Wednesday, December 22, 2010
वीरभद्र कार्कीढोली की कविताएँ
|| जीने की बातें ||
देखा है मैंने पत्थरों को रोते हुए
लेकिन नहीं देखा रोते हुए विश्वास को |
सभी जीतों को जीत नहीं मानना चाहिए
और न ही सभी हारों को हार
ज़िंदगी के मुकम्मल हिस्से में ही
जो ज़ख्मों को लिये फिरते हैं
मत सोचना
तृष्णा किसी-किसी के लिये
औषधि लेकर वापस आएगी |
आसान नहीं है जीना
कितनी बार कौन रीत जाता है,
कौन भर जाता है
लेकिन रीतता अवश्य है
भर जाता है अवश्य;
अनबुझ प्यास की
कभी मत करना आकांक्षा |
मेरे लोग धरती छोड़कर उड़ रहे हैं
आसमान में
सिर्फ़ मैं नहीं उड़ सका, पंख होते हुए भी
हैरान हूँ, किस तरह उड़ रहे हैं
बिना पंखों के लोग |
करते हैं जो कमरतोड़ मेहनत
उन्हें अहसास ही नहीं होता
आती हैं कितनी मुश्किलें राहों में
जीने की तनिक प्यास थी, मर गई |
सचमुच मैंने पत्थरों को
रोते देखा है |
लेकिन सच को नहीं देख पाया हूँ
और जो जीतते हैं
वे शक्तिशाली नहीं होते
हारने वाले कमजोर भी नहीं होते
मैंने बहुतों को नितांत रीता हुआ देखा है |
इसीलिये तो
मैंने पत्थरों को
रोते देखने का सौभाग्य पाया है |
|| इस बार ||
इस बार
मैंने अपना जन्मदिन अकेले ही मनाया
मोमबत्ती जलाते ऊँगलियाँ जल गईं
और जन्मदिन के केक काटने वाले चाकू से
तक़रीबन आत्महत्या कर बैठा |
इस बार बसंत
आया कि नहीं, पता नहीं चला
आँगन में कोई फूल नहीं खिला
पंछी भी नहीं आए
घर के कबूतरों ने
नये चूजे नहीं बनाए |
इतनी हुई बारिश इस बार कि
शेष इच्छाओं और सपनों को
झड़ी और ओलों की मार ने
मार दिया, सभी मर गए |
वर्षों बाद मैंने इस बार
खोलकर देखा ख़ुद को
कितनी अधिक कमर झुक गई,
छटपटाते- छटपटाते
अंदर से तक़रीबन सड़-गल चुका हूँ |
इतना अधिक फट चुका हूँ कि
अब और फटने की गुंजाइश ही नहीं रही |
और आज मैं
उन मोमबत्तियों और इन ऊँगलियों को
उस केक और इस चाक़ू को देखते हुए
अपने जन्मदिन को याद कर रहा हूँ |
और उस क्षण के साथ तनिक भयभीत हूँ, सचमुच भयभीत हूँ |
|| नहीं है मेरा अपना ईश्वर ||
मैंने कहा न,
मेरा अपना ईश्वर नहीं है |
मैंने बहुत पुकारा | बहुत-बहुत आवाज़ दी,
पर मेरी आवाज़ उन टीलों और पहाड़ियों ने
तुम तक पहुँचने ही नहीं दी |
मैंने बहुत देखा | इतना कि
जितनी ऊँचाइयाँ थीं, उन्हें चढ़कर भी
पर उस कोहरे और धुँध ने
तुम्हें देखने ही नहीं दिया |
उड़ नहीं सका आकाश, मगर
पता है
पंखों के बिना
मन के पंखों से अधिक उड़ा |
इतना अधिक कि
उसका वर्णन मुमकिन नहीं है
कविता की पंक्तियों में |
आजकल वर्षा और कोहरे से
आच्छादित दिन अच्छा नहीं लगता
बादल छाए हों और फैला हो कोहरा तो अच्छा नहीं लगता |
व्यर्थ ही बीत गया,
यह मार्च का महीना |
मार्च के महीने की ही तरह अप्रैल नहीं बीतेगा, कौन कह सकता है |
ये टीले, पहाड़ियाँ
नापसंद होने पर ही
मैंने उनकी ओर नज़र नहीं डाली |
भीड़ों और संगतों से क्यों अलग
हुआ, यह मत पूछो
कुछ खोकर जैसे कुछ खोज रहा हूँ |
उड़ रहे किसी पखेरू-से
क्यों एक क्षण के लिये
पंख उधार माँगने की इच्छा हो रही है ?
आज भी खिड़की खुलने पर पूर्ववत
उसी ओर नज़र जाती है |
उस उजाले और अँधेरे को क्या पता कि
मैंने उजाले और अँधेरे का वक्त कैसे बिताया है ?
मौसम की तरह मन नहीं बदल सका
पूर्ववत आजकल उड़ने की बातें भी
नहीं सोच सकता
मैंने बहुत पुकारा, देखा यहाँ से
साक्षी हैं वे बादल और कोहरे
ऊँचे टीले और पहाड़ियाँ
मुँडेर के पानी में
अँजुली भरने की याद आते ही
मुझे लगता है सचमुच ईश्वर मेरा
अपना नहीं है |
इसलिए मैं ईश्वर को नहीं पुकारता
ईश्वर को नहीं मानता |
शंख और घंटियों के स्वरों में
शांति और आनंद है, ऐसा नहीं सोचता |
क्योंकि मैंने ईश्वर को आज तक नहीं देखा |
जिस तरह मैं उन बादलों और कोहरों को देख रहा हूँ |
[ 1964 में जन्मे वीरभद्र कार्कीढोली के सात कविता संग्रह तथा कई-एक अनुवादित व संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं | प्रतिष्ठित स्रष्टा पुरस्कार के साथ-साथ कई अन्य संस्थाओं से भी वह पुरस्कृत हो चुके हैं | नेपाली में लिखी गईं इन कविताओं का अनुवाद सुवास दीपक ने किया है, जिनकी भी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं | कविताओं के साथ दिये गए चित्र ललित पंत द्वारा चारकोल से बनाई गई पेंटिंग्स के हैं | प्रतिष्ठित आईफैक्स पुरस्कार के साथ-साथ अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित ललित पंत कई एक समूह प्रदर्शनियों में तो अपने चित्रों को प्रदर्शित कर ही चुके हैं; अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी भी कर चुके हैं | ]
Saturday, December 18, 2010
राजेश शर्मा की कविता : अजनबी शहर में
|| एक ||
सीधे चलते हुए दाएँ मुड़ना
फिर सीधे
फिर बाएँ
उस ने ठहर कर बताया
हम ने शुक्रिया अदा किया
ध्यान आया
अपने पुराने शहर में
वर्षों हो गए थे
किसी को शुक्रिया अदा किए
वर्षों हो गए थे किसी को
सहारे की आँखों से देखे
|| दो ||
कितनी अपनी थी वहाँ अजनबीयत भी
कंधे कितने हल्के थे
एतराज और सवाल नहीं थे
सूने पार्कों की औंधती बेंचों
और फुटपाथ की आप-धापी में
कोई चेहरा अपना नहीं था
लेकिन ग़ौर से देखो
तो सभी चेहरे अपने लगने को होते थे
लगभग....लगभग....
