Monday, April 25, 2011

रिल्के की कविताएँ



















|| बरसात का मतलब है / हो जाना दूर और अकेला ||

बरसात का मतलब है
हो जाना दूर और अकेला |

उतरती है साँझ तक बारिश -
लुढ़कती-पुढ़कती, दूरस्थ -
सागर-तट या ऐसी चपटी जगहों से
चढ़ जाती है वापस जन्नत तक
जो इसका घर है पुराना |

सिर्फ़ जन्नत छोड़ते वक्त गिरती है बूँद-बूँद बारिश
शहर पर |
बरसती हैं बूँदें चहचहाते घंटों में
जब सड़कें अलस्सुबह की ओर करती हैं अपना चेहरा
और दो शरीर

लुढ़क जाते हैं
कहीं भी हताश -
दो लोग जो नफ़रत करते हैं
एक-दूसरे से
सोने को मजबूर होते हैं साथ-साथ |
यही वह जगह है
जहाँ
नदियों से हाथ मिलाता है
अकेलापन |















|| दुनिया बड़ी है उस शब्द की तरह ||

जो भी तुम हो : शाम को निकलो
अपना कमरा छोड़ कर -
वहाँ जहाँ सब-कुछ जाना-चीन्हा हो,
उस दूरी और तुम्हारे बीच -
खड़ा है तुम्हारा मकान |
देहली छेंके हुए बैठी
थकी-थकी आँखों से -
तुम उठा लेते हो
एक काला पेड़ :
दुबला, अकेला,
और उसे आकाश से टिका देते हो |
इसी तरह खड़ी किया करते हो तुम
एक दुनिया नई |
और यह दुनिया बड़ी है
उस शब्द की तरह
जो शांति से पक रहा है |
जैसे ही तुम्हारी अभीप्सा
शब्द का निकालती है मतलब
धीरे-से टपका देती हैं
उसे तुम्हारी आँखें |















|| फूलों को देखो ||

फूलों को देखो, वे वफादार हैं धरती के -
हम किस्मत के अंत के छोर से
उनको क़िस्मत बख्शते हैं !
पर शायद उनको होता हो अफ़सोस
अपने बिखरने के ढंग का |
या शायद हम ही हों उनके अफ़सोस का
मूल कारण |
सब चीज़ें चाहती हैं तिरना | और हम बोझ की तरह
बँटते हैं - टिकते हुए सारी चीज़ों पर -
भारोन्मत्त |
कैसी माशाअल्ला शिक्षक हैं चीज़ें भी -
जबकि चीज़ों को है वरदान
हरदम ही बच्चा बने रहने का |
यदि कोई उन्हें गहन निद्रा में ले जाए,
और उनके साथ जमके सो जाए - कितना हल्का-हल्का
महसूस वह करेगा उठने पर -
बदला हुआ होगा वह, बदले हुए होंगे उसके दिन -
अंतःसंवाद से
गुज़रने के बाद |
या हो सकता है - वह ठहरे, और वे खिलें |
और कर दें बड़ाई - बदले हुए शय की |
नन्हे-नन्हे भाई-बहनों के साथ
घाटियों, हवाओं में रहते हैं
मिल-जुलकर ये |



















|| उत्सवों ने खो दिए हैं अपने अंतिम संशय ||

प्रशंसा-वशंसा से
दुःख को गुज़र जाना चाहिए |
वह जलीय आत्मा आँसू के झील की :
दरगुज़र करती है चूकें हमारी ....
निश्चित यह करने की ख़ातिर कि पानी
उसी एक चट्टान से साफ़ उठता है, जिससे कि दबे पड़े हैं
सारे दरवाज़े और पूजावेदियाँ भीमकाय |
तुम देख सकते हो, उसके स्थिर कंधों के आस-पास ....
एक हूक उठती है ....
एक एहसास-सा घुमड़ता है
कि हमारे भीतर की तीन बहनों में
छोटी है सबसे वह !
उत्सवों ने खो दिए हैं अपने अंतिम संशय,
और कामना अपनी भूलों पर चिंतन करती है |
सिर्फ़ तकलीफ़ सीखती है अपना पाठ अब तक :
रात-भर वह अपने छोटे हाथों से गिनती है
अपनी ओछी विरासतें |
हैं विचित्र लेकिन वे मजबूर करती हैं हमको
आकाश के तारों की तरह, गुच्छों में -
साँसों की धार के परे !

