Thursday, September 8, 2011

ब्रज श्रीवास्तव की दो कविताएँ

















|| अँधियारा ||

अजीब दहशत सी है जब
अपने शहर के आने पर झाँकता हूँ बाहर ट्रेन से
वहाँ घुप्प अँधेरा है

भय का उदगम है ये अँधकार
न जाने क्या चीज़ किस चीज़ से
टकरा जाए बुरी तरह

यह वह अँधियारा है
जिसे सूरज छोड़ गया अपने आने तक
जो घर की छत से चिपका है
नदी किनारे रेत के कणों के बीच में
और गहरा गया है

ये दुनिया के बनने के पहले दिन से है
अस्तित्व में
इसका होना देर तक, अखरता है हमें
हम डरे हुए हैं दरअसल
अपनी बनाई चीज़ के मौजूद न होने पर

अँधियारा इसीलिए हुआ है भयानक आज
क्योंकि हमने कल तक इसे
अलग करके नहीं देखा
रोशनी से



















|| इस तलाश में ||

आँखों में सँजो लेना चाहता हूँ
खेत में बिछी काली मिट्टी की उर्वरता का तेज़

मोटर बस में सफ़र करते हुए
यह भी सोचता हूँ
सूरज की दमक
देती रहे एक पुंज ऐसे ही

दोस्तों की बातों में ही
खोज लेता हूँ
जीवन के हक़ में बोले जाने वाली बात

किसी पक्षी की तरह
इकट्ठा कर रहा हूँ
प्यार की बातों के तिनके

इस तलाश में
जिन चीज़ों को रद्द करता हूँ
वे अचरज से घूरती हैं मेरी ओर
और हँस पड़ती हैं
मेरे फ़ैसले पर

[ब्रज श्रीवास्तव की कविताओं के साथ दिए गए चित्र समकालीन कला परिदृश्य में अपनी खास पहचान बना रहे चित्रकार शाम पह्पलकर की पेंटिंग्स के हैं |]

Friday, September 2, 2011

वरवर राव की दो कविताएँ



















|| दुःखी कोयल ||

इस साल ख़ूब बरसा पानी
भर गए नदी नाले
पिछले दस सालों में
कोई भी ऋतु समय पर कहाँ आई थी ?
जेल में क़दम रखते ही
कोयल का स्वागत-गान सुनकर चकित हुआ
सोचा
क्या अभी से बसंत की ऋतु आ गई ?

निज़ाम-युग की दीवारें
कँटीले तार बिजली की मार
सेंट्री की मीनार
दीवारों के अंदर दीवारें
द्वार के अंदर द्वार
ताला लगाना ताला खोलना
पहरे के गश्तों के बीच कैद पड़ी हरियाली
न उड़ सकने वाले कबूतर
अहाते के अंदर बंदी-जैसा आसमान
नीरव दोपहर में 'अल्लाह-ओ-अक़बर' की गूँज
भीगी धरती को छूकर काँपने वाली हवा
सारी ऋतुएँ यहीं बंदी बनी हुई थीं अब तक
आम की कोंपलों और नीम के फूलों का
एक जैसा स्वाद
बेल्लि ललिता की तरह
जकड़ती ज़ंजीरों का गीत
गाता रहता है जेल का कोयल हमेशा
मैं आ गया हूँ शायद इसलिए
या दोस्त कनकाचारी नहीं रहा इसलिए |



















|| मैं हूँ एक अथक राहगीर ||

मैं एक अथक राहगीर हूँ
घुमक्कड़ हूँ
अँधेरी रातों में दामन फैला कर
आसमान से तारे माँगता रहता हूँ
चाँदनी रातों में
जंगल के पेड़ों से फूल माँगता रहता हूँ

आसमान और ज़मीन ने मुझसे कहा -
तारे टूटकर गिरते हैं तो मनुष्य बनते हैं
मनुष्य बड़े होकर लड़कर अमर होकर
आकाश के तारे बनते हैं
फूल धरती पर गिरकर बीज बनते हैं
बीज ही पेड़ बनकर हवा को पँखा झलते हैं
अपने लिए राह के लिए या दीन दुखियों के लिए
किसके लिए दौड़ रहे हो तुम
यह मालूम हो जाए
तो तुम माँग रहे हो या भीख चाहते हो
यह भी स्पष्ट हो जाएगा

मैं लंबी साँस खींच कर
छाती में प्राणवायु भरकर
निर्जीव उसाँस छोड़ता हूँ
फिर भी हवा चलती रहती है
बाँसों के झुरमुट में बाँसुरी बनकर

मैं अँजुरी में पानी भरकर पीता हूँ
लूट को छिपाकर रखता हूँ
सूखा और बाढ़ की सृष्टि करता हूँ
फिर भी
नदिया सुर बनकर
दरिया गीत बनकर
झरना साज बनकर
प्रवाह संगीत बनकर
बहता ही रहता है
धूप खिलकर
प्रकृति का सत्य प्रकट करती रहती है

समय में क्षण की तरह
अणु में परमाणु की तरह
सागर में बूँद की तरह
आग के गोले में चिंगारी की तरह
आगे पीछे
क़दम से क़दम मिलाते हुए
लड़खड़ाते हुए
बिना रुके चलोगे ...छलाँग लगाओगे ...
तभी इस राह में तुम एक चल बनोगे ...
यह कहकर हँसे धरती और ग़गन !

[प्रख्यात क्रांतिकारी तेलुगु कवि वरवर राव की मूल तेलुगु में लिखी इन कविताओं का अनुवाद आर. शांता सुंदरी ने किया है | कविताओं के साथ दिए गए चित्र मशहूर चित्रकार गोपी गजवानी की पेंटिंग्स के हैं |]


Friday, August 26, 2011

व्योमेश शुक्ल की चार कविताएँ















|| जानना ||

एक दिन कीड़ा काग़ज़ पर बैठा
लेकिन इस बैठने से कुछ समझ पाना असंभव था
इस तरह हल्का असंभव एक बार छोड़ कर चला गया वह मेरे लिए
मैं पतंग उड़ाना तैरना या हारमोनियम बजाना नहीं जानता हूँ
वैसे ही इस कुछ या बहुत कुछ को समझना या सोचना भी शायद नहीं जानता
हूँगा मैंने ख़ुद से कहा
एक जोड़ा आँसू के डब डब को तब समझ नहीं पाया था
ख़ुशी में रोने को समझता हूँ थोड़ा बहुत
अक्सर ख़ुशी को ही नहीं समझ पाता हूँ
रोना जानता हूँ
प्यार करना और पढ़ना दुनिया के सबसे कोमल और पवित्र काम हैं
निर्दोष हँसना अब शायद कोई नहीं जानता
तमाम काम यह एक बड़ा सच है कि तमाम लोग नहीं जानते
जानना हमेशा एक मुश्किल काम रहा



















|| कुछ देर ||

तुम्हारी दाहिनी भौं से ज़रा ऊपर
जैसे किसी चोट का लाल निशान था
तुम सो रही थी और वो निशान ख़ुद से जुड़े सभी सवालों के साथ
मेरी नींद में
मेरे जागरण की नींद में
चला आया है
इसे तकलीफ़ या ऐसा या ऐसा ही कुछ कह पाने से पहले
रोज़ की तरह
सुबह हो जाती है

सुबह हुई तो वह निशान वहाँ नहीं था
वह वहाँ था जहाँ उसे होना था
लोगों ने बताया : तुम्हारे दाहिने हाथ में काले रंग की जो चूड़ी है
उसी का दाग़ रहा होगा
या कहीं ठोकर लग गई हो हल्की
या मच्छर ने काट लिया हो
और ऐसे दागों का क्या है, हैं, हैं, नहीं हैं, नहीं हैं
और ये सब होता रहता है

