Saturday, October 16, 2010

सुन्दर चन्द ठाकुर की कविताएँ















|| जो नहीं देखा ||

हरियाली को हमने दूर से देखा हरियाली की तरह
और हमें अच्छा लगा
हमारा हरा हरे से ज़्यादा कुछ न था फ़क़त एक रंग
न पानी न बादल न छाया
घूल की परतें और शहर का धुआं था उस पर
उसमें था एक पेड़
उसे भी हमने पेड़ की तरह देखा
यानी कुछ पत्तियाँ देखीं हरी
और उनके झुरमुट से सुनी दो-चार चिड़ियों की आवाज़
इतने में ही ख़ुश हुए हम
उसकी नर्म छाल को नहीं छुआ
हवा में झूमती थीं पतली टहनियां
उसके बदन पर जहाँ-तहाँ उग आये अँखुओं में
भूरे रंग की झाँकती नन्ही सुबह नहीं देखी

नदी को दूर से देखा अच्छा लगा
पहाड़ को दूर से देखा अच्छा लगा
देखा एक प्रेमी युगल को एकाकी समुद्रतट पर
शाम को नारंगी धुँधले में साथ-साथ चलते हुए
दूर तक पैरों के निशान देखे
पानी में उतरते जहाज़ पर लोग हाथ हिलाते जाते थे
लाल रंग के विशाल एक सूरज के बरक्स
हमने मस्तूलों को ओझल होते देखा

हमारी कल्पना में थे कई ख़ुशनुमा दृश्य
पहाड़ों समुद्रों और मरुस्थलों के पार एक जीवन था
मुखौटे नहीं थे वहां किसी के पास
खुले हुए मैदानों पर बारिश गिरती थी
बच्चे पानी में भीगते थे तरबतर
इच्छाओं का एक दरिया देखा
ज़रा से ताप में वाष्पीभूत होता हुआ |















|| भूगोल ||

भूगोल जब नहीं था दुनिया में
तब घटनाएँ थीं जादू जैसी
चीज़ों को अंतरिक्ष में उड़ाती गोल-गोल घूमती थी हवा
कई घुड़सवार भी इस दिव्य घेरे में ऊपर उठते देखे गए
ज़मीन की अतल गहराइयों में जहाँ पाताललोक था
उससे भी बहुत नीचे शेषनाग ने फन पर सँभाली हुई थी पृथ्वी
वह थकता था तो काँपती थी ज़मीन भूकम्प आते थे
तलहटियों पर बसे ग्रामीण अपने पापों से डरते
सोचते थे उन्हें सज़ा देने ही लावा उगलता फूटता था पहाड़

वे इंद्र देवता के अच्छे दिन थे उनका रुतबा था
बारिश के लिए तब होते थे अनुष्ठान

भूगोल जब नहीं था तब समुद्र अनन्त हुआ करते थे
अनन्त से उठकर आती थीं लहरें
मरुस्थलों के पार कुछ न था
वे भी समुद्रों की तरह अनन्त थे रेत की लहरें अनन्त तक दौड़ती थीं

भूगोल आया तो मानसूनी हवाएँ आयीं चक्रवात आये
बारिशों का मौसम तय हुआ
वह बर्फ़ीले प्रदेशों के एस्कीमो का अनोखा जीवन लाया
एक टापुओं, प्रायदीपों, पठारों, घास के मैदानों
और सदाबहार जंगलों की अनजानी दुनिया
भूगोल अपने झोले से निकाल सामने फैलाता गया

भूगोल आया पृथ्वी पर अक्षांशों और देशान्तरों का जाल बिछाता
समय को भूखंडों में विभाजित करता
पर्वतों-शिखरों की ऊँचाई नदियों की लम्बाई नापता
उसने ऋतुओं का सबसे पुराना तिलिस्म तोड़ा
अनजाने प्रदेशों की जातियों का पिटारा खोला
नदियों, पहाड़ों, समुद्रों का परिचय देता
दीपों, ध्रुवों, धाराओं को साथ लेता
बच्चों का कौतूहल बढ़ाता पृथ्वी को पारदर्शी बनाता
घटनाओं और दृश्यों को सरल करता
कई दिशाओं कटिबन्धों से होता हुआ
एक ही कक्षा में इतिहास के संग़ भूगोल आया |















|| ख़ाली समय ||

हज़ार व्यस्तताओं और भीषण भाग-दौड़ के बीच
यह ख़ाली समय है जो बचा रह गया है
एक मरहम है यह इच्छाओं से दग्ध ह्रदय के लिए
या कि भागते-भागते थक गए हैं हम
और फ़िलहाल थोड़ा सुस्ताना चाहते हैं

सोचें क्या कोई कविता या पढ़ें कोई
या कि चुपचाप तकते रहें सूरज का ढलना
धुंधली परछाइयों का बढ़ना पेड़ों से पत्तों का गिरना
एक गौरैया की चिर्र-चीं कौवे की कांव-कांव सुनें
या खोल दें सारे दरवाज़े-खिड़कियाँ
आत्मा में थोड़ी धूप और हवा भरें

