Friday, July 29, 2011

प्रमोद कुमार शर्मा की दो राजस्थानी कविताएँ



















|| फिर भी युद्ध ||

मैं जिन घाटियों में रहता हूँ
अक्सर देखता हूँ उनको
खिसकते हुए
इतनी अस्थिरता !

घर केवल अस्थिरता का नाम है
जिसे बाँधते रहते हैं हम
अक्षांश और देशांतर रेखाओं में !

ऐसा बंधन
फिर भी युद्ध !



















|| यह वक्त ||

यह भी कोई वक्त है ?
शब्द उतरने से करने लगे हैं इनकार
और आत्मा सूखकर
समुद्र से बन गई है बूँद
देश सो गया है
टीवी देखते-देखते
कौन पढ़ेगा कविता ?
यह भी कोई वक्त है कविता पढ़ने का ?

[हिंदी व राजस्थानी में कविता और कहानी लिखने वाले प्रमोद कुमार शर्मा की दोनों भाषाओँ में कई किताबें प्रकाशित हैं | यहाँ दी गईं दोनों कविताएँ मूल रूप में राजस्थानी में लिखी गई हैं, जिनका अनुवाद मदन गोपाल लढ़ा ने किया है | प्रमोद कुमार की कविताओं के साथ दिए गए चित्र हरेंद्र शाह की पेंटिंग्स के हैं | इंदौर के हरेंद्र शाह की पेंटिंग्स की प्रदर्शनी मुंबई की जहाँगीर ऑर्ट गैलरी में एक अगस्त से शुरू हो रही है, जिसे सात अगस्त तक देखा जा सकेगा |]

Sunday, July 24, 2011

गुलज़ार की चार कविताएँ



















|| देखो, आहिस्ता चलो ||

देखो, आहिस्ता चलो, और भी आहिस्ता ज़रा
देखना, सोच-सँभल कर ज़रा पाँव रखना
ज़ोर से बज न उठे पैरों की आवाज़ कहीं
काँच के ख़्वाब हैं बिखरे हुए तन्हाई में
ख़्वाब टूटे न कोई, जाग न जाये देखो

जाग जायेगा कोई ख़्वाब तो मर जायेगा |



















|| किताबें ||

किताबें झाँकती हैं बन्द अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें इन की सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर .......
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पदों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ....
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो क़दरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आतीं नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वह सारे उधड़े-उधड़े हैं
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूँठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत-सी इस्तलाहें हैं
जो मिट्टी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ्हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्क़े
किताबें माँगने, गिरने, उठाने क़े बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा ?
वो शायद अब नहीं होंगे !



















|| ख़ुदा ||

पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने
काले घर में सूरज रख क़े,
तुमने शायद सोचा था, मेरे सब मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग़ जला कर,
अपना रस्ता खोल लिया

तुमने एक समन्दर हाथ में ले कर, मुझ पर ठेल दिया
मैंने नूह की कश्ती उसके ऊपर रख दी
काल चला तुमने और मेरी जानिब देखा
मैंने काल को तोड़ क़े लम्हा-लम्हा जीना सीख लिया

मेरी ख़ुदी को तुमने चन्द चमत्कारों से मारना चाहा,
मेरे इक प्यादे ने तेरा चाँद का मोहरा मार लिया -

मौत की शह दे कर तुमने समझा अब तो मात हुई,
मैंने जिस्म का ख़ोल उतार क़े सौंप दिया
और रूह बचा ली

पूरे-का-पूरा आकाश घुमा कर अब तुम देखो बाज़ी |















|| इक इमारत ||

इक इमारत
है सराय शायद,
जो मेरे सर में बसी है
सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए जूतों की धमक
बजती है सर में
कोनों-खुदरों में खड़े लोगों की सरगोशियाँ
सुनता हूँ कभी |
साज़िशें, पहने हुए काले लबादे सर तक,
उड़ती हैं, भूतिया महलों में उड़ा करती हैं
चमगादड़ें जैसे |
इक महल है शायद !
साज़ के तार चटख़ते हैं नसों में
कोई खोल के आँखें,
पत्तियाँ पलकों की झपकाके बुलाता है किसी को !
चूल्हे जलते हैं तो महकी हुई 'गन्दुम' के धुएँ में,
खिड़कियाँ खोल के कुछ चेहरे मुझे देखते हैं !
और सुनते हैं जो मैं सोचता हूँ !