यों, वो ज़रा सा लाल रंग
कहीं किसी और रंग में घुल गया है

हालाँकि तब से कहीं पहुँचने में मुझे कुछ देर हो जा रही है



















|| मैं जो लिखना चाहता था ||

आँख से अदृश्य का रिश्ता है
मुझे लगा है सारे दृश्य
अदृश्य पर पर्दा डालते हुए होते हैं
जो कुछ नहीं दिखा सब दृश्य में है
और नहीं दिख रहा है

विजय मोटरसाइकिल मिस्त्री की दुकान शनिवार को खुली हुई है
और उस खुले में दुकान की रविवार बंदी
नहीं दिखाई दी लेकिन सोमवार का खुला दिख रहा है

इसका उलट लेकिन एक छुट्टी के दिन हुआ
दुकान बंद थी
बंद के दृश्य में दुकान अदृश्य रूप से खुली हुई थी

और लोग पता नहीं क्यों
उस दिन मज़े लेकर मोटरसाइकिल बनवा रहे थे
मेरे पास सिर्फ एक खटारा स्कूटर है कोई मोटरसाइकिल नहीं है
लेकिन मैं भी सिगरेट पीता हुआ एक बजाज पल्सर बनवा रहा था

अदृश्य से घबड़ाकर मैं दृश्य में चला आया
और दोस्त से पूछने लगा इस दुकान के बारे में
तो वह बोला कि आज यह दुकान
ज़्यादा याद आ रही है क्या पता अपनी याद में खुली दुकान में
वह भी मेरी सिगरेट आधी पी रहा हो

मैंने घर आकर मन में कहा पांडिचेरी मैं वहाँ कभी नहीं गया हूँ
वहाँ का सारा स्थापत्य मैंने ख़ुद को बताया कि
पांडिचेरी शब्द की ध्वनि के पीछे है
लेकिन है ज़रूर
फिर मैंने एक वाक्य लिखना चाहा
लिखने पे चाह अदृश्य है शब्द दृश्य हैं
शब्द की वस्तुएँ दिखाई दे रही हैं और
जो मैं कहना चाहता था उसका कहीं पता नहीं है
वह शायद वाक्य के पर्दे में है
वह नहीं है वह है
मैं जो नहीं लिखना चाहता था वह क़तई नहीं है



















|| यही है ||

जैसे हर क्षण कुछ घट रहा है
हो रहा सब कुछ घटना है
ऐसा कुछ नहीं हो रहा है जो लग रहा था कि होगा
अनिश्चित इसे कहते हैं
पूरा नहीं होता हुआ ताल बज रहा है
उसका आवर्तन अनन्त जितना लम्बा जिसमें
पूरा भूगोल समय का
जंगली भालू है उसमें कुछ बाँसुरियाँ हैं
झीनी आवाज़ है नदी और माँ में से आती हुई
सब कुछ एक साथ यथार्थ है रहस्य है
यही है

[कविता के आलावा व्योमेश शुक्ल की अनुवाद तथा आलोचनात्मक व समीक्षात्मक लेखन में सक्रियता है | वाराणसी में जन्मे और पढ़े व्योमेश को कविता के लिए अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार मिला है | यहाँ उनकी कविताओं के साथ दिए गए चित्र महेश प्रजापति की पेंटिंग्स के हैं | भिलाई में जन्मे, खैरागढ़ और शान्तिनिकेतन में पढ़े तथा चंडीगढ़ ऑर्ट कॉलिज में कार्यरत महेश ने देश-विदेश में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित किया है | उन्हें ललित कला अकादमी तथा इंटरनेश्नल प्रिंट एण्ड ड्राइंग त्रिनाले का अवार्ड मिला है |]



Thursday, August 18, 2011

सुभाष मुखोपाध्याय की दो कविताएँ














|| धूप में रखूँगा ||

हम उमरदराज़ लोग
क्यों बार-बार
घर लौट कर आँखें पोंछते हैं,
वह विस्मित लड़की सोचती है -
हम ज़रूर रो रहे हैं !
यदि नहीं
तो हमारी आँखें नम क्यों हैं ?
भोली लड़की !
हम कैसे समझाएँ
कभी-कभी आँखों के कुएँ के पानी में
रुलाई नहीं, जलन पैदा होती है,
भोली लड़की !
गीली लकड़ी को फूँकने से आग नहीं सुलगती
धुएँ के गुबार में जलती हैं आँखें,
जहाँ भी देखो सिर्फ धुआँ ही धुआँ !
जलती आँखें ले हम बाहर आते हैं
पोंछते हैं आँखें -
तभी तो हमारी आँखें नम रहती हैं

जीवन का यह हाल यूँ तो वर्ष-भर नहीं
केवल बारिश के कुछ माह ....
फिर
सूखी लकड़ियों की धधकती आग में
खदकेंगे चावल के दाने
तब तो जहाँ है - ठीक-ठाक
हम साफ़-साफ़ देख सकेंगे
वर्षा के बाद लकड़ी, कोयला, भीगा सब कुछ
हम धूप में रख देंगे

धूप में रख देंगे
यहाँ तक कि ह्रदय भी !!














|| मैं आ रहा हूँ ||

मैंने आसमान की ओर देखा
वहाँ तुम्हारा चेहरा था
मैंने बंद की आँखें
वहाँ तुम्हारा चेहरा था
वज्र को बहरा कर दे ऐसी आवाज़ में तुम मुझे पुकार रहे हो |

बच्चों की आवाज़ में
दिन और रात के टुकड़े - टुकड़े कर
कौन रो रहे हैं ?
मौत के आतंक में जीवन से लिपट कर
कौन रो रहे हैं |
और इसीलिए
वज्र को बहरा कर देने वाली आवाज़ में
तुम मुझे पुकार रहे हो |

मैं आ रहा हूँ -
दोनों हाथों से अँधेरे को ठेलते-ठेलते
आ रहा हूँ मैं |

किसने संगीनें तान रखी हैं ? ....हटाओ |
कौन खड़ी कर रहा है रुकावटों की दीवारें ? ... तोड़ो |
सारी धरती के लिए मैं लेकर आ रहा हूँ
न रोकी जा सकने वाली अनोखी शांति |

[सुभाष मुखोपाध्याय की मूल बंगला में लिखी इन कविताओं का अनुवाद उत्पल बैनर्जी ने किया है | कविताओं के साथ दिए गए चित्र रमेश झावर की पेंटिंग्स के हैं |]


Friday, August 12, 2011

लीलाधर मंडलोई की एक गद्य कविता

|| हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में ||



















(एक)
मैं रोज़ सोता था सुकून की नींद | और अब जागता हूँ जैसे नींद में | भयावह सपनों में डूबी हैं रातें | मैं हत्यारों को देखता हूँ सपनों में | उनके चेहरे अमूर्त हैं | बस उनका होना परिचितों-सा लगता है | वे बनक-ठनक में सभ्य संभ्रांत दीखते हैं | उनके पास भव्य मोटरें हैं | वे अमूमन बड़ी-बड़ी कोठियों से निकलकर आते हैं | उनके पीछे चलने वालों की जमात है | जो नई-नई शक्ल में हर जगह उपस्थित हैं | वे हथियारों से लैस हैं | उनकी आत्मा का पानी सूख गया है | इस कारण वे पैसों के एवज़ हर उस चीज़ को खरीदने पर आमादा हैं जिसमें पानी है | और सरकारें अपनी तरह से इस व्यापार में हत्यारों की सरकारी गवाह बन चुकी हैं | मेरे इस सपने में जो बिना किसी स्टिंग ऑपरेशन के मूर्त है, मुझे आकंठ घेर लेता है डर में | मैं चीखना चाहता हूँ और आवाज़ जैसे गले में अटकी | सपना मुझे लिए भागता है चौतरफ | और मैं देखता हूँ वो सब जो कभी देखा नहीं | और इस तरह तो बिल्कुल नहीं | कि मेरी आत्मा लहूलुहान |



















