
|| अँधियारा ||
अजीब दहशत सी है जब
अपने शहर के आने पर झाँकता हूँ बाहर ट्रेन से
वहाँ घुप्प अँधेरा है
भय का उदगम है ये अँधकार
न जाने क्या चीज़ किस चीज़ से
टकरा जाए बुरी तरह
यह वह अँधियारा है
जिसे सूरज छोड़ गया अपने आने तक
जो घर की छत से चिपका है
नदी किनारे रेत के कणों के बीच में
और गहरा गया है
ये दुनिया के बनने के पहले दिन से है
अस्तित्व में
इसका होना देर तक, अखरता है हमें
हम डरे हुए हैं दरअसल
अपनी बनाई चीज़ के मौजूद न होने पर
अँधियारा इसीलिए हुआ है भयानक आज
क्योंकि हमने कल तक इसे
अलग करके नहीं देखा
रोशनी से

|| इस तलाश में ||
आँखों में सँजो लेना चाहता हूँ
खेत में बिछी काली मिट्टी की उर्वरता का तेज़
मोटर बस में सफ़र करते हुए
यह भी सोचता हूँ
सूरज की दमक
देती रहे एक पुंज ऐसे ही
दोस्तों की बातों में ही
खोज लेता हूँ
जीवन के हक़ में बोले जाने वाली बात
किसी पक्षी की तरह
इकट्ठा कर रहा हूँ
प्यार की बातों के तिनके
इस तलाश में
जिन चीज़ों को रद्द करता हूँ
वे अचरज से घूरती हैं मेरी ओर
और हँस पड़ती हैं
मेरे फ़ैसले पर
[ब्रज श्रीवास्तव की कविताओं के साथ दिए गए चित्र समकालीन कला परिदृश्य में अपनी खास पहचान बना रहे चित्रकार शाम पह्पलकर की पेंटिंग्स के हैं |]
सुन्दर चित्र और कविता
ReplyDeleteसुन्दर!
ReplyDeleteजीवन के अनमोल क्षणों को सहेजती ब्रज जी सार्थक कविताएँ ।आज 'अंधियारा'कविता को माध्यम बना कर शरद कोकास ने मस्तिष्क की सत्ता श्रृंखला को समझाया । बधाई और आभार दौनों कवियों का ।
ReplyDeleteधन्यवाद.. मित्रो और ये ब्लाग कि मेरी कवितायें लीं
ReplyDeleteधन्यवाद.. मित्रो और ये ब्लाग कि मेरी कवितायें लीं
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