एक, मिट्टी का घर है
इक गली है, जो फ़क़त घूमती ही रहती है
शहर है कोई, मेरे सर में बसा है शायद !

[गुलज़ार की कविताओं के साथ दिए गए चित्र पदमाकर सनतपे की पेंटिंग्स के हैं | 1960 में जन्मे पदमाकर ने नागपुर से ऑर्ट की पढ़ाई की है और कई समूह प्रदर्शनियों में अपना काम प्रदर्शित करने के साथ-साथ उन्होंने अपनी पेंटिंग्स की कई एकल प्रदर्शनियाँ भी की हैं | चार दिन बाद, 28 जुलाई को पदमाकर का जन्मदिन है |]

Friday, July 15, 2011

नीलेश रघुवंशी की चार कविताएँ



















|| बिल्ली और रास्ता ||

टूटता जा रहा है धैर्य
बार-बार घड़ी में समय देखता
उकताहट और बेचैनी में टहलने लगा है
सड़क किनारे खड़ा आदमी
रह-रह कर जकड़ रहे हैं अंधविश्वास

कितने शुभ मुहूर्त में दही-गुड़ खाकर देहरी पार की थी
और तब तो बनते काम भी बिगड़ेंगे
इसलिए सड़क किनारे खड़ा आदमी
प्रतीक्षा में है कि पार कर जाए कोई उससे पहले रास्ता
अपने हिस्से की सारी मुसीबतें, भयावह अंदेशे और अपशगुन
किसी और के हवाले कर निकले फिर वह भी
बिल्लियाँ काटती हैं रास्ता बार-बार
और हँसती हैं आदमी पर |



















|| प्रार्थना ||

वे जो मुझे छलते हैं बार-बार
नदी की तरह बहती न जाऊँ उनके पास
छल से उनके उबरकर, खड़ी रह सकूँ पहाड़ों की तरह
गिरगिट की तरह बदलते उनके रंगों को, हर पल बदलती
विलाप में
रोती और झुक-झुक जाती फलों से भरी डगाल की तरह
दूध से निकली मक्खी की तरह दूर हो सकूँ उनसे
भर चुकी हूँ छल से उनके भीतर तक
प्रभु इतनी शक्ति दो मुझे कि उनके छल को ऊँगली पकड़ बाहर
करूँ
मुक्ति दो मुझे छल से
बल दो कि मेरा प्रेम बदलने न पाए छल में



















|| आधी रात के बाद की आवाज़ें ||

आधी रात के बाद की आवाज़ें
भर देती हैं वरहमेश दहशत से
कुत्ते और बिल्ली के रोने की आवाज से
मारे डर और आशंका के, दुबके रहते हैं कुछ देर हम बिस्तर में
आभास होता है हमसे ज्यादा उन्हें किसी भी अनिष्ट और भयावह
संकट का

तमाम आशंकाओं को परे धकेलते खिड़की से दुत्कारते पत्थर फेंकते
धकियाते उन्हें किसी और के दरवाज़े

आधी रात के बाद बज उठती है जब कभी टेलीफोन की घंटी
हड़बड़ाकर अकबका उठते हैं हम
सिरहाने रखा टेलीफोन साक्षात, यमदूत लगता है उस समय
काँपते मन और ठिठुरते ख्यालों से ताकते रहते हैं टेलीफोन को
बुरी ख़बर के अन्देशों से भरी आधी रात के बाद की आवाज़ें
क्योंकर इतनी डरावनी और भयावह होती हैं |



















|| बिना छप्पर के ||

निकलता झुंड जब भी गायों का बात ही निराली होती उसमें उसकी |
लंबी चौड़ी सफ़ेद झक्क काली-काली आँखें |
बुरी नज़र से बची रहे हमेशा गले में उसके रहता काला डोरा |
थन उसके भरे रहते हमेशा जरूरी नहीं छोड़ा जाए पहले बछड़े को |
बिना लात मारे भर देती भगोने पे भगोने |
लोग अचरज से भरे रहते हमेशा - दुधारू गाय वो भी बिना लात वाली |
हर एक ग्वाले का सपना - कजरारी आँखों और भरे थन वाली गाय |
खुले में घास चरते समय एक दिन
एक पागल कुत्ते ने काट लिया उसे |
दौरे पड़ने लगे गाय को दौड़ती फिरती इधर से उधर |
छकाती सबको बीच सड़क पर बैठ फुंफकारती |
एक मजबूत पेड़ से बीच मैदान में रस्से से बंधी है गाय |
बिना छप्पर के मरने के लिए छोड़ दिया उसे उन्होंने
दिया जिन्हें उसने कई-कई मन दूध बिना लात मारे |