(दो)
मैं तो बंधक उनका | हालाँकि यह तो स्वप्न में | मैं उनके पीछे भागता | कि जान सकूँ वह सच जो जीवन भर भारी बहोत | पानी कम होता हुआ गिरवी कहीं | उसके लिए मैं दौड़ता हूँ कि वह कितना बचा याकि बच जायेगा | संततियों की संभार के लिए | मैं उतरता हूँ एक माँ की कोख में | वहाँ एक भ्रूण है | अपने भार के तिरसठ प्रतिशत पानी में | उसी से जीवित वह | मैं कैसे जानूँ कि वह उसी मात्रा में है | और बच जायेगा सुरक्षित | अगर पानी कम हुआ | तो वह बचा हुआ होगा कितना कि जब जन्म लेगा | मैं उतरता हूँ अब अपनी देह में | वहाँ उसे होना चाहिए दो-तिहाई या तीन-चौथाई | और रक्त के प्लाज़मा में चार प्रतिशत होना जरूरी है | और कोशिकाओं में सोलह प्रतिशत | क्या इतना पानी सही-सही मात्रा में होगा | इधर अनेक बीमारियों से घिरा मैं, अब स्वप्न में हूँ डॉक्टर की टेबल पर | वह जाँच करता है और पर्ची में हिदायत लिखता है | मोटे अक्षरों में वह 'शुद्ध पानी' के सेवन पर ज़ोर डालता है यह जानते हुए कि वह सिर्फ प्रदूषित | बाज़ार के दावों को गले लगाए, मैं दौड़ता हूँ शुद्ध पानी के लिए | और झूठ पर एतबार करता हूँ कि जो सच की तरह परोसा गया | कि उसमें अकूत व्यापार | बस शुद्ध का विज्ञापन है अशुद्ध | पानी में वह होगा, ये भरोसा नहीं कर पाता और भय से काँपने लगता हूँ |

[लीलाधर मंडलोई सुपरिचित कवि व आलोचक हैं, जिनकी गद्य व पद्य की अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हैं | यहाँ उनकी कविताओं के साथ दिए गए चित्र शैलेंद्र कुमार के मूर्तिशिल्पों के हैं | पूर्वी चंपारण में जन्में, खैरागढ़ विश्व विद्यालय में पढ़े शैलेंद्र ने अपने मूतिशिल्पों की तीन एकल प्रदर्शनियाँ की हैं तथा कई समूह प्रदर्शनियों में अपने मूर्तिशिल्पों को प्रदर्शित किया है |]

Tuesday, August 2, 2011

नरेन्द्र जैन की कविताएँ



















|| इस वक्त ||

इस वक्त
पीली सुनहरी रोशनी है
मकान में फड़फड़ाती अकेली

दीवारों पर चीज़ों की आधी
परछाई डोलती है
कमीज़ की दो बाहें
शीशी के आसपास दुबका अंधकार

तस्वीरों की खामोश आकृतियाँ
डूबी अपने निर्जीव संसार में
बाहर मटमैले आसमान में भटके यात्री सा
आधा चाँद
आखिरी नज़र डालता है
सामने फैले अंधकार पर

कैसी है यह दुनिया
जो रोज़ जिए चली जाती है

कैसा है यह मिट्टी का दिया
जो फैलाता है
इस विध्वंस के बीच
पीली सुनहरी रोशनी

आह, आखिरी तिनके का सहारा
कितना मज़बूत है
चट्टान की तरह



















|| यहाँ से आगे ||

यहाँ से आगे
कहाँ जाऊँगा
कुछ पता नहीं

लेकिन जानता हूँ
यहाँ से आगे रास्ता
ज़िंदगी की ओर जाता है

वह
अस्तबल में हो सकती है
हो सकती है खेत की मेड़ पर
मुँह में बच्चे के
मीठे स्तन की मानिन्द
हो सकती है

मृत्यु के ऐन सामने
किलकारी की तरह

सच तो यह है
मैं इस समय इसलिए लिखता हूँ
कि मुझे ज़िंदगी का सरनामा मालूम है
और जानता हूँ
कि
पा ही लूँगा उसे मैं



















|| कहाँ-कहाँ नहीं होता हूँ ||

हवा का हल्का झोंका
मुझे बहाये लिए जाता है

कहीं न होते हुए भी
कहाँ-कहाँ नहीं होता हूँ

दृश्य की सीध में
देखो मुझे

बिजली की कौंध में
हादसों के स्पर्श में
बच्चे की स्मृतियों में देखो मुझे

यह नहीं होगा कि
चट्टान की तरह रहूँ
एक सूखे पत्ते की दिनचर्या
ज़्यादा सहज जान पड़ती है
एक पल हवा के साथ
एक पल आग के साथ

हवा का एक झोंका
बहाये लिए जाता है मुझे



















|| आलू ||

जब कुछ भी नहीं
हुआ करता
आलू ज़रूर होते हैं

जब कुछ भी न होगा
आलू होंगे ज़रूर

स्वाद से ज़्यादा
भूख से ताल्लुक रखते हैं
आलू

टुकड़ा भर आलू हो
तो पानीदार सब्ज़ी बना ही लेती हैं स्त्रियाँ

मिट्टी में दबे आलू
मिट्टी से बाहर आकर
प्रसन्न ही होते हैं

जब
आँच में भूने जाते हैं
भूखा आदमी कह उठता है
शुक्र है खुदा का
यहाँ आलू हैं

[नरेन्द्र जैन की कविताएँ उनके कई संग्रहों में तो संकलित हैं हीं, रूसी भाषा में भी अनुदित होकर प्रकाशित हो चुकी हैं | उन्होंने ख़ुद भी कविताओं, कहानियों व नाट्य-कृतियों के हिंदी अनुवाद खूब किए हैं | दो-ढाई दशक पहले उन्होंने 'अंततः' नाम की पत्रिका का संपादन भी किया था | 1948 में जन्मे नरेन्द्र जैन का आज जन्मदिन है | आधुनिक चित्रकला के प्रति गहरा रुझान रखने वाले नरेन्द्र की यहाँ प्रस्तुत कविताओं के साथ दिए गए चित्र मुक्ता गुप्ता की पेंटिंग्स के हैं | विश्व भारती यूनिवर्सिटी से एमएफए मुक्ता ने रांची, जमशेदपुर, पटना, भुवनेश्वर, धनबाद, ग्वालियर, उज्जैन आदि में आयोजित हुए कला-शिविरों में भाग लिया है तथा इन जगहों के साथ-साथ दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ आदि में आयोजित हुई समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | दिल्ली की ललित कला अकादमी की दीर्घा में पिछले करीब एक सप्ताह से चल रही एक समूह प्रदर्शनी में उनकी पेंटिंग्स को देखा जा सकता है | मुक्ता ने अपनी पेंटिंग्स की एक एकल प्रदर्शनी भी की है, और वह कई संस्थाओं से पुरस्कृत व सम्मानित हुई हैं |]

Friday, July 29, 2011

प्रमोद कुमार शर्मा की दो राजस्थानी कविताएँ



















|| फिर भी युद्ध ||

मैं जिन घाटियों में रहता हूँ
अक्सर देखता हूँ उनको
खिसकते हुए
इतनी अस्थिरता !