[जर्मन कवि रिल्के (1875-1926) विश्व की प्रथम पंक्तियों के कवियों में अन्यतम हैं | यहाँ प्रस्तुत उनकी कविताओं का अनुवाद हिंदी की सुपरिचित कवयित्री अनामिका ने किया है | रिल्के की कविताओं के साथ दिये गए चित्र दिव्या गोयल की पेंटिंग्स के हैं | हरियाणा के अपेक्षाकृत एक छोटे शहर कैथल में जन्मी-पली दिव्या को कला का संस्कार अपनी माँ से मिला, जिसके चलते उन्होंने स्कूली पढ़ाई के दौरान ही चित्रकार बनने का निश्चय किया | अपने निश्चय को पूरा करने के लिए ही दिव्या ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से फाईन ऑर्ट में एमए किया | दिव्या ने कुछेक समूह प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित किया है तथा अपनी पेंटिंग्स की एक एकल प्रदर्शनी भी की है |]

Sunday, April 10, 2011

रीता सिंह की कविताएँ



















|| नन्ही-सी पकड़ ||

उस
नन्ही हथेली
की नन्ही अँगुलियों की
थरथराती ख़ामोशी की
हल्की-सी पकड़
कि तुम फिर आना
जबकि
जुबाँ पर होती चुभती चुप्पी
और चेहरा प्रतिक्रिया-विहीन
जबकि
आँखों के उस दायरे में
नहीं होता किसी रिश्ते का
अहसास
पर मुझे
छू लेती वह हल्की-सी पकड़
जो
कह रही होती कि
तुम फिर आना
जीवन की आपा-धापी में
हमेशा
गूँजा करता है मेरे आसपास
नन्ही-सी हथेली का
वह निमंत्रण
कि तुम फिर आना

पाकर वह निमंत्रण
उस नन्ही हथेली तक
पहुँच ही जाती हूँ मैं अक्सर
घंटों बैठते हम साथ
पकड़ एक-दूसरे का हाथ
तब ना ही वह कुछ कहती
और
ना उसकी नन्ही अँगुलियाँ
पर मेरे उठते-उठते
अचानक काँपती उसकी अँगुलियाँ
और हौले से रख देती पुनः अपना निमंत्रण
एक नई सरलता के साथ
जिसमें छुपा होता
अनगिनत
रिश्तों का हिसाब-किताब
कि
तुम फिर आना
कि
तुम
फिर
आना |



















|| सूर्यास्त का सूरज ||

मेरे ख़ामोश रहने को
तुम ग़लत न समझ लेना
शायद, मुझमें ही छुपा है
सूर्यास्त के बाद का सूरज

जो शाम ढलते ही
लोगों की नज़र में
सो जाता है, पर
एक नई सुबह के लिए
नई सृष्टि के लिए
तारों के देश में - 'वह'
निविड़ अकेला घूमकर
एक नई रोशनी और नई किरण को
लेकर
फिर सुबह उगता है
नवजीवन का पैगाम लेकर