कुछ करना चाहिए इस ख़ाली समय में
इच्छाओं का ज्वालामुखी प्रसुप्त है अभी
समय का हंटर अभी चेतना की पीठ पर नहीं बरस रहा
कुछ करें जो मन को हल्का करे
किसी दोस्त से दो-चार बातें थोड़ी गपशप
किसी को व्यक्त करें अपनी चिंताएँ
बूढी माँ को ही दे दें थोड़ा समय
पुरानी चिट्ठियों का पोथा खोलें
अपने ही अतीत में लगा आयें एक ताज़ा डुबकी
या कि किताबों से धूल झाड़ें

अस्त-व्यस्त चीज़ों को ठीक-ठाक कर दें
हारमोनियम और तबला कब से पड़े हैं कबाड़ में
तबले पर उतारें उँगलियों की अकड़न
या हारमोनियम पर अपना बेसुरा होता सुर साधें

पड़े रहें बिस्तर पर औंधे मुँह ढँककर सो जायें
या कि झटककर सबकुछ उठें किसी काम में खो जायें
भविष्यनिधि का लगाएँ हिसाब
अछे दिनों की लालसा में योजनाएँ बनाएँ
या फिर आइने में अपनी सूरत ताकें
देखें बढ़ चुके हैं कितने सफ़ेद बाल
चेहरे पर उग आया है कितना जंजाल |















|| खिड़कियाँ ||

एक तस्वीर रखी होती है
एक पर्दा चुपचाप लटका रहता है वहाँ
एक पौधा वहीँ अपनी उम्र गुज़ारता है
एक दृश्य वहाँ हमेशा फैला होता है
एक गली या एक पेड़ वहाँ से दिखाई देता रहता है

उन पर अक्सर चिड़ियों के बैठने का ज़िक्र मिलता है
जबकि हवा और रोशनी के लिए होती हैं खिड़कियाँ
वहाँ से बारिश दिखती है दिखता है कोहरा
जंगल और पहाड़ दिखते हैं
दूर एक नदी का पानी चमकता है आँख में
एक छोटा सा आसमान उन पर हमेशा टंगा रहता है

खिड़कियों से झाँकती है घरों की ज़िन्दगी
घर इनसे दूसरों की ज़िन्दगी में झाँकते हैं
खुली होती हैं जिन घरों की खिड़कियाँ
हम उम्मीद करते हैं ऐसे घरों में
सरलता से बहता स्वस्थ होता होगा जीवन
बंद खिड़कियों वाले घरों में दुखी रहते होंगे लोग

जेल की अंधी कोठरियों में होती है एक अकेली खिड़की
यह खिड़की सबसे ज़्यादा खिड़की होती है
एक खिड़की कैदियों की आँख में होती है
यह आँख की खिड़की दीवार की खिड़की पर बैठी रहती है
इसी से समय रिसता आता है
आती है उम्मीद
स्वजनों की धुंधली तस्वीरें
झांकता है इसी से
उनका टिमटिमाता छोटा होता भविष्य

हमारी आँखें हमारे शरीर की दो खिड़कियाँ हैं
इन्ही से यह संसार हमारे भीतर प्रवेश करता है
स्थिर होते हैं यहीं रंगों और दृश्यों के प्रतिबिम्ब
हमारे कानों में भी होती है एक खिड़की
इसी से हमारे भीतर उतरता है सन्नाटा
यहीं बैठ रात का गीत गाते हैं झींगुर
एक खिड़की हमारे दिमाग में भी होती है
इसके बारे में शिक्षक बच्चों को हिदायत देते हैं
यह हमेशा खुली रखनी चाहिए

खिड़कियाँ आजकल धड़ाधड़ बंद हो रही हैं
बाहर उमड़ आया है एक ख़तरनाक तूफ़ान
दुखों की मूसलाधार बारिश गिर रही है
आँख के लिए रह गए हैं ख़ून के रंग
कान के लिए रह गई हैं बुरी ख़बरें
दिमाग के लिए बिक रहीं हैं साजिशें
आँख की कान की दिमाग की
और एक जो हमारी आत्मा में है
समस्त खिड़कियाँ हो रही हैं बन्द

बन्द होती खिड़कियों के बीच जो खुली हुई हैं खिड़कियाँ
उनसे उदास लड़कियां ढलती शामें ताक रही हैं
बच्चे टुकुर-टुकुर देख रहे हैं खुला आसमान
आदमी डंडा पकड़ उड़ा रहा है कबूतर
छिपकलियाँ पाल रही हैं बच्चे
वहाँ मकड़ी के जाले निकल आये हैं
और जो तस्वीर रखी है वहाँ
वह बस रोने ही वाली है |

[ पिथौरागढ़ में जन्में और भारतीय सेना में कैप्टन रहे सुन्दर चन्द ठाकुर ने प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख व समीक्षाएँ लिखी हैं, और समकालीन हिंदी कविता में अपनी पहचान बनाई है | यहाँ प्रकाशित उनकी कविताओं के साथ लगे चित्र पामेला बसु ने चंडीगढ़ स्थित अपने घर की बालकनी से हाल ही में हुई बारिश के तुरंत बाद खींचे हैं | ]

1 comment:

  1. बढ़िया कविताये है भाई । सुन्दर को बधाई ।

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