घर केवल अस्थिरता का नाम है
जिसे बाँधते रहते हैं हम
अक्षांश और देशांतर रेखाओं में !

ऐसा बंधन
फिर भी युद्ध !



















|| यह वक्त ||

यह भी कोई वक्त है ?
शब्द उतरने से करने लगे हैं इनकार
और आत्मा सूखकर
समुद्र से बन गई है बूँद
देश सो गया है
टीवी देखते-देखते
कौन पढ़ेगा कविता ?
यह भी कोई वक्त है कविता पढ़ने का ?

[हिंदी व राजस्थानी में कविता और कहानी लिखने वाले प्रमोद कुमार शर्मा की दोनों भाषाओँ में कई किताबें प्रकाशित हैं | यहाँ दी गईं दोनों कविताएँ मूल रूप में राजस्थानी में लिखी गई हैं, जिनका अनुवाद मदन गोपाल लढ़ा ने किया है | प्रमोद कुमार की कविताओं के साथ दिए गए चित्र हरेंद्र शाह की पेंटिंग्स के हैं | इंदौर के हरेंद्र शाह की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी मुंबई की जहाँगीर ऑर्ट गैलरी में एक अगस्त से शुरू हो रही है, जिसे सात अगस्त तक देखा जा सकेगा |]

Sunday, July 24, 2011

गुलज़ार की चार कविताएँ



















|| देखो, आहिस्ता चलो ||

देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा
देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो

जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जायेगा |



















|| किताबें ||

किताबें झाँकती हैं बन्द अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर .......
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ....
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत-सी इस्तलाहें हैं
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्क़े
किताबें माँगने, गिरने, उठाने क़े बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !



















|| ख़ुदा ||

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख क़े,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया

तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया

मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया -

मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया
और रूह बचा ली

पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी |















|| इक इमारत ||

इक इमारत
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक
बजती है सर में
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ
सुनता हूँ कभी |
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे |
इक महल है शायद !
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को !
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई 'गन्दुम' के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !

एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !

[गुलज़ार की कविताओं के साथ दिए गए चित्र पदमाकर सनतपे की पेंटिंग्स के हैं | 1960 में जन्मे पदमाकर ने नागपुर से ऑर्ट की पढ़ाई की है और कई समूह प्रदर्शनियों में अपना काम प्रदर्शित करने के साथ-साथ उन्होंने अपनी पेंटिंग्स की कई एकल प्रदर्शनियाँ भी की हैं | चार दिन बाद, 28 जुलाई को पदमाकर का जन्मदिन है |]

Friday, July 15, 2011

नीलेश रघुवंशी की चार कविताएँ



















|| बिल्ली और रास्ता ||

टूटता जा रहा है धैर्य
बार-बार घड़ी में समय देखता
उकताहट और बेचैनी में टहलने लगा है
सड़क किनारे खड़ा आदमी
रह-रह कर जकड़ रहे हैं अंधविश्वास

कितने शुभ मुहूर्त में दही-गुड़ खाकर देहरी पार की थी
और तब तो बनते काम भी बिगड़ेंगे
इसलिए सड़क किनारे खड़ा आदमी
प्रतीक्षा में है कि पार कर जाए कोई उससे पहले रास्ता
अपने हिस्से की सारी मुसीबतें, भयावह अंदेशे और अपशगुन
किसी और के हवाले कर निकले फिर वह भी
बिल्लियाँ काटती हैं रास्ता बार-बार
और हँसती हैं आदमी पर |



















|| प्रार्थना ||

वे जो मुझे छलते हैं बार-बार
नदी की तरह बहती न जाऊँ उनके पास
छल से उनके उबरकर, खड़ी रह सकूँ पहाड़ों की तरह
गिरगिट की तरह बदलते उनके रंगों को, हर पल बदलती
विलाप में
रोती और झुक-झुक जाती फलों से भरी डगाल की तरह
दूध से निकली मक्खी की तरह दूर हो सकूँ उनसे
भर चुकी हूँ छल से उनके भीतर तक
प्रभु इतनी शक्ति दो मुझे कि उनके छल को ऊँगली पकड़ बाहर
करूँ
मुक्ति दो मुझे छल से
बल दो कि मेरा प्रेम बदलने न पाए छल में



















|| आधी रात के बाद की आवाज़ें ||

आधी रात के बाद की आवाज़ें
भर देती हैं वरहमेश दहशत से
कुत्ते और बिल्ली के रोने की आवाज से
मारे डर और आशंका के, दुबके रहते हैं कुछ देर हम बिस्तर में
आभास होता है हमसे ज्यादा उन्हें किसी भी अनिष्ट और भयावह
संकट का

तमाम आशंकाओं को परे धकेलते खिड़की से दुत्कारते पत्थर फेंकते
धकियाते उन्हें किसी और के दरवाज़े

आधी रात के बाद बज उठती है जब कभी टेलीफोन की घंटी
हड़बड़ाकर अकबका उठते हैं हम
सिरहाने रखा टेलीफोन साक्षात, यमदूत लगता है उस समय
काँपते मन और ठिठुरते ख्यालों से ताकते रहते हैं टेलीफोन को
बुरी ख़बर के अन्देशों से भरी आधी रात के बाद की आवाज़ें
क्योंकर इतनी डरावनी और भयावह होती हैं |



















|| बिना छप्पर के ||

निकलता झुंड जब भी गायों का बात ही निराली होती उसमें उसकी |
लंबी चौड़ी सफ़ेद झक्क काली-काली आँखें |
बुरी नज़र से बची रहे हमेशा गले में उसके रहता काला डोरा |
थन उसके भरे रहते हमेशा जरूरी नहीं छोड़ा जाए पहले बछड़े को |
बिना लात मारे भर देती भगोने पे भगोने |
लोग अचरज से भरे रहते हमेशा - दुधारू गाय वो भी बिना लात वाली |
हर एक ग्वाले का सपना - कजरारी आँखों और भरे थन वाली गाय |
खुले में घास चरते समय एक दिन
एक पागल कुत्ते ने काट लिया उसे |
दौरे पड़ने लगे गाय को दौड़ती फिरती इधर से उधर |
छकाती सबको बीच सड़क पर बैठ फुंफकारती |
एक मजबूत पेड़ से बीच मैदान में रस्से से बंधी है गाय |
बिना छप्पर के मरने के लिए छोड़ दिया उसे उन्होंने
दिया जिन्हें उसने कई-कई मन दूध बिना लात मारे |

[नीलेश रघुवंशी की कविताओं के साथ दिए गए चित्र अनिल गायकवाड़ की पेंटिंग्स के हैं | नीलेश और अनिल भोपाल में रहते हैं |]

Wednesday, July 6, 2011

मोहनकुमार डहेरिया की दो प्रेम कविताएँ



















|| मैं लौट आया ||

आखिर मैं लौट आया
मिल सकता था जहाँ मेरी तपती हुई आत्मा को सबसे गहरा सुकून
वहाँ पहुँचने के पहले ही
आखिर मैं लौट आया

यह वह जगह थी
दुःखों को जहाँ सीने पर तमगों सा सजना था
समाना था कामना की एक लपट को दूसरी लपट के जिस्म में
कर रही थी यहीं
समय की भयावह झाड़ियों के बीच
असंख्य पंखुड़ियों वाले विलक्षण फूल की तरह
वर्षों से एक लड़की मेरा इंतज़ार