मेरे ख़ामोश रहने पर
तुम्हारा
विजयघोष-विजयोन्माद
शायद तुमने ग़लत तो नहीं समझ लिया
पूरा का पूरा सागर गहराया है - मुझ में
बस रुकती हूँ तो
केवल उनके लिए
जो आज भी माचिस की तीलियों में,
सूरज का अहसास करते हैं
बस ख़ामोश रहती हूँ तो
उनके लिए
जिसने मुझे रिश्तों की
पहचान कराई है
जो मेरे चुप रहने का अर्थ समझते हैं
वक्त की चाल समझते हैं
मुझे कुछ कहने और करने से
रोकते हैं
मेरे ख़ामोश रहने का अर्थ
कुछ और न समझ लेना
बर्फ़ में
सनसनाती चीख़ती आँधी
की तरह हूँ मैं
जिस दिन चीख़ पड़ी
पूरा का पूरा
तुम्हारा
पहाड़नुमा साम्राज्य
भरभरा जाएगा
हिम गोलों की तरह
हिमस्खलन हो जाएगा

मेरे ख़ामोश रहने को
दहकते सूरज के नाम
तुम ग़लत न समझ लेना
सृष्टि की जटिलता के नाम
मेरे ख़ामोश रहने को
तुम ग़लत नाम न दे देना |



















|| कुछ पता नहीं ||

किस परिधि, किस हूरे नज़र
को ढूँढ़े है मेरा ये मन
कुछ पता नहीं |

कुछ पता नहीं
किस अनजाने सफ़र को ढूँढ़े है
मेरा ये मन |

किस प्रकाश कण किस मरुदान
को ढूँढ़े है मेरा मन
क्यों ढूँढ़े है उसे मेरा मन
कुछ पता नहीं |

झूम के बरसे अपनों के
प्यार की बदरी
तन तो गीला हो जाए
पर
मन तब भी सूखा रह जाए
कैसे - कुछ पता नहीं |

फूलों की पंखुड़ियों में
जीवन का रूप देखती हूँ
पक्षियों के झुण्ड में
एक अनुशासन देखती हूँ
पेड़ों की ख़ामोशी में
अर्द्धसुप्त ज्वालामुखी देखती हूँ
कैसे देख लेती हूँ
कुछ पता नहीं |

पता है तो सिर्फ़ इतना
कि ...
ख़ुद को इस जमीं पर
अकेला देखती हूँ
और पिछले मोम वाले चेहरों से
अलग हो कर
तन्हा ही रहना चाहती हूँ
क्यों ....?
कुछ पता नहीं |



















|| मुझे कुछ होता है ||

रोक लो, तुम
अँधेरों के बीच बहते
मुस्कान की धवल धारा को
मुझे - कुछ होता है

रोक लो, तुम
ज़िंदगी के पाटों में फँसे
मन की विरह-वेदना से बनते
बेल-बूटों की हरीतिमा को देख
मुझे कुछ होता है |

रोक लो, तुम
आस्था की गिरती दीवारों को
जो कुछ भी बचा है आज - अलभ्य है |
मुझे कुछ होता है |

बेशक
ये सभी
जीवाश्म की कणें हैं
पर रोक लो इसे तुम
दबी हैं इसमें अनुभवों की परतें
हमारे नन्हें कोंपल
के आएँगे काम
तमस को हटाने में |

रोक लो तुम इन्हें
बेशक ये मिट्टी के ढेले हैं
पर रोक लो इन्हें
मुझे कुछ होता है |

[भागलपुर (बिहार) में जन्मी तथा कुल्लू (हिमाचल प्रदेश) के राजकीय महाविद्यालय में अध्यापनरत रीता सिंह की कविताएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित होती रही हैं | 'जाड़े की धूप' नाम से नई दिल्ली के अंतिका प्रकाशन ने उनका एक कविता संग्रह भी प्रकाशित किया है | रीता सिंह की कविताओं के साथ दिये गए चित्र राजस्थान स्कूल ऑफ़ ऑर्ट से पढ़े और अजमेर में रह रहे चित्रकार योगेश वर्मा की पेंटिंग्स के हैं | योगेश वर्मा कई समूह प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित कर चुके हैं तथा पिछले ही वर्ष चेन्नई व कोलकाता में अपनी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी कर चुके हैं | योगेश वर्मा कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरुस्कृत भी हुए हैं |]