अपने शहर में
लगातार अपने ही बारे में सोचते हुए
हम हज़ार-हज़ार मुखौंटों में बँट चुके थे
एक मुखौटा दूसरे को धिक्कारता था
दूसरा तीसरे को
धिक्कार था जीवन अपने पुराने शहर में
अक्सर....अक्सर....
|| तीन ||
लगातार सोचते थे हम
दूसरों के बारे में
अजनबी शहर में
हमारे बारे में कोई नहीं सोचता था
सरकते थे चुपचाप पुराने दिन
शीशे की तरह
बहुत पीछे छूटा कोई दिन तो
हमें छू कर ही गुज़रता था
आंखों पर अक्स डालता हुआ
|| चार ||
बेपहचान के अँधेरे में
रहते थे हम दिन-रात
चलते थे किधर भी
दूर तक चलते थे
चुप रह सकते थे देर तक
अजनबी शहर में हम
न स्याह होते थे न सफ़ेद
न पक्षधर न विद्रोही
चुन सकते थे रास्ता कोई नया
उम्मीद की पहली ईंट रख सकते थे
ख़ालिस मनुष्य बन कर
शुरू कर सकते थे ज़िन्दगी
बिल्कुल शुरू से
|| पाँच ||
हमें मालूम था यह निरर्थक है
हम जानते थे छोटी-सी हँसी
और अधूरी आवाज़
दूर तक नहीं जाती
लेकिन हम उस शहर से आए थे
जहाँ लंबी हँसी और पूरी आवाज़ भी
काम नहीं आई थी
कभी-कभी तो रोकती थी
वह लंबी हँसी
वर्षों से सहेज कर रक्खे
रिश्ते को टोकती थी
|| छह ||
शायद हमें पता था
अधिक रुकना ख़तरनाक होता है
अधिक रुकना पहचान से
आगे बढ़ कर
भरोसे में बदलता है
भरोसा कभी बहुत तकलीफ़ देता है
अधिक रुकना पतली पहचान
और छोटी-सी हँसी का
अतिक्रमण है
अधिक रुकना ख़तरनाक है
क्योंकि तब अजनबी शहर
अजनबी नहीं रहता |
[ राजेश शर्मा की कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र अर्चना यादव द्वारा पेन्सिल व एक्रिलिक में बनाई गईं पेंटिंग्स के हैं | एक चित्रकार के रूप में अर्चना ने हाल के वर्षों में अपनी एक खास पहचान बनाई है | भोपाल, ग्वालियर, उज्जैन, इंदौर, जबलपुर, नागपुर, चंडीगढ़, अमृतसर, लखनऊ, हैदराबाद, नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, गोहाटी, गोवा आदि में आयोजित समूह प्रदर्शनियों में तो अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित कर ही चुकी हैं; साथ ही वह भोपाल, देहरादून व नई दिल्ली में अपनी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी भी कर चुकी हैं | अपनी पेंटिंग्स के लिये अर्चना यादव मध्य प्रदेश कला परिषद के प्रतिष्ठित 'रज़ा अवार्ड' के साथ-साथ अन्य कई-कई सम्मान तथा फैलोशिप व स्कॉलरशिप प्राप्त कर चुकीं हैं | ]
Sunday, December 5, 2010
मंजूषा गांगुली की कविताएँ
|| उसका प्यार ||
उसने पीली बसंती दुपहरी में
बुंदकियों वाली नीली चादर पर
उसकी याद को
धुले हुए गेहूँ की तरह
फैला दिया है |
एक एक दमकते दाने पर
सरसराती हैं उसकी
सुनहरी उँगलियाँ
रह रह कर ......
क्योंकि उन पर
कई दफा
उसका दिया हुआ
प्यार
जड़ा हुआ है |
बुंदकियों वाली नीली चादर पर
यादों की वह नर्म गंध ......
लौटा लाती है उसके
अनगिन बसंत ......
गहराते बसंत ......
चिलचिलाते बसंत ......
ऐसे ही किसी दुपहरी में |
|| मौसम ||
लगता है एक एक कर
अब सब
साफ़ साफ़ सूझता है मुझे
मेरा अतीत, रिश्ते और बचपन
कितना घना था यह सब
इतने अरसे तक मेरे आसपास
एक एक कर झाड़ पोंछ कर
रखने लगी हूँ करीने से
उस गर्माहट को .... नमी को ....छुअन को
फिर उसी जगह रख दिया है मैंने
घनी यादों के डिब्बे में
थोड़ा ....औ ....र ....पीछे सरकाकर
अब ये सब मुझे
परेशां नहीं करते पहले की तरह
क्योंकि
उन्हें अब मुझ पर पूरा भरोसा है
कि
मैं उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी
अजनबी की तरह ......
मेरा मौसम
अब साफ साफ है
आइने की तरह
|| संवाद ||
चट्टान पर लेटी है धूप
या
ओढ़ा है चट्टान ने उसे
जो भी हो
एक लंबी गर्माहट बाकी है
अब भी उनमें
बरसों से चमकते हैं उनके रंग
जीवन की तरह
मानो अभी अभी घटित हुए हों
अपनी ही रंग रोशनी में
इधर अंतरालों की मानिंद
दरक गई है वह गुलाबी चट्टान
यहाँ ....वहाँ ....से
जो भी हो
धूप फिर भी होती है चुपके से वहाँ
हर रोज़
एक अनवरत संवाद की तरह
|| नमक ||
कोई और दिन होता
तो कहती ......
हो सके तो ले आना
थरथराती हथेलियों में
फिर वही चिलचिलाती गंध
ले आना दुबारा
घरघराते शब्दों की जगह
जलते हुए सूरज का नमक
और ले आना याद से
छलछलाती इच्छाओं के
हज़ार हज़ार मौसम
ले आना वे पहाड़ ....वही बर्फ़ ....
वो सड़कें ....धूप थकान ....घर
और ....और वो तमाम अकेली रातें
जो अब भी वैसी ही हैं
इधर तुम्हारी कविताओं में
छोड़ो ....रहने दो ....
तुम्हें अब क्या मिलेंगी
वह गंध, सूरज का नमक
और वे मौसम
ये सब तो
मेरी हथेलियों में सुरक्षित है
अपने नमक की सच्चाई में
[ मंजूषा गांगुली मूलतः चित्रकार हैं और उनकी पेंटिंग्स की 33 एकल प्रदर्शनियाँ हो चुकी हैं | उनकी पेंटिंग्स की 34 वीं एकल प्रदर्शनी जयपुर में होने वाली है | भोपाल में कला अध्यापन में संलग्न मंजूषा गांगुली ने कविता में भी अपने आपको अभिव्यक्त किया है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र प्रख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की पेंटिंग्स के हैं | मंजूषा ने रज़ा की पेंटिंग्स पर शोध किया है, जिस पर 1992 में उन्हें पीएचडी अवार्ड हुई थी | ]
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Monday, November 29, 2010
आशुतोष दुबे की कविताएँ
|| अपनी आवाज़ में ||
शुरू के बिल्कुल शुरू में
एक शुरू अन्त का भी था
और अन्त का काम तमाम करने वाला
एक बिल्कुल अंतिम भी था ही
होना लगातार शुरू हो रहा था
और ख़त्म होना भी
पैदा होना और मरना
एक ही बार में
कई-कई बार था
लोग एक-दूसरे के पास आते
और दूर जाते थे
रिश्तों की धुरी बदलती रहती थी
पुराने किनारों के बीच