[नीलेश रघुवंशी की कविताओं के साथ दिए गए चित्र अनिल गायकवाड़ की पेंटिंग्स के हैं | नीलेश और अनिल भोपाल में रहते हैं |]

Wednesday, July 6, 2011

मोहनकुमार डहेरिया की दो प्रेम कविताएँ



















|| मैं लौट आया ||

आखिर मैं लौट आया
मिल सकता था जहाँ मेरी तपती हुई आत्मा को सबसे गहरा सुकून
वहाँ पहुँचने के पहले ही
आखिर मैं लौट आया

यह वह जगह थी
दुःखों को जहाँ सीने पर तमगों सा सजना था
समाना था कामना की एक लपट को दूसरी लपट के जिस्म में
कर रही थी यहीं
समय की भयावह झाड़ियों के बीच
असंख्य पंखुड़ियों वाले विलक्षण फूल की तरह
वर्षों से एक लड़की मेरा इंतज़ार

कितना तो खुश था मैं
चल रहा था बहुत तेज-तेज
तभी धर्म के बहुत ऊँचे पहाड़ पर खड़े एक विदूषक ने घुमाई जादू
की छड़ी
मैंने देखा
अजगर की तरह जकड़ गया मेरे इरादों से मेरी माँ का आँचल
फड़फड़ाकर टूटने ही वाला है
पैरों के नीचे आकर पिता का झुर्रीदार चश्मा
दिखाई दिया मेरा अपना घर
जर्जर टिमटिमाती हुई रोशनी वाली लालटेन की तरह
कर रहा था वापस लौट आने का संकेत

थोड़ी दूर ही तो रह गई थी वह जगह
कि मैं लौट आया
मेरे ज़ख्मों को आनी थी जहाँ खूब गहरी नींद
और कंठ में फँसी एक चीख़ को तब्दील होना था एक बेहद सुंदर
राग में
वहाँ पहुँचने के पहले ही
आखिर मैं लौट आया |



















|| मुलाकात ||

कभी सोचा न था
इस तरह भी होगी मुलाकात
मिलती है जैसे किसी संगम पर एक नदी दूसरी नदी से
दिखाती हुई आपस में
एक लंबी बीहड़ यात्रा में सूजे हुए पैर
देह पर पड़े प्रदूषण के निशान

यह सच है
अलग-अलग हो चुके हमारे रास्ते
पिट चुके जीवन की बिसात पर सारे मोहरे
ज्यादा दूर नहीं पर वे दिन
मुझे देखते ही लाल सुर्ख़ हो जाती थी तुम्हारे कानों की कोर
झनझना उठते तुम्हारी आवाज से मेरे अंदर के तार
तब भी आते थे जीवन में हताशाओं के दौर
क्रूरता के उच्चतम शिखर पर पहुँच जाता कभी-कभी यातनाओं
का सूर्य
होती थी चूंकि एक दूसरे की बाँहों में बांहें
पार कर जाते अंतःशीतल हवा के झोंके सा
जीवन के सारे तपते हुए रास्ते
यह तो था कल्पना के बाहर
इस तरह भी थामेंगे एक दूसरे को कभी
थामती है जैसे एक ढहती हुई दीवार
दूसरी ढहती हुई दीवार को

सचमुच कितने सुंदर दिन थे वे
अभिसार की स्मृतियों से सनी हुई वे रातें
एक दूसरे का जरा सा स्पर्श
तेज कर देता शरीर में खून की गति
आज भी याद आती है
कामनाओं के क्षितिज पर अस्त होती तुम्हारी वह देह
और माथे पर अंकुरित होते पसीने के नन्हें-नन्हें चंद्रमा
दुःस्वप्न में भी न थी कभी आशंका
इस तरह भी संभव होगा कभी हमारे बीच प्रेम
लिपटा रहा हो जैसे झुलसी हुई पीठ वाला एक चुंबन
झुलसी हुई पीठ वाले दूसरे चुंबन से |

[केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक मोहनकुमार डहेरिया प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए हैं और उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं | यहाँ उनकी कविताओं के साथ दिए गए चित्र शिमला में जन्मे और दिल्ली में रह रहे युवा चित्रकार भानु प्रताप की पेंटिंग्स के हैं |]