Friday, July 15, 2011

नीलेश रघुवंशी की चार कविताएँ



















|| बिल्ली और रास्ता ||

टूटता जा रहा है धैर्य
बार-बार घड़ी में समय देखता
उकताहट और बेचैनी में टहलने लगा है
सड़क किनारे खड़ा आदमी
रह-रह कर जकड़ रहे हैं अंधविश्वास

कितने शुभ मुहूर्त में दही-गुड़ खाकर देहरी पार की थी
और तब तो बनते काम भी बिगड़ेंगे
इसलिए सड़क किनारे खड़ा आदमी
प्रतीक्षा में है कि पार कर जाए कोई उससे पहले रास्ता
अपने हिस्से की सारी मुसीबतें, भयावह अंदेशे और अपशगुन
किसी और के हवाले कर निकले फिर वह भी
बिल्लियाँ काटती हैं रास्ता बार-बार
और हँसती हैं आदमी पर |



















|| प्रार्थना ||

वे जो मुझे छलते हैं बार-बार
नदी की तरह बहती न जाऊँ उनके पास
छल से उनके उबरकर, खड़ी रह सकूँ पहाड़ों की तरह
गिरगिट की तरह बदलते उनके रंगों को, हर पल बदलती
विलाप में
रोती और झुक-झुक जाती फलों से भरी डगाल की तरह
दूध से निकली मक्खी की तरह दूर हो सकूँ उनसे
भर चुकी हूँ छल से उनके भीतर तक
प्रभु इतनी शक्ति दो मुझे कि उनके छल को ऊँगली पकड़ बाहर
करूँ
मुक्ति दो मुझे छल से
बल दो कि मेरा प्रेम बदलने न पाए छल में



















|| आधी रात के बाद की आवाज़ें ||

आधी रात के बाद की आवाज़ें
भर देती हैं वरहमेश दहशत से
कुत्ते और बिल्ली के रोने की आवाज से
मारे डर और आशंका के, दुबके रहते हैं कुछ देर हम बिस्तर में
आभास होता है हमसे ज्यादा उन्हें किसी भी अनिष्ट और भयावह
संकट का

तमाम आशंकाओं को परे धकेलते खिड़की से दुत्कारते पत्थर फेंकते
धकियाते उन्हें किसी और के दरवाज़े

आधी रात के बाद बज उठती है जब कभी टेलीफोन की घंटी
हड़बड़ाकर अकबका उठते हैं हम
सिरहाने रखा टेलीफोन साक्षात, यमदूत लगता है उस समय
काँपते मन और ठिठुरते ख्यालों से ताकते रहते हैं टेलीफोन को
बुरी ख़बर के अन्देशों से भरी आधी रात के बाद की आवाज़ें
क्योंकर इतनी डरावनी और भयावह होती हैं |



















|| बिना छप्पर के ||

निकलता झुंड जब भी गायों का बात ही निराली होती उसमें उसकी |
लंबी चौड़ी सफ़ेद झक्क काली-काली आँखें |
बुरी नज़र से बची रहे हमेशा गले में उसके रहता काला डोरा |
थन उसके भरे रहते हमेशा जरूरी नहीं छोड़ा जाए पहले बछड़े को |
बिना लात मारे भर देती भगोने पे भगोने |
लोग अचरज से भरे रहते हमेशा - दुधारू गाय वो भी बिना लात वाली |
हर एक ग्वाले का सपना - कजरारी आँखों और भरे थन वाली गाय |
खुले में घास चरते समय एक दिन
एक पागल कुत्ते ने काट लिया उसे |
दौरे पड़ने लगे गाय को दौड़ती फिरती इधर से उधर |
छकाती सबको बीच सड़क पर बैठ फुंफकारती |
एक मजबूत पेड़ से बीच मैदान में रस्से से बंधी है गाय |
बिना छप्पर के मरने के लिए छोड़ दिया उसे उन्होंने
दिया जिन्हें उसने कई-कई मन दूध बिना लात मारे |

[नीलेश रघुवंशी की कविताओं के साथ दिए गए चित्र अनिल गायकवाड़ की पेंटिंग्स के हैं | नीलेश और अनिल भोपाल में रहते हैं |]

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