एक नयी नदी बहती थी
एक आदमी जहाँ से बोलता था
उसकी बात पूरी होते-न-होते
धरती वहाँ से कुछ घूम जाती थी
और उसका पता बदल जाता था
पेड़ ख़ुद को ख़ाली कर देने के बाद की उदासी
और फिर से हरियाने की पुलक के बीच
भीतर ही भीतर
कई-कई जंगल घूम आते थे
एक देह थी
जो एक दिन गिर जाती थी
और एक मन था
जो एक और मन होकर थकता न था
चौतरफ़ा शोर के बीच
अपनी आवाज़ में कहने वाला
समझा भले न जाता हो,
सुन लिया जाता था
अपनी छोटी-सी सुई से
सिले गये रात-दिन
कोई अपने हाथों उधेड़कर
घूरे पर फेंक जाता था
घर को बनाने वाला
घर में लौट नहीं पाता था |
|| सूत्रधार ||
अन्त में सभी को मुक्ति मिली
सिर्फ़ उसी को नहीं
जिसे सुनानी थी कथा
कथा से बाहर आकर
अपने ही पैरों के निशान मिटाते हुए
उसे जाना होगा उन तमाम जगहों पर
जहाँ वह पहले कभी गया नहीं था
देखना और सुनना होगा वह सब
जो अब तक उसके सामने प्रगट नहीं था
और इसलिए विकट भी नहीं
इस मलबे से ऊपर उठकर
उसे नये सिरे से रचना होगा सबकुछ
उन शब्दों में जिन्हें वह पहचानेगा पहली बार
जैसे अंधे की लाठी रास्ते से टकराकर
उसे देखती है
और बढ़ते रहना होगा आगे
कथा के घावों से समय की पट्टियाँ हटाने
अन्त में सभी को मुक्ति मिलेगी
सिर्फ़ उसी को नहीं |
|| आदमी की तरह ||
डूबने से बचने की कोशिश में
हाथ-पैर मारते-मारते
वह सीख गया तैरना
और जब सीख गया
तो तैरते-तैरते
ऐसे तैरने लगा
कि अचम्भा होने लगा
कि वह आदमी है या मछली
यहाँ तक कि
ख़ुद उसे भी लगने लगा
कि पानी में जाते ही
उसमें समा जाती है
असंख्य मछलियों की
व्यग्रता और चपलता
लेकिन मछलियाँ आदमी नहीं होतीं
और पानी के स्वभाव के बारे में
वे मछलियों की तरह जानती हैं
इस बात का पता उसे तब चला
जब वह मछलियों की तरह तैरते हुए
वहाँ जा पहुँचा
जहाँ जाना नहीं था
मछलियाँ देखती रहीं उसे
आदमी की तरह डूबते हुए |
|| आदत ||
वह धूल की तरह है
जिद्दी और अजेय
कई बार हम उसका मुक़ाबला करना चाहते हैं
मगर एक पस्त कोशिश
और फिर उसकी अनदेखी
और उसके बाद
घुटने टेकते हुए
अपनी पराजय का बेआवाज़ इकरारनामा
यही आदत का मानचित्र है
दिलचस्प हैं आदत के खेल
मसलन, हालाँकि मरना जन्म लेते ही शुरू हो गया था
पर मारने की आदत नहीं पड़ती
जीने की पड़ जाती है
और जीवन कैसा भी हो
मरना मुश्किल होता जाता है
साथ की आदत हो जाती है
जैसे उम्मीद की
और इन्तज़ार की भी
लेकिन कभी-कभी
उससे अपने-आप में
अचानक मुलाकात होती है
हम उसे स्तब्ध से पहचानते हैं
कि वह इतने दिनों से
रही आई है हममें
और हम पहली बार जान रहे हैं
कि वह हमारी ही आदत है |
[ आशुतोष दुबे की कविताओं के साथ दिये गये चित्र हुकुम लाल वर्मा की पेंटिंग्स के हैं | समकालीन कला जगत में अपनी प्रखर पहचान बना रहे हुकुम लाल वर्मा ने कई जगह अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित किया है | आने वाले आठ दिसंबर को उनकी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी मुंबई की जहाँगीर ऑर्ट गैलरी में शुरू हो रही है, जिसे चौदह दिसंबर तक देखा जा सकेगा | ]
Sunday, November 21, 2010
अरुण आदित्य की कविताएँ
|| कालीन ||
घर में अगर यह हो तो
बहुत सारी गंदगी छुप जाती है इसके नीचे
आने वाले को दिखती है
सिर्फ आपकी संपन्नता और सुरुचि
इस तरह बहुत कुछ दिखाने
और उससे ज्यादा छिपाने के काम आता है कालीन
आम राय है कि कालीन बनता है ऊन से
पर जहीर अंसारी कहते हैं, ऊन से नहीं जनाब, खून से
ऊन दिखता है
चर्चा होती है, उसके रंग की
बुनाई के ढंग की
पर उपेक्षित रह जाता है खून
बूंद-बूंद टपकता
अपना रंग खोता, काला होता चुपचाप
आपकी सुरुचि और संपन्नता के बीच
इस तरह खून का आ टपकना
आपको अच्छा तो नहीं लगेगा
पर क्या करूँ, सचमुच वह खून ही था
जो कबीर, अबीर, भल्लू और मल्लू की अंगुलियों से
टपका था बार-बार
इस खूबसूरत कालीन को बुनते हुए
पछताइए मत
आप अकेले नहीं हैं
सुरुचि संपन्नता के इस खेल में
साक्षरता अभियान के मुखिया के घर में भी
दीवार पर टंगा है एक खूबसूरत कालीन
जिसमें लूम के सामने खड़ा है एक बच्चा
और तस्वीर के ऊपर लिखा है -
मुझे पढ़ने दो - मुझे बढ़ने दो
वैष्णव कवि और क्रांति- कामी आलोचक के
घरों में भी बिछे हैं खूबसूरत कालीन
जिनसे झलकता है उनका सौंदर्य बोध
कवि को मोहित करते हैं
कालीन में कढ़े हुए फूल पत्ते
जिनमें तलाशता है वह वानस्पतिक गंध
और मानुष गंध की तलाश करता हुआ आलोचक
उतरता है कुछ और गहरे
और उछालता है एक वक्तव्यनुमा सवाल -
जिस समय बुना जा रहा था यह कालीन
घायल हाथ, कुछ सपने भी बुन रहे थे साथ-साथ
कालीन तो पूरा हो गया
पर सपने जहाँ के तहाँ हैं
ऊन - खून और खंडित सपनों के बीच
हम कहां हैं ?
आलोचक खुश होता है
कि उत्तर से दक्षिण तक
दक्षिण से वाम तक
वाम से अवाम तक
गूँज रहा है उसका सवाल
अब तो नहीं होना चाहिए
कबीर, अबीर, भल्लू और मल्लू को कोई मलाल |
|| विनय-पत्र ||
सूर्य !
तुम उन्हें भी देते हो उतना ही प्रकाश
जबकि वे तो तुम्हें देवता नहीं मानते
इंद्र !
तुम उनके हिस्से में भी देते हो
हमारे ही बराबर बारिश
जबकि सिर्फ हम ही
मानते हैं तुम्हें देवराज
शिव !
तुम्हारा तीसरा नेत्र भी
फ़र्क नहीं करता हममें और उनमें
जबकि भंग, धतूर और बेलपत्र
तो हमीं चढ़ाते हैं तुम्हें
और राम जी !
तुम भी बिना सोचे समझे ही
कर देते हो सबका बेड़ा पार
कुछ तो सोचो यार
आख़िर तुम्हारे लिए ही तो
लड़ रहे हैं हम
आदरणीय देवताओं !
वे नहीं हैं तुम्हारी अनुकम्पा के हकदार
यही विनती है बारंबार
कि छोड़ दो ये छद्म धर्मनिरपेक्षता
छोड़ दो, छोड़ दो, छोड़ दो
छोड़ दो, वरना......
