Thursday, February 25, 2016

तुषार धवल की चार कविताएँ
























।। इस गोद में ।।

इस गोद में सेज है
तुम्हारी
उड़ानों की उडऩपट्टी है
यहाँ
तुम्हारे नरम सपनों का जंगल है
जिसमें संसार की पगडंडियाँ
घुसते ही मिट जाती हैं
उस जंगल में
टिमटिमाती कस्तूरी मणियाँ हैं
सुकुमार जल पर फैली महकीली लतायें हैं
जो अपने ही ढब के फूल ओढ़ी हुई
नाज़ुक सी ऊँघ में खिल रही हैं
वहाँ हवा में तैरती गुलाबी मछलियों की
किलकारियाँ हैं
पंछियों का गुंजार तुम्हारे हास की
थपक पर थिरकता है
वहाँ

उस जंगल में बस्ती है
मेरी आदिम जातियों की
उनके आग और काँटों के संस्मरण हैं
फूलों की गुलगुली छाती में
तपने और जूझने के
दाँत भींचे एकटक आईने हैं
किचकिची और लिजलिजी पीड़ायें हैं
ईमानदारी पर मिली बदनामियों की
ग्लानियों में आत्मदहन के क्षण हैं
मनुष्य होने के संघर्ष में
अनुभवों की थाती है

तुम्हारे उसी वन में मेरा शुद्ध आत्मबोध है
अनगढ़ अशब्द अपरिभाषित
और स्फटिक की चमकती खोह है
चेतस् ऊर्जा का हस्ताक्षर है वहाँ
मेरा तुम्हारा होना

मेरी गोद में तुम हो
और तुममें एक सुकुमार उनींदी
गोद है
जिसमें मेरा होना
हो रहा है !
























।। जब तुम तड़प कर रोते हो ।।

जीवन हहरा कर धँस जाता है हठात
खिलना भूल जाता है
बदहवास क्षणों के प्रपंच में
कराहती हुई तुम्हारी निरीह रुलाई पर

सृष्टि की कोख से उठता यह रोना तुम्हारा
ब्रह्माण्ड भर में कहर जाता है

दर्द से कराहती इस निरीह नन्ही पुकार पर
कैसे स्थिर रहा जाये बेटा !
वह धीर गम्भीर कोई और होगा
लेकिन जब रहा होगा
वह पिता नहीं रहा होगा
माँ तो बिल्कुल ही नहीं

एक करवट
एक कराह
और जीवन के मुगालते बेपर्दा हो जाते हैं
मैं सियाचीन में तड़पते उस बाप को सुनता हूँ
जिसकी जमती हुई हथेलियों पर बन्दूक थमी है
कान सरहद पर चौकस हैं
और कलेजे में घर से आये फोन की
उसी लाचार खबर वाली घन्टी
लगातार बज रही है
मैं जेल में बन्द उसी बाप सा होता हूँ
उतना ही मजबूर जितना पेशावर के
वे सभी बाप रहे होंगे
सोमालिया नाइजीरिया या ईराक में
कहीं मुसलमान कहीं ईसाई और कहीं यहूदी होने
के बोझ तले
जीना कोहराम बन गया है
और मेरे कन्धे कितने अशक्त हैं
जो रोक नहीं सकते तुम्हारे रोने को
पेट में उठती इन बेरहम मरोड़ों को
जो बाहर भी मरोड़ रही हैं मुझे
हम सबको
यहाँ वहाँ दुनिया के हर कोने में
यह मरोड़ कैसा उठा हुआ है
कि धुआँ है और बारूद झर रहा है आकाश से
उन सूने कन्धों और उजाड़ कलेजों की बेबसी
यहाँ आज यह बाप तुम्हारा ढो रहा है
जब तुम बेपनाह रोये जा रहे हो

रोते एक तुम हो
और दुनिया भर की हजारों मासूम जानें
मुझमें फिर से तड़प कर तुम्हारे साथ
रो पड़ती हैं !
























