Wednesday, March 30, 2011
अचला शर्मा की कविताएँ
|| परदेश में बसंत की आहट ||
यहाँ कोई मुंडेर तो नहीं
ना ही वो आँगन
जिस के पार का आकाश
और नीला, और खुला लगता था
सुबह-शाम
भर जाया करता था
सैकड़ों चिड़ियों के वृंदगान से |
यह तो परदेस है
और हर मौसम प्रवासी
फिर भी ....
अचानक आज
एक अजनबी पंछी सीटी बजाता
मेरी गली से गुज़रा,
कि सामने के पेड़ ने चौंक कर
बिना कपड़े पहने ही
माथे पर लगा ली
नन्हीं-सी गुलाबी बिंदिया
धूप ने शरारत से आँख मारी
पड़ोसी के बच्चे ने राल-सने हाथों से
ऊनी मोज़ा उतारा
और फिर मारी ज़ोर से एक किलकारी
मेज़ पर रखी चिट्ठी
अधलिखी ही रह गई,
लगा, मौसम बादल गया |
|| अब भी आते हैं सपने ||
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने
कुछ गहरी नींद में चलते
कुछ खुली आँखों में बहते
कुछ सुप्त और चेतन की संधि-रेखा पर
असमंजस की तरह झिझकते
पर अब भी आते हैं सपने |
बल्कि अक्सर आते हैं
जहाँ-जहाँ चुटकी काटते हैं
वहाँ-वहाँ भीतर का बुझता अलाव
फफोला बन उभर जाता है
देह का वो हिस्सा
जैसे मौत से उबर आता है
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने |
आते हैं
तो कुछ पल ठहर भी जाते है
चाहे मुसाफ़िर की तरह
लौट जाने के लिए आते हैं,
पर लौट कर कभी-कभी
चिट्ठी भी लिखते हैं
कहते हैं बहुत अच्छा लगा
कुछ दिन
तुम्हारी आँखों में बस कर
तुम ने आश्रय दिया
हमें अपना समझ कर,
आभार !
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने
धूप की तरह, पानी की तरह
मिट्टी और खाद की तरह
तभी तो
सफ़र का बीज
ऊँचा पेड़ हो गया है
छाँव भले कम हो
भरा-भरा हो गया है,
उस पर लटके हैं
कुछ टूटे, कुछ भूले, कुछ अतृप्त सपने
कुछ चुभते-से, दुखते-से
पराए हो चुके अपने,
फिर भी आते हैं सपने
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं |
[ अचला शर्मा की कविताओं के साथ दिये गए चित्र ऋतु मेहरा की पेंटिंग्स के हैं | ऋतु की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में चल रही है, जिसे छह अप्रैल तक देखा जा सकेगा | ]
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Saturday, March 19, 2011
श्याम कश्यप की कविताएँ
|| कन्याकुमारी का जादू ||
न सूर्योदय देख सके
न सूर्यास्त हम -
दो दिन कन्याकुमारी में
धुआँधार बरसते पानी के नीचे
सागर-लहरों की ऊँची उछाल....
एक के बाद एक जैसे
फिसलती -
चली आ रही हो
आसमान छूती
पानी की ठोस
धुँधली-पारदर्शी दर्शनीय दीवार |
तीन-तीन सागरों के महासंगम पर
एक लहर इधर एक उधर से प्रवेग
इन सबके ऊपर एक और .....
सामने से हिंद महासागर का ज़ोर
जैसे बाँहों में बाँहे फँसाये -
तीन महाबलियों के जूझने का शोर |
तीन महासागरों के संगम पर
मंत्रमुग्ध-से खोये रहे हम घंटों
त्रिकाल-बोध के कमान से छूटे
तीखे तीर-से अनंत में -
बाँध लेता है ऐसे ही
जाल में कस कर सभी को
अनोखा कन्याकुमारी का
ऐन्द्रजालिक जादू -
पिघलने लगता है आकाश
सवेग स्वर्ण-सरिता-सा
कविता की कंचन-धारा बन कर !
|| विवेकानंद शिला पर ||
विवेकानंद शिला से
देख रहे हम एकटक
तीन-तीन सागरों का
असीम विस्तार -
उछाल अनंत जलराशि की !
बंद कर लेना चाहते हैं
सीपियों में आँखों की
हिंद महासागर के सौंदर्य का
एक थिरकता उज्ज्वल मोती !
बायीं ओर बंगाल की खाड़ी
उद्वेलित लहरों के वेग से
रह-रह कर टकरातीं आकर जो
चट्टानों से जूझती .....
दूर दाहिने से
चला आ रहा
तूफ़ानी रेला
अरब सागर का दौड़ता .......
विशालकाय बाँहों में अपनी
दोनों को समेटता-समोता हिंद महासागर |
एक-दूसरे में घुलते-मिलते -
झिलमिल-झिलमिल अलग-अलग रंग
फिर एक ही विराट हरित नीलिमा में खो जाते-से !