कितना तो खुश था मैं
चल रहा था बहुत तेज-तेज
तभी धर्म के बहुत ऊँचे पहाड़ पर खड़े एक विदूषक ने घुमाई जादू
की छड़ी
मैंने देखा
अजगर की तरह जकड़ गया मेरे इरादों से मेरी माँ का आँचल
फड़फड़ाकर टूटने ही वाला है
पैरों के नीचे आकर पिता का झुर्रीदार चश्मा
दिखाई दिया मेरा अपना घर
जर्जर टिमटिमाती हुई रोशनी वाली लालटेन की तरह
कर रहा था वापस लौट आने का संकेत

थोड़ी दूर ही तो रह गई थी वह जगह
कि मैं लौट आया
मेरे ज़ख्मों को आनी थी जहाँ खूब गहरी नींद
और कंठ में फँसी एक चीख़ को तब्दील होना था एक बेहद सुंदर
राग में
वहाँ पहुँचने के पहले ही
आखिर मैं लौट आया |



















|| मुलाकात ||

कभी सोचा न था
इस तरह भी होगी मुलाकात
मिलती है जैसे किसी संगम पर एक नदी दूसरी नदी से
दिखाती हुई आपस में
एक लंबी बीहड़ यात्रा में सूजे हुए पैर
देह पर पड़े प्रदूषण के निशान

यह सच है
अलग-अलग हो चुके हमारे रास्ते
पिट चुके जीवन की बिसात पर सारे मोहरे
ज्यादा दूर नहीं पर वे दिन
मुझे देखते ही लाल सुर्ख़ हो जाती थी तुम्हारे कानों की कोर
झनझना उठते तुम्हारी आवाज से मेरे अंदर के तार
तब भी आते थे जीवन में हताशाओं के दौर
क्रूरता के उच्चतम शिखर पर पहुँच जाता कभी-कभी यातनाओं
का सूर्य
होती थी चूंकि एक दूसरे की बाँहों में बांहें
पार कर जाते अंतःशीतल हवा के झोंके सा
जीवन के सारे तपते हुए रास्ते
यह तो था कल्पना के बाहर
इस तरह भी थामेंगे एक दूसरे को कभी
थामती है जैसे एक ढहती हुई दीवार
दूसरी ढहती हुई दीवार को

सचमुच कितने सुंदर दिन थे वे
अभिसार की स्मृतियों से सनी हुई वे रातें
एक दूसरे का जरा सा स्पर्श
तेज कर देता शरीर में खून की गति
आज भी याद आती है
कामनाओं के क्षितिज पर अस्त होती तुम्हारी वह देह
और माथे पर अंकुरित होते पसीने के नन्हें-नन्हें चंद्रमा
दुःस्वप्न में भी न थी कभी आशंका
इस तरह भी संभव होगा कभी हमारे बीच प्रेम
लिपटा रहा हो जैसे झुलसी हुई पीठ वाला एक चुंबन
झुलसी हुई पीठ वाले दूसरे चुंबन से |

[केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक मोहनकुमार डहेरिया प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए हैं और उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं | यहाँ उनकी कविताओं के साथ दिए गए चित्र शिमला में जन्मे और दिल्ली में रह रहे युवा चित्रकार भानु प्रताप की पेंटिंग्स के हैं |]

Thursday, June 30, 2011

प्रेमशंकर शुक्ल की कविताएँ



















|| काग़ज़ ||

काग़ज़ जिसमें स्पंदित है
वनस्पतियों की आत्मा
आकाश जितना सुंदर है

जैसे शब्दों के लिए है आकाश
काग़ज़ भी वैसे ही

स्याही से उपट रहा जो अक्षरों का आकार
काग़ज़ पूरी तन्मयता से
रहा सँवार

जीवन की आवाज़ों-आहटों, रंगत
और रोशनी से भरपूर इबारतें
काग़ज़ पर बिखरी हैं चहुँओर
धरती में घास की तरह

और उन्हें धरती की तरह काग़ज़
कर रहा फलीभूत |



















|| नीली स्याही ||

नीली स्याही में
भीगे हुए हैं
कितने रंग के दुःख
कितनी उदासी-टूटन-हताशा,
पीड़ा और प्रेम
नीली स्याही में है
गुंजायमान
(जिसका कि सिर्फ़ नीला रंग नहीं है)

पंक्तित इस नीलाभ में
शामिल है
कितने तरह की चीज़ों की आवाज़
और चुप्पी

आखिर
नीला ही कितना बचा होगा
नीली स्याही में
जब उड़-सिकुड़ रही हो रंगत
जीवन से लगातार

[प्रेमशंकर शुक्ल की कविताओं के साथ दिए गए चित्र विक्रम नायक की पेंटिंग्स के हैं | बहुमुखी प्रतिभा के धनी विक्रम नाटकों व टेलीविजन धारावाहिकों में भी काम कर चुके हैं और एक चित्रकार के रूप में अपनी पेंटिंग्स देश-विदेश में प्रदर्शित कर चुके हैं |]

Monday, May 9, 2011

पंकज राग की कविताएँ

















|| अभी वक्त है ||

मेरे बच्चे भींगे-भींगे से हैं
जितना पानी मेरे घर में है, उतने से ही मेरे बच्चे भींगे-भींगे से हैं
समय कच्चा है
मौसम फूला-फूला है
जो न है वह आग है
जो है वह इंद्रधनुष है
जो नहीं होगा वह निषिद्ध है
जो होगा वह सुंदर संसार है |

मेरे बच्चे मेरे सपनों के राजा हैं
मिठाइयों में लड्डू हैं
पिछवाड़े के बंद दरवाज़े और सामने की ईंटों के बीच
जो महफूज़ है, वह मेरा आँगन नहीं मेरे बच्चे हैं
जो दबे पाँव आता है
वह सन्नाटा नहीं रहता
क्योंकि मैं ज़ोर-ज़ोर से बोलता हूँ
जैसे रात की कहानी में मिट्ठू
जिसे मैं बूढ़ा नहीं होने देता
तोता, मैना, शेर, हाथी - और जंगल में सुख ही सुख |

रात की कहानी एक मिथक की निरंतरता है
एक घाट का पानी
घाट की हरी घास,
चाह के साथ करिश्मा
पूर्वाग्रह भरी विजय
कोई दावानल नहीं, कोई सूराख़ नहीं
सुरंगों की मिट्टी भी शुद्ध
वहाँ भी गंध सोंधी
आश्वस्त करती थपकियाँ
और भीनी-भीनी नींद |

अभी वक्त है उस रात के आने में
जब मेरे बच्चे इन मिथकों की खिड़कियाँ खोलेंगे
वह एक व्यस्क रात होगी
और मैं अगली सुबह बूढ़ा होकर उठूंगा |

पर अभी वक्त है
अभी तो मैं जवान हूँ
और मेरे बच्चे भींगे-भींगे से हैं |

















|| फूटने दो रंग ||

तुम एक अलहदा तस्वीर बन कर नहीं बोलोगी किसी दिन
मैं क्यों रंग तुममें भरूँ ?
रंग झीने नहीं होते
मन अधडूबा रहे,
फिर भी अकड़ जाते हैं रंग
रंग लौटते नहीं,
रंग चुक जाते हैं |

तुम भरी पूरी रहो, न रहो,
पर सलामत रहो
पराकाष्ठा या चरम पर न भी पहुँचो
पर निरन्तर रहो,
कालजयी नहीं, आत्मजयी बनो
ऐसे ही हिलोरती रहो पर छिटको नहीं |

उगने दो गेहूँ की बालियों को
फैलने दो वटवृक्ष, फूल, पौधे, बांस
फूटने दो रंग, चटकने दो गंध
होने दो सब गाढ़ा-गाढ़ा,
तुम यूँ ही मद्धम रहो |

