Friday, March 23, 2012

आशा गुलाटी की चित्र-रचनाओं के साथ आशमा कौल की चार कविताएँ















|| मौसम ||

मौसम इतना बेवफा
निकला
अंदर आँसू थे
बाहर बादल पिघला

काली घटाओं ने
घेर लिया है मुझको
आज फिर मैंने
पुकारा है तुमको
मौसम .....

शक्ल तेरी जब
हर घटा में बनने
लगती है उसी दम
घटा बिखरने लगती है
न जाने कब,
बेवफाई कर
छोड़ देगा मौसम
हर घटा को
तुम्हारी शक्ल कर देगा
यह किस दम |















|| आगमन करो ||

सूरज की किरणें
और ऊष्मा
जैसे बंद खिड़की के
शीशे से होकर
मुझ तक
आ रही हैं
क्या वैसे ही
मेरे विचारों की
ऊष्मा और गहराई
तुम्हारे मन के
कोनों तक
पहुँच पाएगी

मेरा रोम-रोम
जिस तरह
सजीव हो उठा है
किरणों के आगमन से
क्या तुम्हारा मन भी
स्पंदित होता है
मेरे इन
भावुक शब्दों से

और जैसे ये किरणें
मेरे अंतर्मन को
सहलाती हैं
क्या मेरे विचारों का
दिवाकर
तुम्हारे कोमल ह्रदय को
बहला पायेगा ?

यदि हाँ, तो आज अभी
मन की खिड़की खोलो
इन शाब्दिक
किरणों की ऊर्जा से
ओत-प्रोत होकर
आगमन करो
नव प्रभात !
नव लालिमा का |















|| दुनिया गोल है ||

दुनिया तिकोन नहीं
चौकोर नहीं
गोल है
इज्ज़त से लेकर
कफ़न तक
सब कुछ मिलता
सबका यहाँ मोल है

गरीब से धनी तक
अफसर से बाबू
मंत्री से संतरी तक
का चरित्र
यहाँ डांवाडोल है
दुनिया .....

गरीबी है, बीमारी है
लूट और चोरबाजारी है
आँखों में सबकी
लाचारी है
मिलते हर जगह
सिर्फ बड़े-बड़े बोल हैं
दुनिया ......

झूठ का एक परचम
सच बेमानी है
मर गया शहर में जो
वह आँख का पानी है
खोल रहे जो सब
एक दूसरे की पोल हैं
दुनिया तिकोन ......















|| जीने की चाह ||

मैंने उसे मरते देखा
हर दिन
जीने की चाह में
हर आहट पर
उसका चौंकना
हर किसी को
अपने पास रोकना
उसकी विवशता दिखाता

हर लम्हे को
वह कैद करना चाहता था
बंद मुट्ठी में
हर शब्द को
सजाना चाहता था
दिल की गहराई में

मैं देखती थी
उसका सबसे बतियाना
फिर अचानक
गुम होना तन्हाई में
पर मैं लाचार थी
उसके चंद लम्हात ही
सजा सकती थी

कोसती थी खुदा को
मूकदर्शक बन वह
सब देख रहा था
अगले दिन का आना
उसके बचे पलों का
कम हो जाना

इसी उधेड़-बुन में
समय उड़ गया जैसे
उस दिन सूर्य उगा
ऊष्मा लिए आकाश में
दूसरा सूरज डूब गया
ठंडा होकर अस्पताल में |


[आशमा कौल की कविताओं के साथ दिए गए चित्र आशा गुलाटी के काम के हैं | आशा गुलाटी ने पेपर कोलाज में अप्रतिम काम किया है, जिन्हें वह कई एकल प्रदर्शनियों में प्रदर्शित कर चुकी हैं | रचनात्मक अन्वेषण के साथ, प्रकृति के रहस्य और विस्मय को उन्होंने चमत्कारिक ढंग से रचा है | आशा गुलाटी ने अपनी रचना-यात्रा हालाँकि जलरंगों व तेल रंगों से शुरू की थी, लेकिन कुछ अलग रचने/करने की उनकी उत्सुकता उन्हें पेपर की विविधताओं के पास ले आई | शुरू में उन्हें यह मुश्किल भरा ज़रूर लगा, किंतु चूँकि उन्होंने हार नहीं मानी और मुश्किलों को चुनौती की तरह लिया - सो फिर उनके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं रहा | आज पेपर कोलाज और आशा गुलाटी एक दूसरे के पर्याय के रूप में पहचाने जाते हैं | आशमा कौल के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हैं और वह कई संस्थाओं द्धारा सम्मानित व पुरस्कृत हो चुकीं हैं |]

Wednesday, March 14, 2012

मालविका कपूर की पेंटिंग्स के साथ अशोक वाजपेयी की चार कविताएँ



















|| उम्मीद चुनती है 'शायद' ||

उम्मीद चुनती है अपने लिए एक छोटा-सा शब्द
शायद -

जब लगता है कि आधी रात को
दरवाज़े पर दस्तक देगा वर्दीधारी
किसी न किए गए जुर्म के लिए लेने तलाशी
तब अँधेरे में पालतू बिल्ली की तरह
कोने में दुबकी रहती है उम्मीद
यह सोचते हुए कि बाहर सिर्फ हवा हो
शायद |

फूलों से दबे संदिग्ध देवता के सामने हो रही
कनफोड़ आरती, कीर्तन
और घी-तेल की चीकट गंध में
किसी भुला दिए गए मंत्र की तरह
सुगबुगाती है उम्मीद
कि शायद अधपके नैवेध्य और चिपचिपाती भक्ति के नीचे
बची रह गई हो थोड़ी-सी प्राचीन पवित्रता |