तय है तुम्हारा मरना |
|| अन्वर्थ ||
चित्र बना रही है वह
या चित्र बना रहा है उसे
अभी-अभी भरा है उसने
एक पत्ती में हरा रंग
और एक हरा-भरा उपवन
लहलहाने लगा है उसके मन में
एक तितली के पंख में
भरा है उसने चटख पीला रंग
और पीले फूलों वाली स्वप्न- उपत्यका में
उड़ने लगी है वह स्वयं
उसे उड़ते देख खिल उठा है कैनवास
अब वह भर रही है आसमान में नीला रंग
और कुछ नीले धब्बे
उभर आए हैं उसकी स्मृति में
अब जबकि भरने जा रही है वह
बादल में पानी का रंग
आप समझ सकते हैं
कि उसकी आंखों को देख
सहम-सा क्यों गया है कैनवास
|| यही दो सच ||
कई बार सांप को रस्सी समझा है
और रस्सी को सांप
आधी रात में जब भी अचकचा पर टूटी है नींद
अक्सर हुआ है सुबह होने का भ्रम
कई सुहानी सुबहों को रात समझकर
सोते और खोते रहे हैं हम
जो नहीं मिला, उसे पाने की टोह में
बार-बार भटके समझौतों के नार-खोह में
गलत-सही मोड़ों पर कितनी ही बार मुड़े
कितनी ही बार उड़े माया के व्योम में
पर हर ऊंचाई और नीचाई से
मुझे दिखती रही है भूखे आदमी की भूख
और अपने भीतर बैठे झूठे का झूठ
भूख और झूठ दो ऐसे सच हैं
जो बार-बार खींच लाते हैं मुझे अपनी जमीन पर |
[अरुण आदित्य की यहाँ प्रकाशित कविताओं के साथ दिये गए चित्र युवा चित्रकार तिरुपति अन्वेश के काम के हैं | ]
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Monday, November 15, 2010
एकान्त श्रीवास्तव की कविताएँ
|| सुंदरता ||
जो सुंदर है
बहुत करीब जाने पर वह सुंदर नहीं है
जो सुंदर नहीं है
बहुत करीब जाने पर वह सुंदर
मन से, मस्तिष्क से वो सुंदर है
देह से जो सुंदर नहीं है
रेत चमकती हुई मगर गर्म धूप में
दूर से सुंदर है
जो दूर से
और करीब से सुंदर है
वो सचमुच बहुत सुंदर है
शब्द सुंदर नहीं है
सुंदर है उसमें छुपा विचार
विचार की इस धूप को
दुनिया में उतारने की इच्छा सुंदर है
भूख सुंदर नहीं है
भूख से लड़ने की इच्छा सुंदर है
दुःख सुंदर नहीं है
सुंदर है दुःख को सहने की ताक़त |
|| दो अंधेरे ||
(ट्रेन में एक अंधे दम्पति को भीख मांगता देखकर)
वे दो अंधेरे थे
लड़खड़ाते और गिरते हुए
गिरकर उठते हुए
उठकर साथ-साथ चलते हुए
वह आगे था और उसके कांधे पर हाथ रखे
पीछे- पीछे चल रही थी उसकी पत्नी
उसके गले में बंधा था ढोलक
जिसे बजा-बजाकर वह गा रहा था
जिसमें साथ दे रही थी उसकी पत्नी
उसकी आवाज़ में शहद था
वह एक दूसरी भाषा का गीत था
और ठीक-ठीक समझ में नहीं आ रहे थे उसके बोल
उसकी पत्नी ने पहन रखी थी सूती छींट की साड़ी
उसके गले में था एक काला धागा
शायद मंगलसूत्र
कलाइयों में कांच की सस्ती चूड़ियां
उसके हाथ फैले थे जिस पर कुछ सिक्के थे
उनके पांव नंगे थे
वे टोह-टोह कर चलते थे
यह आश्चर्यजनक था कि उनके पास नहीं थी लाठी
उससे भी आश्चर्यजनक था यह देखना
कि गले में बंधे ढोलक पर बैठी थी
उनकी डेढ़ बरस की बच्ची
झालर वाली सस्ती फ्रॉक पहने
टुकुर-टुकुर देखती हुई लोगों को
इस दारुण दृश्य में यह कितना सुखद था
की उनकी बच्ची थी और उसकी दो अदद आंखें थीं
वह देख सकती थी कि वह अंधी नहीं थी
गाँव के एक स्टेशन पर वे उतर गए
मैंने उन्हें देखा
कांस के धवल फूलों से भरी
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी पर जाते हुए
कल बड़ी होगी उनकी बिटिया
थामेगी उंगलियां दोनों की
वह दो अंधेरों के बीच एक सूर्योदय थी |
|| कबीर की खोज ||
जंगल उतना ही घना था और भयावह
जितना बचपन की किसी लोककथा का
जंगल हो सकता था
यहाँ हिंसक जानवरों की गुर्राहटें थीं
अंधकार था कृष्णपक्ष का
धरती पर बरसता हुआ
मगर ढलान पर कपास के खेत थे
जहाँ पीले फूलों के कितने-कितने चाँद
उगे हुए थे
रास्ता कहीं नहीं था
कि हमें चलकर बनाना था अपना रास्ता
हम थक चुके थे
और हमें भूख लग रही थी
मगर पेड़ों पर फल नहीं थे
और नदियों का दूर तक कहीं पता नहीं था
बस एक आवाज़ थी
जो हम तक पहुंच रही थी
यह कबीर की आवाज़ थी
दूर किसी देहरी पर एक दिया टिमटिमा रहा था
वहाँ शायद दो-चार घरों का कोई गांव था
उसी गांव की अपनी कुटी में कबीर थे
जो गा रहे थे और कात रहे थे सूत
उनके गाने की आवाज़ में
शामिल थी करघे की आवाज़ भी
बस आवाज़ थी और आवाज़ की आकाश गंगा
जिसके मद्धिम आलोक में
हमें पार करना था रास्ता
कबीर जो गा रहे थे
वह कोई सबद हो सकता था या दोहा
मगर वह जो बुन रहे थे
निस्संदेह वह हमारे समय की चादर होगी
जगह-जगह फटी हुई
जिसे फिर से बुनना ज़रूरी था
हो सकता है दीये की टिमटिमाहट एक माया हो
माया हो वह गांव
माया हो कबीर की आवाज़
जो इतने करीब से नहीं बल्कि शताब्दियों के पार
कहीं अनन्त से आ रही हो
हम बहुत बेचैन हुए
कि कबीर की खोज अब ज़रूरी है
मगर कहां से - हमने एक दूसरे से पूछा
कहां से शुरू करें कबीर की खोज
कविता से या कपास के फूल से ?
ब्रह्मकमल से
या बारम्बार सती गई
इन्हीं पगडंडियों की धूल से ?
[ छत्तीसगढ़ अंचल में जन्में एकान्त श्रीवास्तव का समकालीन कविता की दुनिया में अच्छा-खासा नाम है, और जो मानते हैं कि 'एक कवि उम्र भर उस कविता की प्रतीक्षा करता है जिसे वह लिख नहीं पाया है जिसे वह लिखना चाहता है |' एकान्त की यहाँ प्रस्तुत कविताओं के साथ दिये गए चित्र मञ्जूषा गांगुली की पेंटिंग्स व कोलाज़ के हैं | कला के अध्यापन में संलग्न मञ्जूषा अपनी रचनात्मक सक्रियता को लेकर भी पर्याप्त दिलचस्पी रखती हैं | ]
Sunday, November 7, 2010
ज्यूल सुपरवील की कविताएँ
|| धरती ||
कांच का छोटा सा ग्लोब
धरती का छोटा सा ग्लोब
मेरी क्रिस्टल की खूबसूरत गेंद
मैं तुम्हारे पार देखता हूँ |
हम सब बंद हैं
तुम्हारी कठोर और गहन छाती के अंदर
लेकिन खूब चमकते बेहद कांतिमय
रोशनी से घिरे हुए
कुछ : यह दौड़ता घोड़ा
एक रुकी हुई स्त्री
पूर्ण सुंदरता लिए फूल
अपने नक्षत्र पर एक बच्चा
कुछ और : टेबल के आसपास बैठे
या
सिगरेट पीते
कुछ रेत पर लेटे
या
आग में हाथ सेंकते
और स्वयं के आसपास चक्कर काटते
बिना किसी कोशिश
अकारण
आकाश की तरह
इसके नक्षत्रों की तरह
मृत्यु के समान चमकते हम |
|| प्रात:काल ||
मेरा मन आंगन के उस पार जाता है
जहाँ चिड़ियां चहचहा रही हैं
हल्की छाया से गुज़रती एक लड़की
लौट रही है अपने पुराने प्रेमी के पास |
सुबह का निकाला ऊपर लाया गया दूध
मन में आशा जगाता
सीढ़ियों के अंधेरे छल्लों में
तत्क्षणिक आश्वासन की झंकार
सुबह की उल्लसित ध्वनियां
मेरी ओर बढ़ता एक दिन
न तेज़ न धीरे
नियति के अधीन कुछ कदम
मेरी तीस साल पुरानी टांगें
चालीसवें की ओर बढ़ती हुईं
न प्रेम, न ही घृणा
रोकती इन्हें क्षण भर
मैं फिर उसी जगह खोज लूंगा
अपनी पुरानी और आज की हड्डियां
सजीव देह में, लिपटी रात में
मेरा ह्रदय भारी है, पीड़ा सहता हुआ |
|| यात्रा ||
मैं नहीं जानता
कि आज इस पृथ्वी का क्या करूँ |
यूरोप की ऊंची चोटी का
आस्ट्रेलिया की समतल धरती का
कैलिफोर्निया का यह तूफान
गंगा के पानी से निकला भीगा हुआ हाथी
गुज़रते हुए मुझे भिगोता
पर कुछ न सिखाता |
एक हाथी की आँख
ऊर्जा के चरम पर पहुंचे एक समझदार आदमी की आँख का
सामना कैसे कर सकती है ?
धरती पर हर तरफ दिखती इन औरतों का क्या करूँ ?
धरती,
जो इन सबसे अधिक गोल है
औरतों !
वही करो
जो तुम चाहती हो
जाओ !
