Thursday, July 19, 2012

श्रीप्रकाश शुक्ल की 'घर' शीर्षक कविता

  



















|| एक ||

घर बनाने में बहुत-सी सामानें आयीं |

घर को मिला सीमेंट, बालू और सरिया
मिले कुछ मजदूर, कारीगर और बढ़ई
मेरे हिस्से में आयीं कुछ ध्वनियाँ

मैं इन्हीं ध्वनियों को सुनता हूँ
और इन्हीं के सहारे
घर के भीतर पाता हूँ
ख़ुद को |
















|| दो ||

घर ध्वनियों से मुक्ति के लिए नहीं होता
वह होता है
ध्वनियों को सुनने के लिए

जितनी ही बड़ी ध्वनियाँ
उतना ही सुन्दर घर

मेरे घर का पता इन्हीं ध्वनियों में है |
















|| तीन ||

मैं अपने घर में एक किताब की तरह प्रवेश करता हूँ
पन्नों की तरह उसके कमरों में टहलता हूँ
और पिछवाड़े के जिल्द्नुमा दरवाज़े से जब निकलता हूँ

तब ख़ुद को
एक बड़े घर में पाता हूँ
जिसमें कई रोशनदान उभर आये हैं

इन रोशनदानों से ध्वनियाँ आती हैं
जहाँ मेरे पुरखे फुसफुसाते हैं |





















|| चार ||

जब नहीं था
नहीं होने का ग़म था

हर बार छोटी पड़ती गयी चारपाई
हर बार किताबों के लिए जगह कम पड़ती गयी
हर बार मेहमानों के लिए कोने का रोना रोता रहा

अब जब घर है
तब होने को लेकर नम हूँ
कैसे मिलेगा इसको दानापानी
कैसे देखूँगा इसके अकेले का होना
सफ़र का दुनिया में

घर में होने-न-होने के बीच
थरथराता है वजूद
अपनी ही उपस्थिति का |


















|| पाँच ||

एक ख़ाली ज़मीन थी
एक बड़ा घर मेरे सामने था

जैसे-जैसे ज़मीन भरती गयी
बड़ा घर
छोटा होता गया
मेरे सामने |
















|| छह ||

मैंने गृह प्रवेश किया
अतिथियों की जूठन के साथ
मैंने भी गिराये कुछ दाने

अब घर में रहने भी लगा हूँ
चूल्हा चौका सब कुछ ठीक ठाक ही है
पहले से थोड़ी जगह भी ज़्यादे है

लेकिन मुझे ही नहीं मिलता वह घर
जिसे भूमि पूजन के ठीक पहले तैयार किया था
नक्शे में |

[श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं के साथ दिये गए चित्र शिरीष देशपांडे की बॉलप्वाइंट पेंटिंग्स के चित्र हैं |]

Thursday, July 5, 2012

सुन्दर चन्द ठाकुर की दो कविताएँ




















|| दूसरी तरफ़ ||

वहाँ बिखरे हैं चमकीले रंग
काली रात के परदे पर
थिरकती दिखती है एक जगमग दुनिया

हर चीज़ अपनी सुन्दरता में निखरी
इन्द्रसभा में देवताओं का उत्सव हो जैसे
मादक देहगन्ध उड़ाती इठलाती कामुक अप्सराएँ
ऐन्द्रिक आनन्द में आकण्ठ डूबे
उपस्थित हैं वहाँ अपने-अपने साम्राज्यों के महामहिम राजा
नहीं है कोई खौफ़ वहाँ कोई भी चिन्ता
किसी बात का पछतावा कोई भी दुःख नहीं
अय्याशी की एक अँगड़ाई है समूचे दृश्य पर छायी हुई

मंच पर स्थापित यह हमारे ही समय का दृश्य है
बलिदानों और ख़ूनी क्रांतियों से भरे इतिहास की अन्तिम परिणति
हमारी ही सभ्यता का शीर्ष बिन्दु उसका उत्कर्ष
इसके चारों ओर पहरेदार सा फैला है घटाटोप अँधेरा
दूसरी तरफ सुनाई देता है कलपती आत्माओं का शोर
इच्छाओं से बिंधे सीनों की बेसुध सीत्कार
मारकाट हाय-हाय भयंकर प्रलाप