रीतने दो काग़ज को
सुलगने दो आकृतियों को
बनने दो लाल, नीला, पीला प्रचंड
बढ़ता जाए ठाठ-बाठ, टंगता जाए रूप-रंग
बढ़ती जाए ज्योति उनकी
फूले फले धूप हवा, चढ़े वैभव, घेरे रहस्य
बने हुए श्वेत शुभ्र तुम तो बस पसार दो |

[इतिहास के विद्यार्थी और अध्यापक रहे पंकज राग ने भारतीय प्रशासनिक सेवा का रास्ता जरूर पकड़ा, लेकिन कविता से उनका जो रिश्ता बचपन में ही बन गया था वह नहीं छूटा | इतिहास और पुरातत्व में विशेष रूचि रखने वाले पंकज राग की कविताओं ने पिछले वर्षों में ध्यान आकृष्ट किया है | पंकज फिल्म संगीत के भी गंभीर अध्येता हैं | यहाँ प्रकाशित उनकी कविताओं के साथ दिए गए चित्र अतुल पडिया की पेंटिंग्स के हैं | अतुल पडिया ने वडोदरा के प्रतिष्ठित एमएस विश्वविद्यालय से विजुअल ऑर्ट में मास्टर्स किया है तथा कई एक प्रमुख जगहों पर अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित किया है |]

Monday, April 25, 2011

रिल्के की कविताएँ



















|| बरसात का मतलब है / हो जाना दूर और अकेला ||

बरसात का मतलब है
हो जाना दूर और अकेला |

उतरती है साँझ तक बारिश -
लुढ़कती-पुढ़कती, दूरस्थ -
सागर-तट या ऐसी चपटी जगहों से
चढ़ जाती है वापस जन्नत तक
जो इसका घर है पुराना |

सिर्फ़ जन्नत छोड़ते वक्त गिरती है बूँद-बूँद बारिश
शहर पर |
बरसती हैं बूँदें चहचहाते घंटों में
जब सड़कें अलस्सुबह की ओर करती हैं अपना चेहरा
और दो शरीर

लुढ़क जाते हैं
कहीं भी हताश -
दो लोग जो नफ़रत करते हैं
एक-दूसरे से
सोने को मजबूर होते हैं साथ-साथ |
यही वह जगह है
जहाँ
नदियों से हाथ मिलाता है
अकेलापन |















|| दुनिया बड़ी है उस शब्द की तरह ||

जो भी तुम हो : शाम को निकलो
अपना कमरा छोड़ कर -
वहाँ जहाँ सब-कुछ जाना-चीन्हा हो,
उस दूरी और तुम्हारे बीच -
खड़ा है तुम्हारा मकान |
देहली छेंके हुए बैठी
थकी-थकी आँखों से -
तुम उठा लेते हो
एक काला पेड़ :
दुबला, अकेला,
और उसे आकाश से टिका देते हो |
इसी तरह खड़ी किया करते हो तुम
एक दुनिया नई |
और यह दुनिया बड़ी है
उस शब्द की तरह
जो शांति से पक रहा है |
जैसे ही तुम्हारी अभीप्सा
शब्द का निकालती है मतलब
धीरे-से टपका देती हैं
उसे तुम्हारी आँखें |















|| फूलों को देखो ||

फूलों को देखो, वे वफादार हैं धरती के -
हम किस्मत के अंत के छोर से
उनको क़िस्मत बख्शते हैं !
पर शायद उनको होता हो अफ़सोस
अपने बिखरने के ढंग का |
या शायद हम ही हों उनके अफ़सोस का
मूल कारण |
सब चीज़ें चाहती हैं तिरना | और हम बोझ की तरह
बँटते हैं - टिकते हुए सारी चीज़ों पर -
भारोन्मत्त |
कैसी माशाअल्ला शिक्षक हैं चीज़ें भी -
जबकि चीज़ों को है वरदान
हरदम ही बच्चा बने रहने का |
यदि कोई उन्हें गहन निद्रा में ले जाए,
और उनके साथ जमके सो जाए - कितना हल्का-हल्का
महसूस वह करेगा उठने पर -
बदला हुआ होगा वह, बदले हुए होंगे उसके दिन -
अंतःसंवाद से
गुज़रने के बाद |
या हो सकता है - वह ठहरे, और वे खिलें |
और कर दें बड़ाई - बदले हुए शय की |
नन्हे-नन्हे भाई-बहनों के साथ
घाटियों, हवाओं में रहते हैं
मिल-जुलकर ये |



















|| उत्सवों ने खो दिए हैं अपने अंतिम संशय ||

प्रशंसा-वशंसा से
दुःख को गुज़र जाना चाहिए |
वह जलीय आत्मा आँसू के झील की :
दरगुज़र करती है चूकें हमारी ....
निश्चित यह करने की ख़ातिर कि पानी
उसी एक चट्टान से साफ़ उठता है, जिससे कि दबे पड़े हैं
सारे दरवाज़े और पूजावेदियाँ भीमकाय |
तुम देख सकते हो, उसके स्थिर कंधों के आस-पास ....
एक हूक उठती है ....
एक एहसास-सा घुमड़ता है
कि हमारे भीतर की तीन बहनों में
छोटी है सबसे वह !
उत्सवों ने खो दिए हैं अपने अंतिम संशय,
और कामना अपनी भूलों पर चिंतन करती है |
सिर्फ़ तकलीफ़ सीखती है अपना पाठ अब तक :
रात-भर वह अपने छोटे हाथों से गिनती है
अपनी ओछी विरासतें |
हैं विचित्र लेकिन वे मजबूर करती हैं हमको
आकाश के तारों की तरह, गुच्छों में -
साँसों की धार के परे !

[जर्मन कवि रिल्के (1875-1926) विश्व की प्रथम पंक्तियों के कवियों में अन्यतम हैं | यहाँ प्रस्तुत उनकी कविताओं का अनुवाद हिंदी की सुपरिचित कवयित्री अनामिका ने किया है | रिल्के की कविताओं के साथ दिये गए चित्र दिव्या गोयल की पेंटिंग्स के हैं | हरियाणा के अपेक्षाकृत एक छोटे शहर कैथल में जन्मी-पली दिव्या को कला का संस्कार अपनी माँ से मिला, जिसके चलते उन्होंने स्कूली पढ़ाई के दौरान ही चित्रकार बनने का निश्चय किया | अपने निश्चय को पूरा करने के लिए ही दिव्या ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से फाईन ऑर्ट में एमए किया | दिव्या ने कुछेक समूह प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित किया है तथा अपनी पेंटिंग्स की एक एकल प्रदर्शनी भी की है |]

Sunday, April 10, 2011

रीता सिंह की कविताएँ



















|| नन्ही-सी पकड़ ||

उस
नन्ही हथेली
की नन्ही अँगुलियों की
थरथराती ख़ामोशी की
हल्की-सी पकड़
कि तुम फिर आना
जबकि
जुबाँ पर होती चुभती चुप्पी
और चेहरा प्रतिक्रिया-विहीन
जबकि
आँखों के उस दायरे में
नहीं होता किसी रिश्ते का
अहसास
पर मुझे
छू लेती वह हल्की-सी पकड़
जो
कह रही होती कि
तुम फिर आना
जीवन की आपा-धापी में
हमेशा
गूँजा करता है मेरे आसपास
नन्ही-सी हथेली का
वह निमंत्रण
कि तुम फिर आना