देर मत करो |
|| मुसाफिर-मुसाफिर ||
मुसाफिर, मुसाफिर मान जाओ कि अब तुम्हें लौटना है |
तुम्हारे लिए शेष नहीं अब कोई नया चेहरा
अनेक दृश्यों के सांचों में ढला तुम्हारा सपना
इसे छोड़ दो इसकी नई परिधि में
लौट आओ चमकते क्षितिज से, जो तुम्हें अभी भी लुभाता है |
अपने भीतर की हलचल को सुनो
और सहेज लो पाम वृक्षों की तीखी उजली हरियाली
जो तुम्हारी आत्मा के मूल तक घिर आई है |
[ ज्यूल सुपरवील (1884 - 1960) 20 वीं सदी के विख्यात फ्रेंच कवि हैं, जिनके बारह कविता संग्रह प्रकाशित हैं | उरुग्वे में जन्में ज्यूल ने जीवन फ्रांस में बिताया | यहाँ दी गईं कविताओं का मूल फ्रेंच से अनुवाद योजना रावत ने किया है | कविताओं के साथ दिए गए चित्र उदयपुर में जन्में तथा पले-पढ़े हेमंत जोशी के मूर्तिशिल्पों के हैं | हेमंत जोशी के मूर्तिशिल्प देश-विदेश में कई स्थानों पर प्रदर्शित व प्रशंसित हो चुके हैं | ]
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Tuesday, November 2, 2010
मोहन सिंह की एक लंबी कविता : तवी
|| एक ||
गर्मी की झुलसती ऋतु में
दूर-दूर के मैदानों से
शीतल मंद बयार के
स्पर्श के लिए
मादक निद्रा के सुख की ख़ातिर
आते हैं, कुछ साईकिल ! ताँगे |
तेरी स्नेहमयी लोरी
फर-फर झूलती है जब, जब
दिन भर की तपिश-थकान
काफ़ूर हो जाती है दूसरे ही क्षण |
मादक निद्रा
कर लेती है आलिंगनबद्ध
तुम्हारे सहवास से
मेरी पथरीली पगडंडियाँ
बन जाती हैं सैरगाह
जहाँ आते हैं
दूर-दूर से
गर्मी की झुलसती ऋतु में
शीतल मंद बयार के
स्पर्श के लिए
मादक निद्रा के सुख की ख़ातिर !
तुम्हारी स्निग्ध ममता
भर देती है
दिलों में अपूर्व शीतलता
गौरवांवित हो उठता है |
मेरा शहर
जो थी मात्र एक पथरीली पगडंडी,
जहाँ हैं कुछ लोग या पत्थर
जहाँ हैं लोग ही लोग या मंदिर
इसी सख्त ज़मीन में
करवट लेती है श्रद्धा भी कहीं ?
पर कहाँ है वह स्निग्धता?
तुम्हारी प्यार भरी लोरी
जैसे पुरवैया की थपकी
ज्यों मंझधार भी प्रतिध्वनि
माँ की गोद जैसी
कहाँ हो गई विलुप्त
तुम्हारी ममता की शीतलता
ताप से रहती मुक्त |
कोई नहीं आता
दूर-दूर के मैदानों से
साईकिल ताँगा
गर्मी की झुलसती ऋतु में
शीतल मंद बयार के
स्पर्श के लिए
मादक निद्रा के सुख की ख़ातिर
तुम बदल गई हो
या बदल गए हैं लोग ?
|| दो ||
तुम्हारे तट पर
बसा मेरा शहर
नहीं रहा कभी
तुम्हारी दया का मोहताज
संभव है
जानता हो
तुम्हारे क्रोध की कथाएँ
इसीलिए
तुम्हारे तल से
कुछ ऊपर हैं इसकी जड़ें
और उस उठान पर स्थित
खिलखिलाकर हँसा
ताकि तुम्हारे रौद्र से
डगमगाए न इसकी नींव
न कर सकें इसे नेस्त-नाबूद |
बड़ा सयाना है मेरा शहर
तुम्हारा अहसानमंद तो है
पर नहीं बैठाता तुम्हे सिर पर |
|| तीन ||
तुम्हारे तट पर
बसा मेरा शहर
जब ढलान उतरा
फला और फैला
तो तुम्हारा क्रोध
पहुँचा सातवें आसमान पर
मेरा शहर
तुम्हारे क्रोध से
भिड़ता रहा लगातार |
|| चार ||
तुम्हारा अस्तित्व
जब छटपटाता
क्रोध से
पागल हो जाता
बाँटता
तो उठ जाती
सैकड़ों निगाहें तुझ पर
किनारों पर
आ जुड़ते लोग |
तेरे सताए
तेरे लाड़ले
तरस जाते तेरी ममता को
तुम्हारी राह देखते |
किंतु
तुम्हारा अस्तित्व
सिकुड़ता और पहचानहीन हो जाता
ज़हरीला और क्षीणतर |
क्या छ्टे -छमाही
या बरसों में
एक बार जागने से
और उन्मादित होने से
नित प्रति
करना संवाद
थोड़ा-थोड़ा
बोलना
या गुनगुनाना
श्रेयस्कर नहीं ?
|| पाँच ||
आज भी
तुम्हारी धारा झेलने
तुम्हारी जगह घेरने
की होड़ लगी है
मानो
मिल-जुलकर
मिटा देना चाहते हो
तुम्हारा वजूद
किंतु
हर बार तूने
इनके इरादों पर
पानी फेरा है
और दिया है
अपने होने का सबूत
तुम्हारी और उनकी
इतनी-सी लड़ाई है |
[ मोहन सिंह डोगरी के प्रमुख कवि व नाटककार हैं | इनकी कविता, नाटक व नुक्कड़ नाटक की दस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं | वह साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार तथा अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं | यहाँ दी गईं उनकी कविताओं का डोगरी से अनुवाद केवल गोस्वामी ने किया है | कविताओं के साथ दिए गए चित्र दुबई में जा बसे चित्रकार राजन की पेंटिंग्स के हैं | ]
Monday, October 25, 2010
विद्यापति के पद
|| एक ||
नन्दक नन्दन कदम्बेरी तरु तरे घिरे घिरे मुरली बजाव |
समय संकेत निकेतन बइसल बेरि बेरि बोलि पठाव ||
सामरि,
तोरा लागि अनुखने विकल मुरारि
जमुनाक तीर उपवन उदबेगलफिरि फिरि ततहि निहारी |
गोरस विकेनिके अबइते जाइते जनि जनि पुछ बनवारि ||
तोहे मतिमान सुमति मधुसूदन वचन सुनह किछु मोरा |
भनइ विद्यापति सुन वरजुवति बन्दह नन्दकिशोरा ||
|| दो ||
माधव करिअ समधाने |
तुअ अभिसार कएल जत सुन्दरी कामिनी करए के आने ||
बरिस पयोधर धरनि वारि भर रयनि महामय भीमा |
तइअओ चललि थनि तुअ गुन मने गुनि तसु साहस नहि सीमा ||
देखि भवन भिति लिखल भुजगपति जसु मने परम तरासे |
से सुवदनि करे झपइते फनि मनि विहुसि आइलि तुअ पासे ||
निअ पहु परिहरि सँतरि विखम नरि अँगिरि महाकुल गारि |
तुअ अनुराग मधुर मद मातलि किछु न गुनल वरनारी ||
इ रस रसिक विनोदक विन्दक सुकवि विद्यापति गावे |
काम पेम दुहु एक मत भए भर रहू कखने की न कराबे ||
|| तीन ||
माधव कि कहब सुन्दरि रूपे |
कतेक जतन विहि आनि समारल देखलि नयन सरूपे ||
पल्लवराज चरण-युग शोभित गति गजराजक माने |
कनक-कदलि पर सिंह समारल तापर मेरु समनि ||
मेरु उपर दुइ कमल फुलायल नाल बिना रुचि पाई |
मनिमय हार धार बह सुरसरि तें नहि कमल सुखाई ||
अधर-बिम्ब सन दसन दाड़िम-विजु रविससि उगथिक पासे |
राहु दूरि बसु नियरो न आवथि तैं नहि करथि गरासे ||
सारंग नयन बचन पुन सारंग सारंग तसु समधाने |
सारंग उपर उगल दस सारंग केलि करथि मधुपाने ||
भनइ विद्यापति सुन वर यौवति एहन जगत नहिं जाने |
राजा सिवसिंघ रुपनरायन लखिमादइ प्रति भाने ||
|| चार ||
माधव, कत तोर करब बड़ाई |