जब लगता है कि भीड़-भाड़ भरी सड़क पर
सामने से बेतहाशा तेज़ आ रहा बेरहम ट्रक
कुचलकर चला जाएगा
उस न-जाने-कहाँ से आ गई बच्ची को
तभी उम्मीद
किसी खूसट बुढ़िया की तरह
न-जाने-कहाँ से झपटकर
उसे उठा ले जाएगी
नियति और दुर्घटना की सजी-धजी दूकानों के सामान को
तितर-बितर करते हुए |

शायद एक शब्द है
जो बचपन में बकौली के नीचे खेलते हुए
अकस्मात झरा था फूल की तरह
शायद एक पत्थर जो खींचकर किसी ने मारा था
परीक्षा में अच्छे नंबर न पाने की उदासी पर
शायद एक खिड़की है जिससे देखा था
धूमिल होती जाती प्रियछवि को
शायद एक अनजली अस्थि है
जिसे मित्रशव को फूँकने के बाद
हम वहीं भूल गए
जहाँ चिता थी
और जिसे आज तक किसी नदी में सिरा नहीं पाए हैं |

उम्मीद ने चुना है
एक छोटा-सा पथहारा शब्द
'शायद |'



















|| वैसी पृथ्वी न हो पाने का दुःख ||

खिड़की के पास चुपचाप खड़ी होकर
देखती है पृथ्वी
कि कैसे बनाती है दूबी
अपनी छोटी-सी मेज़ पर
एक छोटी-सी कापी में
एक और छोटी-सी पृथ्वी |

एटलस से काटकर
कुछ भू-भाग
कुछ हरी दूब और सूखी वनस्पतियाँ
कुछ टुकड़े, पन्नियाँ चमकीली जमाकर
मेरी बेटी
गढ़ती है अपनी एक पृथ्वी
जो धड़कती है
बिना किसी मनुष्य के |

अपने गोलार्धों में
बँटी-फँसी पृथ्वी
कुछ पछतावे से सोचती है
क्यों नहीं बनाया
किसी ने उसे
वैसी ही पृथ्वी ?















|| अगर इतने से ||

अगर इतने से काम चल जाता
तो मैं जाकर बुला लाता देवदूतों को
कम्बल और रोटियाँ बाँटने के लिए |

बैठ जाता पार्क की बेंच पर,
एक अकेले उदास बूढ़े की तरह
होने के कगार पर,
और देखता रहता पतझर
चुपचाप ढाँकते पृथ्वी को |

चला जाता
उस बे-दरो-दीवार के घर में,
जिसे किसी बच्ची ने
खेल-खेल में
अपनी कापी में खींच रखा है |

ले जाता
अपनी गुदड़ी से निकालकर
एक पुरानी साबुत घड़ी का उपहार,
अस्पताल में पड़े बीमार दोस्त के लिए
ताकि वह काल से बचा रह सके |

आत्मा के अँधेरे को
अपने शब्दों की लौ ऊँची कर,
अगर हरा सकता
तो मैं अपने को
रात-भर
एक लालटेन की तरह जला रखता |

अगर इतने से काम चल जाता !














|| कितना बजा है ? ||

कितना बजा है ?
पूछता है सत्रहवीं शताब्दी के अँधेरे में
बुर्ज पर खड़ा एक चौकीदार
अपनी लालटेन की कम होती रोशनी में |
किसी यहूदी कवि की रचनाओं का
अनुवाद करने की कोशिश में बेहाल
भारी फ्रेम के चश्मेवाली लड़की पूछती है
मानो किसी प्राचीन ग्रंथ के
सर्वज्ञ नायक से -
कितना बजा है ?

थककर चूर हुआ दुर्दांत बूढ़ा देवता
जम्हाई लेता हुआ
चीखता है शून्य में -
कितना बजा है ?

कुँजड़िनों के झगड़ों से त्रस्त
और अपनी स्कूली पुस्तकें कहीं न पाने से दुखी
छतों की दुकान के सामने
पैसे न होने के बावजूद ललचाता हुआ एक बच्चा
जानना चाहता है एक मुस्तंड खरीदार से -
कितना बजा है ?

अपने जीवन की धुँध से घिरा
बचपन के मुबहम होते जाते चेहरों को
खोने के पहले याद करता हुआ
रक्त के मौन में कहीं
दूर से आ रही पुकार सुनता हुआ
मैं इसी अधबनी कविता से पूछता हूँ -
कितना बजा है ?

[लखनऊ स्थित ललित कला अकादमी के रीजनल सेंटर में कार्यरत मालविका कपूर ने बनारस हिंदु विश्वविद्यालय से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है | कई समूह प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स प्रदर्शित कर चुकीं मालविका उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी से पुरस्कृत हैं तथा अभी हाल ही में मुंबई की जहाँगीर ऑर्ट गैलरी में उनकी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी आयोजित हुई है | उनकी पेंटिंग्स में दिखती रंगाभिव्यक्ति में जीवनानुभवों की उस सूक्ष्मता को महसूस किया जा सकता है जो वैचारिक सरलीकरण के बीच गुम से हो गए हैं | उनकी पेंटिंग्स के साथ प्रस्तुत कविताओं के रचयिता अशोक वाजपेयी समकालीन हिंदी कविता के क्षेत्र में अपना एक अलग स्थान रखते हैं |]