पाकर वह निमंत्रण
उस नन्ही हथेली तक
पहुँच ही जाती हूँ मैं अक्सर
घंटों बैठते हम साथ
पकड़ एक-दूसरे का हाथ
तब ना ही वह कुछ कहती
और
ना उसकी नन्ही अँगुलियाँ
पर मेरे उठते-उठते
अचानक काँपती उसकी अँगुलियाँ
और हौले से रख देती पुनः अपना निमंत्रण
एक नई सरलता के साथ
जिसमें छुपा होता
अनगिनत
रिश्तों का हिसाब-किताब
कि
तुम फिर आना
कि
तुम
फिर
आना |



















|| सूर्यास्त का सूरज ||

मेरे ख़ामोश रहने को
तुम ग़लत न समझ लेना
शायद, मुझमें ही छुपा है
सूर्यास्त के बाद का सूरज

जो शाम ढलते ही
लोगों की नज़र में
सो जाता है, पर
एक नई सुबह के लिए
नई सृष्टि के लिए
तारों के देश में - 'वह'
निविड़ अकेला घूमकर
एक नई रोशनी और नई किरण को
लेकर
फिर सुबह उगता है
नवजीवन का पैगाम लेकर

मेरे ख़ामोश रहने पर
तुम्हारा
विजयघोष-विजयोन्माद
शायद तुमने ग़लत तो नहीं समझ लिया
पूरा का पूरा सागर गहराया है - मुझ में
बस रुकती हूँ तो
केवल उनके लिए
जो आज भी माचिस की तीलियों में,
सूरज का अहसास करते हैं
बस ख़ामोश रहती हूँ तो
उनके लिए
जिसने मुझे रिश्तों की
पहचान कराई है
जो मेरे चुप रहने का अर्थ समझते हैं
वक्त की चाल समझते हैं
मुझे कुछ कहने और करने से
रोकते हैं
मेरे ख़ामोश रहने का अर्थ
कुछ और न समझ लेना
बर्फ़ में
सनसनाती चीख़ती आँधी
की तरह हूँ मैं
जिस दिन चीख़ पड़ी
पूरा का पूरा
तुम्हारा
पहाड़नुमा साम्राज्य
भरभरा जाएगा
हिम गोलों की तरह
हिमस्खलन हो जाएगा

मेरे ख़ामोश रहने को
दहकते सूरज के नाम
तुम ग़लत न समझ लेना
सृष्टि की जटिलता के नाम
मेरे ख़ामोश रहने को
तुम ग़लत नाम न दे देना |



















|| कुछ पता नहीं ||

किस परिधि, किस हूरे नज़र
को ढूँढ़े है मेरा ये मन
कुछ पता नहीं |

कुछ पता नहीं
किस अनजाने सफ़र को ढूँढ़े है
मेरा ये मन |

किस प्रकाश कण किस मरुदान
को ढूँढ़े है मेरा मन
क्यों ढूँढ़े है उसे मेरा मन
कुछ पता नहीं |

झूम के बरसे अपनों के
प्यार की बदरी
तन तो गीला हो जाए
पर
मन तब भी सूखा रह जाए
कैसे - कुछ पता नहीं |

फूलों की पंखुड़ियों में
जीवन का रूप देखती हूँ
पक्षियों के झुण्ड में
एक अनुशासन देखती हूँ
पेड़ों की ख़ामोशी में
अर्द्धसुप्त ज्वालामुखी देखती हूँ
कैसे देख लेती हूँ
कुछ पता नहीं |

पता है तो सिर्फ़ इतना
कि ...
ख़ुद को इस जमीं पर
अकेला देखती हूँ
और पिछले मोम वाले चेहरों से
अलग हो कर
तन्हा ही रहना चाहती हूँ
क्यों ....?
कुछ पता नहीं |



















|| मुझे कुछ होता है ||

रोक लो, तुम
अँधेरों के बीच बहते
मुस्कान की धवल धारा को
मुझे - कुछ होता है

रोक लो, तुम
ज़िंदगी के पाटों में फँसे
मन की विरह-वेदना से बनते
बेल-बूटों की हरीतिमा को देख
मुझे कुछ होता है |

रोक लो, तुम
आस्था की गिरती दीवारों को
जो कुछ भी बचा है आज - अलभ्य है |
मुझे कुछ होता है |

बेशक
ये सभी
जीवाश्म की कणें हैं
पर रोक लो इसे तुम
दबी हैं इसमें अनुभवों की परतें
हमारे नन्हें कोंपल
के आएँगे काम
तमस को हटाने में |

रोक लो तुम इन्हें
बेशक ये मिट्टी के ढेले हैं
पर रोक लो इन्हें
मुझे कुछ होता है |

[भागलपुर (बिहार) में जन्मी तथा कुल्लू (हिमाचल प्रदेश) के राजकीय महाविद्यालय में अध्यापनरत रीता सिंह की कविताएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित होती रही हैं | 'जाड़े की धूप' नाम से नई दिल्ली के अंतिका प्रकाशन ने उनका एक कविता संग्रह भी प्रकाशित किया है | रीता सिंह की कविताओं के साथ दिये गए चित्र राजस्थान स्कूल ऑफ़ ऑर्ट से पढ़े और अजमेर में रह रहे चित्रकार योगेश वर्मा की पेंटिंग्स के हैं | योगेश वर्मा कई समूह प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित कर चुके हैं तथा पिछले ही वर्ष चेन्नई व कोलकाता में अपनी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी कर चुके हैं | योगेश वर्मा कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरुस्कृत भी हुए हैं |]

Wednesday, March 30, 2011

अचला शर्मा की कविताएँ



















|| परदेश में बसंत की आहट ||

यहाँ कोई मुंडेर तो नहीं
ना ही वो आँगन
जिस के पार का आकाश
और नीला, और खुला लगता था
सुबह-शाम
भर जाया करता था
सैकड़ों चिड़ियों के वृंदगान से |
यह तो परदेस है
और हर मौसम प्रवासी
फिर भी ....
अचानक आज
एक अजनबी पंछी सीटी बजाता
मेरी गली से गुज़रा,
कि सामने के पेड़ ने चौंक कर
बिना कपड़े पहने ही
माथे पर लगा ली
नन्हीं-सी गुलाबी बिंदिया
धूप ने शरारत से आँख मारी
पड़ोसी के बच्चे ने राल-सने हाथों से
ऊनी मोज़ा उतारा
और फिर मारी ज़ोर से एक किलकारी
मेज़ पर रखी चिट्ठी
अधलिखी ही रह गई,
लगा, मौसम बादल गया |


















|| अब भी आते हैं सपने ||

कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने
कुछ गहरी नींद में चलते
कुछ खुली आँखों में बहते
कुछ सुप्त और चेतन की संधि-रेखा पर
असमंजस की तरह झिझकते
पर अब भी आते हैं सपने |

बल्कि अक्सर आते हैं
जहाँ-जहाँ चुटकी काटते हैं
वहाँ-वहाँ भीतर का बुझता अलाव
फफोला बन उभर जाता है
देह का वो हिस्सा
जैसे मौत से उबर आता है
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने |

आते हैं
तो कुछ पल ठहर भी जाते है
चाहे मुसाफ़िर की तरह
लौट जाने के लिए आते हैं,
पर लौट कर कभी-कभी
चिट्ठी भी लिखते हैं
कहते हैं बहुत अच्छा लगा
कुछ दिन
तुम्हारी आँखों में बस कर
तुम ने आश्रय दिया
हमें अपना समझ कर,
आभार !

कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं सपने
धूप की तरह, पानी की तरह
मिट्टी और खाद की तरह
तभी तो
सफ़र का बीज
ऊँचा पेड़ हो गया है
छाँव भले कम हो
भरा-भरा हो गया है,
उस पर लटके हैं
कुछ टूटे, कुछ भूले, कुछ अतृप्त सपने
कुछ चुभते-से, दुखते-से
पराए हो चुके अपने,
फिर भी आते हैं सपने
कितना अच्छा है
कि अब भी आते हैं |

[ अचला शर्मा की कविताओं के साथ दिये गए चित्र ऋतु मेहरा की पेंटिंग्स के हैं | ऋतु की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी नई दिल्ली की त्रिवेणी कला दीर्घा में चल रही है, जिसे छह अप्रैल तक देखा जा सकेगा | ]

Saturday, March 19, 2011

श्याम कश्यप की कविताएँ



















|| कन्याकुमारी का जादू ||

न सूर्योदय देख सके
न सूर्यास्त हम -
दो दिन कन्याकुमारी में

धुआँधार बरसते पानी के नीचे
सागर-लहरों की ऊँची उछाल....

एक के बाद एक जैसे
फिसलती -
चली आ रही हो
आसमान छूती
पानी की ठोस
धुँधली-पारदर्शी दर्शनीय दीवार |

तीन-तीन सागरों के महासंगम पर
एक लहर इधर एक उधर से प्रवेग
इन सबके ऊपर एक और .....

सामने से हिंद महासागर का ज़ोर
जैसे बाँहों में बाँहे फँसाये -
तीन महाबलियों के जूझने का शोर |

तीन महासागरों के संगम पर
मंत्रमुग्ध-से खोये रहे हम घंटों
त्रिकाल-बोध के कमान से छूटे
तीखे तीर-से अनंत में -

बाँध लेता है ऐसे ही
जाल में कस कर सभी को
अनोखा कन्याकुमारी का
ऐन्द्रजालिक जादू -

पिघलने लगता है आकाश
सवेग स्वर्ण-सरिता-सा
कविता की कंचन-धारा बन कर !















|| विवेकानंद शिला पर ||

विवेकानंद शिला से
देख रहे हम एकटक
तीन-तीन सागरों का
असीम विस्तार -
उछाल अनंत जलराशि की !

बंद कर लेना चाहते हैं
सीपियों में आँखों की
हिंद महासागर के सौंदर्य का
एक थिरकता उज्ज्वल मोती !

बायीं ओर बंगाल की खाड़ी
उद्वेलित लहरों के वेग से
रह-रह कर टकरातीं आकर जो
चट्टानों से जूझती .....

दूर दाहिने से
चला आ रहा
तूफ़ानी रेला
अरब सागर का दौड़ता .......

विशालकाय बाँहों में अपनी
दोनों को समेटता-समोता हिंद महासागर |

एक-दूसरे में घुलते-मिलते -
झिलमिल-झिलमिल अलग-अलग रंग
फिर एक ही विराट हरित नीलिमा में खो जाते-से !



















|| सागर मुद्राएँ ||

अनेक रंग
अनेक रूप
मुद्राएँ भी अनेक
देखीं समुद्र की
कई-कई दिन पांडिचेरी-तट पर

सुबह से शाम
कभी देर रात-रात तक
सुनहरा मटमैला कभी
और कभी धवला-सा
झाग-भरा फेन-भरा
नीला कभी हरा-हरा
कभी आँखों में सातों रंग घोलता

बाँहों में लेने को दौड़ता
कभी फिर पीछे ही लौटता
चट्टानों पर कभी सिर गुस्से से फोड़ता
कभी बस डोलता और नींद ही में बोलता
शांत कभी लेटा-लेटा बिस्तर पर लुढ़कता
कभी आकाश चूमने को बदली-संग खेलता |















|| समुद्र में आग ||

बेहद आकर्षित करता है
महाबलिपुरम के समुद्र का
गरजता-उफ़नता रौद्र रूप

तेज़ हवाओं की मथानी से
मथे जाते हुए जैसे -
फेन उगलता-उछलता चंचल सागर |

तट की चट्टानों पर
टूट कर बिखरीं
काँच की दीवार-जैसी ऊँची-ऊँची
अनवरत लहरों पर लहरें -

उगते सूरज की
स्वर्णिम लालिमा से
जल उठीं रँगकर -
अनगिनत लपकती ज्वाल-मालाएँ |

तट का एकाकी मंदिर
दिप-दिप उठा
आग फेंकती -
समुंदर की आतशी शीशे-जैसी लहरों से |

[ श्याम कश्यप की कविताओं के साथ दिये गए चित्र अनु धीर की पेंटिंग्स के हैं | इंदौर में जन्मीं और वहाँ के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में पढीं अनु देश विदेश में समकालीन भारतीय कला की एक प्रखर चितेरी के रूप में पहचानी जाती हैं | देश विदेश में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित कर चुकीं अनु की पेंटिंग्स देश के साथ साथ स्वीडन, फ्रांस, नीदरलैंड्स, कनाडा आदि में लोगों और संस्थाओं के पास संग्रहित हैं | मजे की बात यह है कि अनु ने चित्रकार बनने के बारे में कभी सचेत तरीके से सोचा भी नहीं था | एक कला संस्थान में एडमिशन लेने की अपनी कोशिश के असफल हो जाने का भी उन्होंने कोई अफसोस नहीं मनाया था | नौकरी और परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए उनकी कला अभिरुचि लेकिन स्वतः ही कैनवस पर ट्रांसफर होने लगी, और फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा | इस ब्लॉग पर लगाने के लिए पेंटिंग्स के फोटोग्राफ देने के हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए अनु धीर ने बताया कि उनकी पेंटिंग्स का कॉपीराइट अधिनियम के तहत कॉपीराइट है, जिस कारण उनकी पेंटिंग्स को कॉपी और या पुनर्प्रदर्शित नहीं किया जा सकता | ]

Saturday, March 5, 2011

प्रयाग शुक्ल की कविताएँ

|| प्रेम : एक श्रृंखला ||















(एक)
पर्वत से लुढ़कने,
और फिर चढ़ने,
कहीं अधबीच में
एक चट्टान से उलझी हुई
शाखा को पकड़ने,
और फिर फिसलने के
क्रम में,
किसी फूल की सुगंध में -
कुछ देर विचरने का
अनुभव !

कलरव
चिड़ियों का |
घनी छाया का आश्वासन
अगले कदम पर |
एकदम निर्मल आकाश
में श्वास !















(दो)
दोनों किनारों के बीच
मँझदार
में एक नाव |
शांत निश्चल पल |
जल ही जल
चारों ओर |
धुँधलाता हुआ
हर तरफ का
शोर |
खुलती हुई
खिड़कियाँ
दिशाओं की !















(तीन)
नींद में एक मुख,
ढका हुआ
झीने वसन में,
झीना |
और उसके भीतर के
सपनों की तहें |
कुछ भी न कहें |
उसी अनजाने सुख
में रहें -
भीतर तक मौन !!















(चार)
चपल चंचल एक गति,
जैसा कि हिरण हवा में
अश्व एक,
पैरों को उठाये -
उड़ती चली जाती
चिड़िया
किसी घाटी में |

विद्युत तरंग |

दौड़ते चले आते
इसी ओर
कई-कई रंग |
फिर उनमें से
करता विलग
एक अपने को,
आ रहता सामने !















(पाँच)
एक मिली हुई निधि |
बार बार आ रहती
निकट | हर करवट |

कोई विधि
जिससे थम जाता है जलधि -
और फिर उठता है
ज्वार !!
अपार !

[प्रयाग शुक्ल की कविताओं के साथ दिये गए चित्र मुकेश मिश्र द्वारा खींचे गए फोटो हैं |]