उपमा तोहर कहब ककरा हम, कहितहुं अधिक लजाई ||
जून श्रीखंड-सौरभ अति दुरलभ, तौं पुनि काठ कठोर |
जौं जगदीस निसाकर, तौं पुन एकहि पच्छ उजोर ||
मनि-समान औरौं नहि दोसर, तनिकर पाथर नामे |
कनक-कदलि छोट लज्जित भए रह, की कहु ठाम-हि-ठामे ||
तोहर-सरिस एक तोहँ माधव, मन होइछ अनुमान |
सज्जन जन सों नेह कठिन थिक, कवि विद्यापति भान ||
|| पाँच ||
कानु हेरब छल मन बड़ साध | कानु हेरइत भेल एत परमाद ||
तबधरि अबुधि मुगुधि हम नारि | कि कहि कि सुनि किछु बुझए न पारि ||
साओन-धन सम झरू दु नयान | अविरत घस घस करए परान ||
की लागि सजी दरसन भेल | रभसे अपन जिउ पर हथ देल ||
ना जानु किए करू मोहनचोर | हेरइत प्राण हरि लई गेल मोर ||
अत सब आदर गेओ दरसाइ| जत विसरिए तत बिसर न जाइ ||
विद्यापति कह सुन बरनारि | धैरज धर चित मिलब मुरारि ||
|| छह ||
माधव, बहुत मिनति कर तोय |
दए तुलसी-मिल देह समर्पिनु, दय जनि छडिब मोय ||
गनइत दोसर गुन लेस न पाओबि, जब तुहुँ करबि विचार |
तुहू जगत जगनाथ कहाओसि, जग बाहिर नइ छार ||
किए मानुस पसु पखि भए जनमिए अथवा कीट-पतंग |
करम- बिपाक गतागत पुनु- पुनु, मति रहु तुअ परसंग ||
भनइ विद्यापति अतिसय कातर तरइत इह भव-सिंधु |
तुअ पद-पल्लव करि अवलंबन तिल एक देह दिनबंधु ||
[ मैथिली के महानतम कवि विद्यापति ( 1350 - 1460 ) की पहचान भारतीय साहित्य के श्रेष्ठतम सर्जकों में है | वे संस्कृत, अबहत्य (अपभ्रंश) तथा मैथिली के विद्वान् थे, और उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी | जिस समय संस्कृत समस्त आर्यावर्त की सांस्कृतिक भाषा के तौर पर स्वीकृत थी, उस समय उन्होंने अपनी क्षेत्रीय बोली को अपने मधुर व मोहक काव्य का माध्यम बनाया एवं साहित्यिक भाषा के अनुरूप उसमें अभिव्यक्तिकरण का सामर्थ्य भर दिया | विद्यापति क़रीब 800 वैष्णव व शैव पदों के लिये सुविख्यात हैं, जिन्हें विभिन्न ताड़-पत्र पांडुलिपियों में से बचा लिया गया है | विद्यापति के यहाँ प्रस्तुत पदों के साथ दिए गए चित्र श्वेता झा की पेंटिंग्स के हैं | सिंगापुर में रह रहीं श्वेता मिथिला की गौरवशाली प्राचीन संस्कृति व कला-परंपरा को संरक्षित करने तथा बढ़ावा देने के साथ-साथ सृजन की निरंतरता को बनाए रखने के उद्देश्य से निजी तौर पर भी सक्रिय हैं | वह सिंगापुर में अपने चित्रों की प्रदर्शनी भी कर चुकी हैं; कला प्रेक्षकों व कला मर्मज्ञों के बीच उनके चित्रों को व्यापक रूप से सराहना और पहचान मिली है | ]
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Wednesday, October 20, 2010
राग तेलंग की कविताएँ
|| आखिरी बार ||
जानता हूँ
आखिरी बार
मिला है यह
मनुष्य का जन्म
आखिरी बार
मिले हैं
इस जन्म में दोस्त
आखिरी बार के लिए हैं
ये आपसी संबंध
आखिरी बार हो रहा है
यह सब कुछ
पहली बार का
आखिरी बार
मुस्कुराना है यह
आखिरी बार
एकदम अचानक एक दिन
रूठ गई थी मेरी माँ
आखिरी बार
रहना है इस घर में
आखिरी बार
लिखना है यह सब कविता में
हमेशा के लिए
कुछ भी नहीं यहाँ
सब है आखिरी बार के लिए
इस सब आखिरी बार को
सहेजना होगा
बाँध के पक्का रखना होगा साथ
जब तक भी है
जीने के हर पल के लिए
काम आएँगी
आखिरी बार की बातें |
|| चाहता तो ||
अँधेरा था उन स्थानों पर
जहाँ प्यार से देखने भर से
पहुँच सकती थी उम्मीद
कोई रोशनी बनकर
अँधेरा वहाँ कई शक्लों में था
इसलिए पहुँचना जरुरी था
उसमें से दिखती
कोई पुकार पर किसी को
मैं चाहता था मुझसे पहले
वहाँ मेरी आवाज़ पहुँचे और लगे
दौड़ती आती हुई
अँधेरा गहरा था पाताल जैसा
जहाँ धरती के
कई लोगों की मुस्कुराहट
इकट्ठा बंद होकर
भय के अनेक दु:स्वप्नों से
लिपटी बैठी थी
घुटनों को थामे
चाहता तो कोई और भी
सर्वाधिक प्रसन्न
देख सकता था यह सब
मगर जब छूट भी यहाँ
यह सब नज़र अंदाज कर देने की
तो देखता क्यों कोई रूककर
जाते हुए तेजी में
रोशनी से रोशनी की तरफ |
|| तुम ही बताओ ||
ज़िंदगी की खुरदुरी सतह पर चल रहा हूँ और
अपनी शक्ल को
चिकना होते देखना चाहता हूँ
मैं भी कितना अजीब हूँ
हवा को हाथ में थामना चाहता हूँ
ये जानते हुए भी कि
पतंग उड़ाते हुए
मेरे हाथ में ही है डोर
अजीब है यह सब
ये देखते हुए कि मैं
अपने ही साए का पीछा करते हुए
पहुँचता हूँ आखीर में वहाँ
जहाँ कोई नहीं होता
मैं भी नहीं एक तरह से
पीछा करता हूँ खुद का आज भी
कोई भी रात
नहीं होती इतनी लंबी कि
सुबह का इंतज़ार
इंतज़ार ही बना रहे
यह जानते हुए भी
सशंकित सा
करता रहता हूँ काम दिन भर
इतने अँदर अपने कि
डूब जाएँ तो थाह भी न मिले
मेरी प्यास है कितनी गहरी
सात समुंदरों से भी ज्यादा
कहना चाहता हूँ सूखे गले से
पर कह नहीं पाता
मैं भी कितना अजीब हूँ
बाईं तरफ झुकना चाहता हूँ पर
ये सोचकर नहीं झुकता कि
घूमती हुई धरती का संतुलन
कहीं गड़बड़ा न जाए
मेरा झुकना व्यर्थ नहीं जाएगा ये जानता हूँ मैं
सही है उस दिशा में झुकना ये समझते हुए
मैं अपनी जगह कायम हूँ अब तक
मैं भी कितना अजीब हूँ
जानता हूँ
हूँ मैं अपनी ही गिरफ्त में
जाने कब से जकड़े हुए ख़ुद को
ख़ुद के ख़िलाफ
करता नहीं वक्त पर आज़ाद
अपने भीतर के परिंदे को
और चाहता हूँ
हो वैसा मेरे साथ
जैसा मैं चाहता हूँ |
|| एक दिन ऐसा होगा कि ||
ऊपर वाले को छोड़कर
और किसी को पता नहीं होगा और
हम चले जाएँगे एक दिन बिना बताए अचानक
जिन-जिनको होगा अफसोस
हमारे ऐसे चले जाने का
उनकी यादों में आएँगे हम ठीक वैसे ही बिना बताए
जो रो रहे होंगे उनको
दिलासा देने आएँगे हमारे जैसे हाथ
हालाँकि हमारी जगह भरी नहीं जाएगी हमारे जाने के बाद
फिर भी धीरे-धीरे वक्त भर देगा
हमारे जाने से पैदा हुआ खालीपन
हम चाहेंगे जिनसे किए हुए वादे हमें निभाने थे
वे उतने ही पूरे माने जाएँ
कुछ अधूरे काम जो हम छोड़ जाएँगे
उन्हें पूरा करेंगे हमारे अपने
हमारे सूखते हुए कपड़े
जब आखिरी बार रस्सी से उतारे जाएँगे
तब हम तुम्हारी स्मृतियों में भी झूल रहे होंगे याद रखना