|| सागर मुद्राएँ ||
अनेक रंग
अनेक रूप
मुद्राएँ भी अनेक
देखीं समुद्र की
कई-कई दिन पांडिचेरी-तट पर
सुबह से शाम
कभी देर रात-रात तक
सुनहरा मटमैला कभी
और कभी धवला-सा
झाग-भरा फेन-भरा
नीला कभी हरा-हरा
कभी आँखों में सातों रंग घोलता
बाँहों में लेने को दौड़ता
कभी फिर पीछे ही लौटता
चट्टानों पर कभी सिर गुस्से से फोड़ता
कभी बस डोलता और नींद ही में बोलता
शांत कभी लेटा-लेटा बिस्तर पर लुढ़कता
कभी आकाश चूमने को बदली-संग खेलता |
|| समुद्र में आग ||
बेहद आकर्षित करता है
महाबलिपुरम के समुद्र का
गरजता-उफ़नता रौद्र रूप
तेज़ हवाओं की मथानी से
मथे जाते हुए जैसे -
फेन उगलता-उछलता चंचल सागर |
तट की चट्टानों पर
टूट कर बिखरीं
काँच की दीवार-जैसी ऊँची-ऊँची
अनवरत लहरों पर लहरें -
उगते सूरज की
स्वर्णिम लालिमा से
जल उठीं रँगकर -
अनगिनत लपकती ज्वाल-मालाएँ |
तट का एकाकी मंदिर
दिप-दिप उठा
आग फेंकती -
समुंदर की आतशी शीशे-जैसी लहरों से |
[ श्याम कश्यप की कविताओं के साथ दिये गए चित्र अनु धीर की पेंटिंग्स के हैं | इंदौर में जन्मीं और वहाँ के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में पढीं अनु देश विदेश में समकालीन भारतीय कला की एक प्रखर चितेरी के रूप में पहचानी जाती हैं | देश विदेश में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित कर चुकीं अनु की पेंटिंग्स देश के साथ साथ स्वीडन, फ्रांस, नीदरलैंड्स, कनाडा आदि में लोगों और संस्थाओं के पास संग्रहित हैं | मजे की बात यह है कि अनु ने चित्रकार बनने के बारे में कभी सचेत तरीके से सोचा भी नहीं था | एक कला संस्थान में एडमिशन लेने की अपनी कोशिश के असफल हो जाने का भी उन्होंने कोई अफसोस नहीं मनाया था | नौकरी और परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए उनकी कला अभिरुचि लेकिन स्वतः ही कैनवस पर ट्रांसफर होने लगी, और फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा | इस ब्लॉग पर लगाने के लिए पेंटिंग्स के फोटोग्राफ देने के हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए अनु धीर ने बताया कि उनकी पेंटिंग्स का कॉपीराइट अधिनियम के तहत कॉपीराइट है, जिस कारण उनकी पेंटिंग्स को कॉपी और या पुनर्प्रदर्शित नहीं किया जा सकता | ]
Saturday, March 5, 2011
प्रयाग शुक्ल की कविताएँ
|| प्रेम : एक श्रृंखला ||
(एक)
पर्वत से लुढ़कने,
और फिर चढ़ने,
कहीं अधबीच में
एक चट्टान से उलझी हुई
शाखा को पकड़ने,
और फिर फिसलने के
क्रम में,
किसी फूल की सुगंध में -
कुछ देर विचरने का
अनुभव !
कलरव
चिड़ियों का |
घनी छाया का आश्वासन
अगले कदम पर |
एकदम निर्मल आकाश
में श्वास !
(दो)
दोनों किनारों के बीच
मँझदार
में एक नाव |
शांत निश्चल पल |
जल ही जल
चारों ओर |
धुँधलाता हुआ
हर तरफ का
शोर |
खुलती हुई
खिड़कियाँ
दिशाओं की !
(तीन)
नींद में एक मुख,
ढका हुआ
झीने वसन में,
झीना |
और उसके भीतर के
सपनों की तहें |
कुछ भी न कहें |
उसी अनजाने सुख
में रहें -
भीतर तक मौन !!
(चार)
चपल चंचल एक गति,
जैसा कि हिरण हवा में
अश्व एक,
पैरों को उठाये -
उड़ती चली जाती
चिड़िया
किसी घाटी में |
विद्युत तरंग |
दौड़ते चले आते
इसी ओर
कई-कई रंग |
फिर उनमें से
करता विलग
एक अपने को,
आ रहता सामने !
(पाँच)
एक मिली हुई निधि |
बार बार आ रहती
निकट | हर करवट |
कोई विधि
जिससे थम जाता है जलधि -
और फिर उठता है
ज्वार !!
अपार !
[प्रयाग शुक्ल की कविताओं के साथ दिये गए चित्र मुकेश मिश्र द्वारा खींचे गए फोटो हैं |]
(एक)
पर्वत से लुढ़कने,
और फिर चढ़ने,
कहीं अधबीच में
एक चट्टान से उलझी हुई
शाखा को पकड़ने,
और फिर फिसलने के
क्रम में,
किसी फूल की सुगंध में -
कुछ देर विचरने का
अनुभव !
कलरव
चिड़ियों का |
घनी छाया का आश्वासन
अगले कदम पर |
एकदम निर्मल आकाश
में श्वास !
(दो)
दोनों किनारों के बीच
मँझदार
में एक नाव |
शांत निश्चल पल |
जल ही जल
चारों ओर |
धुँधलाता हुआ
हर तरफ का
शोर |
खुलती हुई
खिड़कियाँ
दिशाओं की !
(तीन)
नींद में एक मुख,
ढका हुआ
झीने वसन में,
झीना |
और उसके भीतर के
सपनों की तहें |
कुछ भी न कहें |
उसी अनजाने सुख
में रहें -
भीतर तक मौन !!
(चार)
चपल चंचल एक गति,
जैसा कि हिरण हवा में
अश्व एक,
पैरों को उठाये -
उड़ती चली जाती
चिड़िया
किसी घाटी में |
विद्युत तरंग |
दौड़ते चले आते
इसी ओर
कई-कई रंग |
फिर उनमें से
करता विलग
एक अपने को,
आ रहता सामने !
(पाँच)
एक मिली हुई निधि |
बार बार आ रहती
निकट | हर करवट |
कोई विधि
जिससे थम जाता है जलधि -
और फिर उठता है
ज्वार !!
अपार !
[प्रयाग शुक्ल की कविताओं के साथ दिये गए चित्र मुकेश मिश्र द्वारा खींचे गए फोटो हैं |]
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