Sunday, July 24, 2011

गुलज़ार की चार कविताएँ



















|| देखो, आहिस्ता चलो ||

देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा
देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो

जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जायेगा |



















|| किताबें ||

किताबें झाँकती हैं बन्द अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर .......
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ....
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत-सी इस्तलाहें हैं
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्क़े
किताबें माँगने, गिरने, उठाने क़े बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !



















|| ख़ुदा ||

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख क़े,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया

तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया

मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया -

मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया
और रूह बचा ली

पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी |















|| इक इमारत ||

इक इमारत
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक
बजती है सर में
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ
सुनता हूँ कभी |
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे |
इक महल है शायद !
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को !
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई 'गन्दुम' के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !

एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !

[गुलज़ार की कविताओं के साथ दिए गए चित्र पदमाकर सनतपे की पेंटिंग्स के हैं | 1960 में जन्मे पदमाकर ने नागपुर से ऑर्ट की पढ़ाई की है और कई समूह प्रदर्शनियों में अपना काम प्रदर्शित करने के साथ-साथ उन्होंने अपनी पेंटिंग्स की कई एकल प्रदर्शनियाँ भी की हैं | चार दिन बाद, 28 जुलाई को पदमाकर का जन्मदिन है |]

3 comments:

  1. गुलज़ार साहब की इतनी सुंदर कविताएँ पढवाने के लिए आपका आभार.

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  2. गुलज़ार साहब की ये चारों कविताएँ पढ़कर दिल को बहुत सुकून मिला.,

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