हमारे बाद हमारे साथ गुज़ारे वक्त का जायजा
जिस पल तुम ले रहे होगे
तुम्हारी आँखों की कोर में उस वक्त नमी तैर रही होगी
चाँद से झाँकेंगे हम देखना
धरती की तरफ
इस दुआ के साथ कि
बची रहे जीवन की उम्मीद
हमेशा के लिए
आते रहें नन्हे मेहमान तय समय पर और
जाते रहें लोग हमारी तरह बिना बताए |
|| परिन्दे ||
हवा में उड़ते हुए
परिंदों का दम भी फूलता है
ठीक वैसे ही जैसे
पानी में डूबने से
कई बार बचते हैं तैराक
सड़क पर
हमारा कोई एक सफर
कितनी ही बार
होते-होते बचता है आखिरी
ऐसे कई वाकयों से भरा होता है
ऊपर का आसमान
लेकिन
हौसला सिर्फ हमारे पास ही नहीं
पंछियों के पास भी होता है
उनकी आँखें
हमसे बेहतर पहचान रखती हैं
शिकारी निगाहों की
इस हुनर के बगैर
बेमतलब होता है
बेहद ताकतवर पंखों का होना
खतरे कैसे भी हों
हवा में
उनकी मौजूदगी जानते हुए भी
बेखौफ उड़ान भरते रहते हैं परिंदे
एक ऐसा भी होता है हिम्मत का चेहरा
सात समंदरों से भी बड़े और
चौतरफा फैले इस बियाबान आसमान में
देखने में
बेहद अकेले दिखाई देते हैं परिंदे
मगर शायद ऐसा होता नहीं है
और तो और
हमारी इस फिक्र की
परवाह भी तो नहीं करते परिंदे |
[ प्रतिष्ठित 'रज़ा पुरस्कार' से सम्मानित राग तेलंग के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हैं तथा उनकी कविताएँ देश की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं | उनका नया संग्रह भी तैयार है | प्रख्यात लेखक उदय प्रकाश ने उनके एक कविता संग्रह के फ्लैप पर उनकी कविताओं का संक्षिप्त आकलन करते हुए उनकी कविताओं को 'हमारे समय की जरूरी और अर्थवान कविताओं' के रूप में रेखांकित किया है | राग तेलंग की यहाँ प्रकाशित कविताओं के साथ लगे चित्र समकालीन कला जगत में तेजी से अपनी पहचान बना रहे युवा चित्रकार सुरेश कुमार की पेंटिंग्स के हैं | ]
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Saturday, October 16, 2010
सुन्दर चन्द ठाकुर की कविताएँ
|| जो नहीं देखा ||
हरियाली को हमने दूर से देखा हरियाली की तरह
और हमें अच्छा लगा
हमारा हरा हरे से ज़्यादा कुछ न था फ़क़त एक रंग
न पानी न बादल न छाया
घूल की परतें और शहर का धुआं था उस पर
उसमें था एक पेड़
उसे भी हमने पेड़ की तरह देखा
यानी कुछ पत्तियाँ देखीं हरी
और उनके झुरमुट से सुनी दो-चार चिड़ियों की आवाज़
इतने में ही ख़ुश हुए हम
उसकी नर्म छाल को नहीं छुआ
हवा में झूमती थीं पतली टहनियां
उसके बदन पर जहाँ-तहाँ उग आये अँखुओं में
भूरे रंग की झाँकती नन्ही सुबह नहीं देखी
नदी को दूर से देखा अच्छा लगा
पहाड़ को दूर से देखा अच्छा लगा
देखा एक प्रेमी युगल को एकाकी समुद्रतट पर
शाम को नारंगी धुँधले में साथ-साथ चलते हुए
दूर तक पैरों के निशान देखे
पानी में उतरते जहाज़ पर लोग हाथ हिलाते जाते थे
लाल रंग के विशाल एक सूरज के बरक्स
हमने मस्तूलों को ओझल होते देखा
हमारी कल्पना में थे कई ख़ुशनुमा दृश्य
पहाड़ों समुद्रों और मरुस्थलों के पार एक जीवन था
मुखौटे नहीं थे वहां किसी के पास
खुले हुए मैदानों पर बारिश गिरती थी
बच्चे पानी में भीगते थे तरबतर
इच्छाओं का एक दरिया देखा
ज़रा से ताप में वाष्पीभूत होता हुआ |
|| भूगोल ||
भूगोल जब नहीं था दुनिया में
तब घटनाएँ थीं जादू जैसी
चीज़ों को अंतरिक्ष में उड़ाती गोल-गोल घूमती थी हवा
कई घुड़सवार भी इस दिव्य घेरे में ऊपर उठते देखे गए
ज़मीन की अतल गहराइयों में जहाँ पाताललोक था
उससे भी बहुत नीचे शेषनाग ने फन पर सँभाली हुई थी पृथ्वी
वह थकता था तो काँपती थी ज़मीन भूकम्प आते थे
तलहटियों पर बसे ग्रामीण अपने पापों से डरते
सोचते थे उन्हें सज़ा देने ही लावा उगलता फूटता था पहाड़
वे इंद्र देवता के अच्छे दिन थे उनका रुतबा था
बारिश के लिए तब होते थे अनुष्ठान
भूगोल जब नहीं था तब समुद्र अनन्त हुआ करते थे
अनन्त से उठकर आती थीं लहरें
मरुस्थलों के पार कुछ न था
वे भी समुद्रों की तरह अनन्त थे रेत की लहरें अनन्त तक दौड़ती थीं
भूगोल आया तो मानसूनी हवाएँ आयीं चक्रवात आये
बारिशों का मौसम तय हुआ
वह बर्फ़ीले प्रदेशों के एस्कीमो का अनोखा जीवन लाया
एक टापुओं, प्रायदीपों, पठारों, घास के मैदानों
और सदाबहार जंगलों की अनजानी दुनिया
भूगोल अपने झोले से निकाल सामने फैलाता गया
भूगोल आया पृथ्वी पर अक्षांशों और देशान्तरों का जाल बिछाता
समय को भूखंडों में विभाजित करता
पर्वतों-शिखरों की ऊँचाई नदियों की लम्बाई नापता
उसने ऋतुओं का सबसे पुराना तिलिस्म तोड़ा
अनजाने प्रदेशों की जातियों का पिटारा खोला
नदियों, पहाड़ों, समुद्रों का परिचय देता
दीपों, ध्रुवों, धाराओं को साथ लेता
बच्चों का कौतूहल बढ़ाता पृथ्वी को पारदर्शी बनाता
घटनाओं और दृश्यों को सरल करता
कई दिशाओं कटिबन्धों से होता हुआ
एक ही कक्षा में इतिहास के संग़ भूगोल आया |
|| ख़ाली समय ||
हज़ार व्यस्तताओं और भीषण भाग-दौड़ के बीच
यह ख़ाली समय है जो बचा रह गया है
एक मरहम है यह इच्छाओं से दग्ध ह्रदय के लिए
या कि भागते-भागते थक गए हैं हम
और फ़िलहाल थोड़ा सुस्ताना चाहते हैं
सोचें क्या कोई कविता या पढ़ें कोई
या कि चुपचाप तकते रहें सूरज का ढलना
धुंधली परछाइयों का बढ़ना पेड़ों से पत्तों का गिरना
एक गौरैया की चिर्र-चीं कौवे की कांव-कांव सुनें
या खोल दें सारे दरवाज़े-खिड़कियाँ
आत्मा में थोड़ी धूप और हवा भरें
कुछ करना चाहिए इस ख़ाली समय में
इच्छाओं का ज्वालामुखी प्रसुप्त है अभी
समय का हंटर अभी चेतना की पीठ पर नहीं बरस रहा
कुछ करें जो मन को हल्का करे
किसी दोस्त से दो-चार बातें थोड़ी गपशप
किसी को व्यक्त करें अपनी चिंताएँ
बूढी माँ को ही दे दें थोड़ा समय
पुरानी चिट्ठियों का पोथा खोलें
अपने ही अतीत में लगा आयें एक ताज़ा डुबकी
या कि किताबों से धूल झाड़ें
अस्त-व्यस्त चीज़ों को ठीक-ठाक कर दें
हारमोनियम और तबला कब से पड़े हैं कबाड़ में
