कुछ उपहार !

तोड़-मरोड़ फूल अपने मैं पथ में बिखराऊँगा,
पैरों से फिर कुचल उन्हें, मैं पलट चला जाऊँगा
देव ! आऊँगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूंगा वह उपहार !

क्यों ? मैं ने भी तेरे हाथों सदा यही पाया है -
सदा मुझे जो प्रिय था उस को तू ने ठुकराया है |
देव ! आऊंगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार !

शायद आँखें भर आवें - आँचल से मुख ढँक लूँगा;
आँखों में, उर में क्या है, यह तुझे न दिखने दूँगा |
देव ! आऊंगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूंगा कुछ उपहार !













|| अकाल-घन ||


घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर,
उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये |
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

जीवन की उलझन का जिस को मैंने माना था अंतिम हल
वह भी विधि ने छीना मुझ से मुझे मृत्यु भी हुई हलाहल !
विस्मृति के अँधियारे में भी स्मृति के दीप सँजो गये -
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

जीवन-पट के पार कहीं पर काँपीं क्या तेरी भी पलकें ?
तेरे गत का भाल चूमने आयीं बढ़ पीड़ा की अलकें !
मैं ही डूबा, या हम दोनों घन-सम घुल-घुल खो गये ?
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

यहाँ निदाघ जला करता है - भौतिक दूरी अभी बनी है;
किन्तु ग्रीष्म में उमस सरीखी हाय निकटता भी कितनी है !
उठे बवंडर, हहराये, फिर थकी साँस से सो गये !
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

कसक रही है स्मृति कि अलग तू पर प्राणों की सूनी तारें,
आग्रह से कम्पित हो कर भी बेबस कैसे तुझे पुकारें ?
'तू है दूर', यहीं तक आ कर वे हत-चेतन हो गये ?
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |











|| असीम प्रणय की तृष्णा ||


आशाहीना रजनी के अन्तस की चाहें,
हिमकर-विरह-जनित वे भीषण आहें
जल-जल कर जब बुझ जाती हैं,

जब दिनकर की ज्योत्स्ना से सहसा आलोकित
अभिसारिका ऊषा के मुख पर पुलकित
व्रीडा की लाली आती है,

भर देती हैं मेरा अन्तर जाने क्या-क्या इच्छाएं -
क्या अस्फुट, अव्यक्त, अनादि, असीम प्रणय की तृष्णाएँ !

भूल मुझे जाती हैं अपने जीवन की सब कृतियाँ :
कविता, कला, विभा, प्रतिभा - रह जातीं फीकी स्मृतियाँ |
अब तक जो कुछ कर पाया हूँ, तृणवत उड़ जाता है,
लघुता की संज्ञा का सागर उमड़-उमड़ आता है |

तुम, केवल तुम - दिव्य दीप्ति-से, भर आते हो शिरा-शिरा में,
तुम ही तन में, तुम ही मान में, व्याप्त हुए ज्यों दामिनी घन में,
तुम, ज्यों धमनी में जीवन-रस, तुम, ज्यों किरणों में आलोक !











|| सम्भाव्य ||


सम्भव था रजनी रजनीकर की ज्योत्स्ना से रंजित होती,
सम्भव था परिमल मालति से लेकर यामिनि मंडित होती !
सम्भव था तब आँखों में सुषमा निशि की आलोकित होती,
पर छायी अब घोर घटा, गिरते केवल शिशराम्बुद मोती !

सम्भव था वन की वल्लरियाँ कोकिल-कलरव-कूजित होतीं,
राग-पराग-विहीना कलियाँ भ्रान्त भ्रमर से पूजित होतीं;
सम्भव था मम जीवन में गायन की तानें विकसित होतीं,
पर निर्मम नीरव इस ऋतु में नीरव आशा की स्मित होतीं !

सम्भव था निःसीम प्रणय यदि आँखों से आँखें मिल जातीं,
सम्भव था मेरी पीड़ा भी सुखमय विस्मृति में रल जाती -
सम्भव था उजड़े ह्रदयों में प्रेमकली भी फिर खिल आती !
किन्तु कहाँ ! सम्भाव्य स्मृति से सिहर-सिहर उठती यह छाती !











|| घट ||


कंकड़ से तू छील-छील कर आहत कर दे
बांध गले में डोर, कूप के जल में धर दे |
गीला कपड़ा रख मेरा मुख आवृत कर दे -
घर के किसी अँधेरे कोने में तू धर दे |

जैसे चाहे आज मुझे पीड़ित कर ले तू,
जो जी आवे अत्याचार सभी कर ले तू |
कर लूँगा प्रतिशोध कभी पनिहारिन तुझ से ;
नहीं शीघ्र तू द्वंद्व-युद्ध जीतेगी मुझ से !

निज ललाट पर रख मुझ को जब जायेगी तू -
देख किसी को प्रान्तर में रुक जायेगी तू,
भाव उदित होंगे जाने क्या तेरे मन में -
सौदामिनी-सी दौड़ जायेगी तेरे तन में;

मन्द-हसित, सव्रीड झुका लेगी तू माथा,
तब मैं कह डालूँगा तेरे उर की गाथा !
छलका जल गीला कर दूँगा तेरा आँचल,
अत्याचारों का तुझ को दे दूँगा प्रतिफल !

[ मौजूदा वर्ष मूर्धन्य साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' का जन्मशती वर्ष है | उन्हें स्मरण करते हुए यहाँ उनकी जो कविताएँ प्रस्तुत की हैं, वह क्रांतिकारी आंदोलन सेजुड़े होने के कारण अंग्रेजों द्वारा दिल्ली जेल में बंद रखने के दौरान, वर्ष 1931 - 1932 में लिखी कविताओं में से हैं | कविताओं के साथ दिए गए चित्र प्रख्यात चित्रकार रामकुमार की अपने कला-जीवन के शुरू में की गई पेंटिंग्स के हैं | ]

2 comments:

  1. बहुत आभार अज्ञेय की इन रचनाओं को प्रस्तुत करने का.

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  2. nice reading them!
    agyey ji ki kavitayen share karne hetu dhanyavad!

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