कभी-कभार आकाश से गिरती कोई उल्का जैसे
एक चमक भरी लकीर छोड़ती गुम जाती है
दूसरी तरफ से एक आदमी
कई पीढ़ियों की राख से उठती क्षीण एक चिनगारी सा
पीछे छोड़ता सारा शोर समस्त प्रलाप
अपने भाग्य के ईंधन से भरा द्रुतवेग से
बीच में फैले अन्धकार में क्षणभर चमकता
जगमग दुनिया में कूदकर बुझ जाता है |


 

















|| हमारी दुनिया ||

चिड़िया हमारे लिए तुम कविता थी
उनके लिए छटाँक भर गोश्त
इसीलिए बची रह गई
वे शेरों के शिकार पर निकले
इसलिए छूट गए कुछ हिरण
उनकी तोपों के मुख इस ओर नहीं थे
बचे हुए हैं इसीलिए खेत-खलिहान घरबार हमारे
वे जितना छोड़ते जाते थे
उतने में ही बसाते रहे हम अपना संसार

हमने झेले युद्ध अकाल और भयावह भुखमरी
महामारियों की अँधेरी गुफाओं से रेंगते हुए पार निकले
अपने जर्जर कन्धों पर युगों-युगों से
हमने ही ढोया एक स्वप्नहीन जीवन
कायम कीं परम्पराएँ रची हमीं ने सभ्यताएँ
आलीशान महलों भव्य किलों की नींव रखी
उनके शौर्य-स्तंभों पर नक्काशी करने वाले हम ही थे शिल्पकार
इतिहास में शामिल हैं हमारी कलाओं के अनगिनत ध्वंसाशेष
हमारी चीख़-पुकार के बरक्स वहाँ उनकी कर्कश आवाज़ें हैं
उनकी चुप्पी में निमग्न है हमारे सीनों का विप्लव

उनकी नफ़रत हममें भरती रही और अधिक प्रेम
क्रूरता से जनमे हमारे भीतर मनुष्यता के संस्कार
उन्होंने यन्त्रणाएँ दीं जिन्हें सूली पर लटकाया
हमारी लोककथाओं में अमर हुए वे सारे प्रेमी
उनके एक मसले हुए फूल से खिले अनगिन फूल
एक विचार की हत्या से पैदा हुए कई-कई विचार
एक क्रांति के कुचले सिर से निकलीं हज़ारों क्रांतियाँ
हमने अपने घरों को सजाया-सँवारा
खेतों में नई फसल के गीत गाये
हिरणों की सुन्दरता पर मुग्ध हुए हम

हम मरते थे और पैदा होते जाते थे |   

[पिथौरागढ़ में जनमे और भारतीय सेना में कैप्टन पद से ऐच्छिक सेवानिवृत्त सुन्दर चन्द ठाकुर की कविताओं के साथ यहाँ प्रकाशित चित्र आनंद गोस्वामी की पेंटिंग्स के हैं |]

Saturday, June 30, 2012

मुहम्मद अलवी की तीन उर्दू कविताएँ














|| नज़र आएगा ||

कोई तो सहारा नज़र आएगा
अभी कोई तारा नज़र आएगा

इरादा है उससे लिपट जाऊँगा
अगर वो दोबारा नज़र आएगा

उसे अपने ख़्वाबों में देखा करो
तुम्हें वो तुम्हारा नज़र आएगा

समंदर से यारी बढ़ाते रहो
कभी तो किनारा नज़र आएगा

मिरा शहर है ये, यहाँ हर कोई
मुसीबत का मारा नज़र आएगा




















  
|| लोग वहाँ कैसे हैं ||

शहर कैसा है, मकाँ कैसे हैं
क्या पता लोग वहाँ कैसे हैं !