तबले पर उतारें उँगलियों की अकड़न
या हारमोनियम पर अपना बेसुरा होता सुर साधें
पड़े रहें बिस्तर पर औंधे मुँह ढँककर सो जायें
या कि झटककर सबकुछ उठें किसी काम में खो जायें
भविष्यनिधि का लगाएँ हिसाब
अछे दिनों की लालसा में योजनाएँ बनाएँ
या फिर आइने में अपनी सूरत ताकें
देखें बढ़ चुके हैं कितने सफ़ेद बाल
चेहरे पर उग आया है कितना जंजाल |
|| खिड़कियाँ ||
एक तस्वीर रखी होती है
एक पर्दा चुपचाप लटका रहता है वहाँ
एक पौधा वहीँ अपनी उम्र गुज़ारता है
एक दृश्य वहाँ हमेशा फैला होता है
एक गली या एक पेड़ वहाँ से दिखाई देता रहता है
उन पर अक्सर चिड़ियों के बैठने का ज़िक्र मिलता है
जबकि हवा और रोशनी के लिए होती हैं खिड़कियाँ
वहाँ से बारिश दिखती है दिखता है कोहरा
जंगल और पहाड़ दिखते हैं
दूर एक नदी का पानी चमकता है आँख में
एक छोटा सा आसमान उन पर हमेशा टंगा रहता है
खिड़कियों से झाँकती है घरों की ज़िन्दगी
घर इनसे दूसरों की ज़िन्दगी में झाँकते हैं
खुली होती हैं जिन घरों की खिड़कियाँ
हम उम्मीद करते हैं ऐसे घरों में
सरलता से बहता स्वस्थ होता होगा जीवन
बंद खिड़कियों वाले घरों में दुखी रहते होंगे लोग
जेल की अंधी कोठरियों में होती है एक अकेली खिड़की
यह खिड़की सबसे ज़्यादा खिड़की होती है
एक खिड़की कैदियों की आँख में होती है
यह आँख की खिड़की दीवार की खिड़की पर बैठी रहती है
इसी से समय रिसता आता है
आती है उम्मीद
स्वजनों की धुंधली तस्वीरें
झांकता है इसी से
उनका टिमटिमाता छोटा होता भविष्य
हमारी आँखें हमारे शरीर की दो खिड़कियाँ हैं
इन्ही से यह संसार हमारे भीतर प्रवेश करता है
स्थिर होते हैं यहीं रंगों और दृश्यों के प्रतिबिम्ब
हमारे कानों में भी होती है एक खिड़की
इसी से हमारे भीतर उतरता है सन्नाटा
यहीं बैठ रात का गीत गाते हैं झींगुर
एक खिड़की हमारे दिमाग में भी होती है
इसके बारे में शिक्षक बच्चों को हिदायत देते हैं
यह हमेशा खुली रखनी चाहिए
खिड़कियाँ आजकल धड़ाधड़ बंद हो रही हैं
बाहर उमड़ आया है एक ख़तरनाक तूफ़ान
दुखों की मूसलाधार बारिश गिर रही है
आँख के लिए रह गए हैं ख़ून के रंग
कान के लिए रह गई हैं बुरी ख़बरें
दिमाग के लिए बिक रहीं हैं साजिशें
आँख की कान की दिमाग की
और एक जो हमारी आत्मा में है
समस्त खिड़कियाँ हो रही हैं बन्द
बन्द होती खिड़कियों के बीच जो खुली हुई हैं खिड़कियाँ
उनसे उदास लड़कियां ढलती शामें ताक रही हैं
बच्चे टुकुर-टुकुर देख रहे हैं खुला आसमान
आदमी डंडा पकड़ उड़ा रहा है कबूतर
छिपकलियाँ पाल रही हैं बच्चे
वहाँ मकड़ी के जाले निकल आये हैं
और जो तस्वीर रखी है वहाँ
वह बस रोने ही वाली है |
[ पिथौरागढ़ में जन्में और भारतीय सेना में कैप्टन रहे सुन्दर चन्द ठाकुर ने प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख व समीक्षाएँ लिखी हैं, और समकालीन हिंदी कविता में अपनी पहचान बनाई है | यहाँ प्रकाशित उनकी कविताओं के साथ लगे चित्र पामेला बसु ने चंडीगढ़ स्थित अपने घर की बालकनी से हाल ही में हुई बारिश के तुरंत बाद खींचे हैं | ]
Friday, October 8, 2010
मदन सोनी की कविताएँ
|| बसंत : उस लड़की के खून में ||
केशर और सिंदूर रंगों से रेखांकित वह शब्द
उस लड़की के खून में अचानक घुल गया है
लड़की चकित है :
हाथ में खुली किताब से गर्म भाप निकलती है | रोज़
दोपहर बाद उसका चेहरा अक्सर
बगैर गुस्से के तमतमाया रहता है
खिड़की के बाहर
दिन के तीसरे पहर की तेज़ धूप में
हिलती पीली झाड़ियाँ
शरारती छोकरे की तरह
उसे धीरे-धीरे बुलाती हैं
कोई वर्णहीन अक्षर
उसकी चेतना की फुनगियों पर
किसी चिड़िया की तरह फुदकता है
लड़की उसे लिखने की कोशिश में
लिखी-सी रह जाती है
घर लौटते हुए उसे लगता है
उसके पैरों में गुब्बारे बँधे हैं
उसके कपड़ों से हज़ारों आँखें चिपक गई हैं
हालांकि यह उसका भ्रम है
लेकिन बिस्तर पर लेटते ही यह भ्रम
उसकी बगल में लेट जाता है
रात भर नींद की अँधेरी घाटियों में उसका पीछा करता
सुबह
सामने वाले दरख़्त पर बैठे पक्षी के गले में बैठ
ऐसे चीखता है
कि लड़की
नींद से फिसलकर बिस्तर पर गिरती है
|| चिड़िया, जिसे शक है की वह चिड़िया है ||
वह मैदान नहीं है
जहाँ बच्चे दौड़ रहे हैं
न वे बच्चे हैं, जो मैदान में दौड़ रहे हैं
एक चिड़िया
जिसे शक है कि वह चिड़िया है
रेफ़री के कानों में लगातार चीख़ रही है
बच्चे थककर गिरते हैं मैदान में
मैदान टूट कर उड़ता हवा में
चिड़िया चीखती लगातार-
वह थकान नहीं
जो धराशायी कर रही बच्चों को
न वह हवा है
जो टूट कर उड़ते मैदान को
जंगल की आतुर भुजाओं में सौंप रही है
चिड़िया के लिए
वह मैदान नहीं है
वे बच्चे नहीं हैं
वह थकान
वह हवा नहीं है
सिर्फ़ एक रेफ़री है
जिसके सुनसान कानों में
सेंध लगाना चाहती है उसकी चीख़
रेफ़री के लिए
वह चिड़िया नहीं है
वह चीख़ नहीं है
वह शक नहीं कि वह रेफ़री है
सिर्फ़ एक खेल है
जिसे वह संचालित कर रहा है |
|| सेना का पुनरागमन ||
पूरे जंगल को घराशायी करती वह सेना
फिर तुम्हारे आंगनों में पड़ाव डाले है
सम्राट विहीन परास्त थकी हुई
प्यास
एक लोटे पानी की याचना में
डूबा है उसका इतिहास
इतिहास एक और
इतिहास की तरह न लिखा गया
बच्चों की किताब से बाहर
गाँव से बाहर
जीर्ण कुआँ
डूब कर मरी थी दुहाजू की बहु
कोई नहीं रोया
एक भयभीत कुत्ता भूंकता रहा लगातार
सेना को कुएँ के
इर्द गिर्द देख
कुत्ते की स्मृति में
बार-बार ताज़ा होता है इतिहास
वही लश्कर है
पानी मिलते जी उठेगा
जिरहबख्तर बंद अस्त्रों से लैस
सिर उठायेगा एक चमचमाता मुकुट
गाँवों और जंगलों को रौंधता जुलूस
गूंजता कुएँ में देर तक
कुत्ता चुप हो जायेगा
गंध के सहारे
सिंह दरवाज़ों तक जायेगा
गुस्से में संभव है
किसी सैनिक को काट खायेगा
मारा जायेगा |
[ मदन सोनी की कविताओं से साथ प्रकाशित चित्र आसिफ मंसूरी की पेंटिंग्स के हैं ]
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