।। तड़प उठा था दर्द ।।

तड़प उठा था दर्द
जब तुम्हारी नन्ही जान बेबस
बेतहाशा रो रही थी ।

कुछ कह रहे थे तुम अपनी भाषा में
जिसे मैं समझ न सका ।

तुम्हारी वह सहज बेशब्द भाषा
मेरे बीज तक की परतों को उधेड़ती रही
एक तड़प तुमसे उठ कर
बिना किसी व्याख्या के
मुझमें उतर कर
मेरे भीतर तड़प गई

कितने असहाय थे तुम उस वक्त
कह नहीं सकते थे दर्द मुझ से मेरी भाषा में
जिसे सीखने में
मैं भूल चुका हूँ सृष्टि की नाभि से उगी
जीवन की उस मूल भाषा को
जिसे तुम अभी जानते हो

तुम्हें भी सभ्यता के व्याकरण में ढाला जायेगा
और तब तुम भी
अपनी यह बेशब्द भाषा भूल जाओगे
कि इस दुनिया की भाषा
जीवन की उस मूल भाषा के नाश पर ही
उग सकती है
इसे सीखने के लिये उसे भूलना ही पड़ेगा तुम्हें।

कैसा असर छोड़ता है तुम्हारी भाषा का
एक नन्हा अर्धविराम भी !

मैं कवि होने का दम्भ लिये
कितना लघु हूँ तुम्हारी इस क्षमता के आगे

तुम नहीं समझोगे मेरी भाषा
कि तुम सृष्टि के स्पन्दन में धड़कते हो
इसे भूलोगे जैसे जैसे
तुम मेरी भाषा सीखते जाओगे
इस दुनिया में जीने के लिये
बहुत सी अच्छी चीजें
तुम्हें भूलनी पड़ेगी
मेरे बेटे ।
























।। तुम्हारे पालने के बाहर ।।

तुम्हारे पालने के बाहर
एक रतजगा ऐसा भी है
जिसमें रात नहीं होती।

जिसमें देह की परतें खुल जाती हैं
भाषा से शब्द झर जाते हैं
आँखें आँख नहीं रहतीं
वे स्वप्न हो जाती हैं
बोध के सन्दर्भ जिसमें उलट जाते हैं
काल का व्याकरण गल जाता है।

तुम्हारे पालने के बाहर
एक थकान ऐसी भी होती है
जो अपनी ही ताजगी है
आशंकायें जिसमें खूब गरदन उठाती हैं
एक आक्रान्त स्नेह अपने भविष्यत संदिग्धों
की तलाश में होता है
और यहीं से उन सबका शिकार करता है
आने वाले दुर्गम पथों पर
माटी की नरम मोयम रखता हुआ

तुम्हारे पालने के बाहर
एक बीहड़ है जिसमें
एक बागी हुआ मन गाता रहता है
मानव मुक्ति के गीत
उसके हाथ
केसर कुदाल करतब करताल
होते रहते हैं

एक मोम हुआ हृदय ऐसा भी होता है
तुम्हारे पालने के बाहर
जो अपने दु:स्वप्नों और हाहाकारों में
तुम्हारी असंज्ञ चेतन मुस्कान
भर रहा होता है ।

(तुषार धवल की कविताओं के साथ दी गईं तस्वीरें मनीष पुष्कले की 'म्यूजियम ऑफ अननोन मेमोरीज़' थीम पर आधारित पेंटिंग्स की हैं ।)

Wednesday, February 17, 2016

अर्चना गुप्ता की पाँच कविताएँ

कविता के गंभीर अध्येता शरद शीतांश ने अर्चना गुप्ता की नीचे दी गईं कविताएँ उपलब्ध करवाते हुए उनकी कविताओं पर एक संक्षिप्त टिप्पणी भेजी है : 'अर्चना गुप्ता की कविताओं में प्रेम को लेकर जो गहन आवेग और रागमयी गर्माहट है, उसके चलते उनकी कविताएँ एक दुर्लभ उपलब्धि हैं । उनकी प्रेम कविताओं में जीवन का वह तनाव नहीं है जो प्रेम की अभिव्यक्ति को कठिन बनाता है । अर्चना इस कठिनाई की अभिव्यक्ति को छोड़कर प्रेम को जीवन का सरल और सहज अनुभव बनाती हैं । उनकी प्रेम कविताओं में रागमयी कामना का ज्वार जिस तरह अभिव्यक्ति पाता है, वह उनकी कविता को अर्थवान बनाता है । उनकी कविताओं में अनुभूति के स्तर पर समर्पण और सम्मोहन का जो भाव है - उसमें जीवन के अनछुए अनुराग, अनदिखे अंधकार और अधखिले फूलों के बोध का अहसास है । संभवतः इसीलिए उनकी कविताएँ लुभाती हैं और विवश करती हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ा जाए ।'
अर्चना गुप्ता की कविताओं के साथ दिए गए चित्र विश्वविख्यात वरिष्ठ भारतीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की पेंटिंग्स के हैं ।

 

।। एक ।।

दर्द की तपन से झुलस रहा है
हाड़ मांस का यह पिंजरा
निढाल कर रहीं हैं अब तो
सांसें भी बन कर इक बोझ
लगा मुखौटा हंसी का चेहरेपर
निभा रही अपना किरदार
चाहूँ चीख चीख कर रोना
घुट रहा है अब दम मेरा
दुश्वार हो गया है अब तो
बोझ ये जीवन का ढोना
अश्रु भी अब गए हैं सूख
चुभते हैं अखियन में मेरे
आंख मूंद अब सोना चाहूँ
लंबी व गहरी निद्रा में मैं
शायद फिर चेहरे पर उसके
इक हल्की मुस्कान खिले 























।। दो ।। 

 आज फिर यादों ने तेरी
दिल में मेरे दी है दस्तक
वो तेरी मोहक मुस्कान
तेरी मासूम सी शरारतें
पहला वो तेरा चुंबन
आज भी सांसों में मेरे
महके है सांसों की तेरी
भीनी खुशबू
आज भी जब माथे पर मेरे
झूल सी जाती है कोई लट
याद मुझे आ जाता है तेरी
उंगलियों का पहला स्पर्श
लाल गुलाब जो तूने मुझको
प्रेम से भेंट किया था कभी
खुशबू से उसकी आज भी
महकता है मेरा तन मन
बरसों बाद आज फिर गूंजी है
कानों में तेरी मधुर हंसी की
खनक
संजो के रखा है प्रियतम
हर इक निशानी को तेरी
सौंपूंगी सब कुछ तुमको
जब लौट कर आओगे प्रियवर
निश्छल और पावन प्रेम
है मेरा
ना इसमें है कोई खोट
आज भी मन मंदिर में मेरे
मूरत बस तेरी है चितचोर























।। तीन ।।

जब भी अपनी आंखें मैं मूंदूं
क्यों मुझको तू नज़र ना आए ?
दूर खड़ी इक धुंधली सी परछाईं
बस मुझे नज़र पड़े दिखाई
अक्सर क्यों मेरा नादान दिल
रह रह कर है घबराए?
क्यों चाहे ये मन कि तुझको
अपने दिल में लूँ मैं छिपाए?
रातों को क्यों अनजाना डर
सोने ना दे मुझको पल भर?
लगे कि आँखें जो झपकाऊँ
जाकर कहीं ना तू छिप जाए?
जानूँ कि बस भय है ये तो
पर यह दिल मेरी एक ना माने
तुझको कभी भी पा ना सकूँगी
यह भी है कड़वी सच्चाई
रहता है अखियन में मेरे
तू बनकर काँच के ख्वाब
डरती हूँ टूटकर चुभ ना जाएँ
अगर पलकें जो खोलूं मैं
हृदय का दर्द बनके अश्रु
हर क्षण है बहना चाहे
कहीं ना तुझको खो दूँ मैं
इस डर से आंसू भी ना बहाए

।। चार ।।

मैं हूँ गीली माटी सी
तूने प्यार से सींचा,
दिया संवार
अपने सांचे में यूं ढाला
मुझ पर आया ऐसा निखार
तेरे प्रेम के ताप से तपकर
कुंदन सी काया मैंने पाई
लबों पर लाली तेरे नाम की
मैंने है संईया जी लगाई
मेरे कंगन की खनखन में
तेरी शहद सी वाणी
पड़े सुनाई
कोमल स्पर्श से तेरे मेरी
गोरी काया सुर्ख हो जाए
तुझमें मैं यूँ सिमट सी जाऊँ
दो जिस्म इक जान हों जैसे
तेरी परछाईं बन जाऊँ
हर क्षण साथ रहूँ मैं ऐसे





















।। पाँच ।।

तेरे प्रेम का सुर्ख चटक रंग
जब से तन पर पड़ा है साजन
मोरी उजरी देह सुलग गई
रंग गया मोरा मन भी संग संग
मन मयूर भी लगा नाचने
लोक लाज सब कुछ मैं बिसरी
पिया नाम दिन रात मैं जापूँ
भई जोगन मैं तो उनकी
रात और दिन मोरी अखियन में
अब तो बस सपने हैं उनके
होठों की हर मुस्कान में मेरी
खनके है अब हंसी प्रियतम की
संईया मेरा प्रेम है पावन
ना उसमें है खोट तनिक भी
तुम्हें बाँधूं आँचल से अपने
सिर्फ इतनी ही चाह है मेरी