सुनते हैं और भी जहाँ हैं मगर
कौन जाने वो कहाँ, कैसे हैं

तशिनगी और बढ़ा देते हैं
रेत पर आबे रवां कैसे हैं

हम तो हर हाल में ख़ुश रहते हैं
आप बतलाएँ म्याँ, कैसे हैं

कोई आया न गया है 'अलवी'
फिर ये क़दमों के निशाँ कैसे हैं

(तशिनगी = प्यास)




















|| आँख भर आए तो ||

कोई अच्छा चेहरा नज़र आए तो
उधर जाते-जाते इधर आए तो

ये दिल यूँ तो बच्चों का बच्चा है पर
गुनाह कोई संगीन कर आए तो

चला तो हूँ मैं अपना घर छोड़ कर
मगर साथ में मेरा घर आए तो

कबूतर तेरा उड़ते-उड़ते अगर
मेरी टूटी छत पर उतार आए तो

सबब हो तो रोना भी अच्छा लगे
मगर बेसबब आँख भर आए तो |    

[साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उर्दू कवि मुहम्मद अलवी का जन्म 1927 में हुआ | इनके कई ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित हुए हैं | यहाँ प्रकाशित उनकी कविताओं का अनुवाद ख़ुर्शीद आलम ने किया है, जो उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी से पुरस्कृत हैं | मुहम्मद अलवी की कविताओं के साथ दिये गए चित्र युवा चित्रकार और मूर्तिकार संजय कुमार श्रीवास्तव की पेंटिंग्स की तस्वीरें हैं |]


Wednesday, May 23, 2012

ज्ञानेंद्रपति द्धारा चयनित ख़ुद की दो प्रतिनिधी कविताएँ
















|| सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है ||

सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है
नदी का जल-पृष्ठ निरंग हो धीरे-धीरे सँवलाने लगता है जब
देखता हूँ, नदी के पारतट के ऊपर के आकाश में
एक झुंड है पक्षियों का
धुएँ की लकीर-सा वह
एक नीड़मुखी खगयूथ है
वह जो गति-आकृति उर्मिल बदलती प्रतिपल
हो रही ओझल
सूर्यास्त की विपरीत दिशा में नभोधूम का विरल प्रवाह
                                                       वह अविरल
क्षितिज का वही तो सांध्य रोमांच है
दिनान्त का अँकता सीमान्त वह जहाँ से
रात का सपना शुरू होता है
कौन हैं वे पक्षी
दूर इस अवार-तट से
पहचाने नहीं जाते
लेकिन जानता हूँ
शहर की रिहायशी कालोनियों में
बहुमंजिली इमारतों की बाल्कनियों में
ग्रिलों-खिड़कियों की सलाखों के सँकरे आकाश-द्धारों से
घुसकर घोंसला बनाने वाली गौरैयाएँ नहीं हैं वे
जो सही-साँझ लौट आती हैं बसेरे में
ये वे पक्षी हैं जो
नगर और निर्जन के सीमान्त-वृक्ष पर गझिन
बसते हैं
नगर और निर्जन के दूसरे सीमान्त तक जाते हैं
दिनारम्भ में बड़ी भोर
खींचते रात के उजलाते नभ-पट पर
प्रात की रेखा |
















|| आदमी को प्यास लगती है ||

कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में  
जो एक हैंडपम्प है
भरी दोपहर वहाँ
दो जने पानी पी रहे हैं
अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाये जा रहा है हैंडपम्प का हत्था
दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से
छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार
मार्च-अख़ीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलने लगा है,
                                          कंठ रहने लगा है हरदम खुश्क
ऊपर, अपने फ्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं
ये दोनों वे ही सेल्समेन हैं
थोड़ी देर पहले बजायी थी जिन्होंने मेरे घर की घंटी
और दरवाज़ा खोलते ही मैं झुँझलाया था
भरी दोपहर बाज़ार की गोहार पर के चैन को झिंझोड़े
                                    यह बेजा ख़लल मुझे बर्दाश्त नहीं
'दुनिया-भर में नंबर एक' - या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए
भेड़े थे मैंने किवाड़
और अपने भारी थैले उठाये
शर्मिन्दा, वे उतरते गए थे सीढ़ियाँ

ऊपर से देखता हूँ
हैंडपम्प पर वे पानी पी रहे हैं
उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर
तनिक कुम्हलायी उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया हुआ दुर्निवार उत्साह
गीले न हो जायें जूते-मोज़े इसलिए पैरों को वे भरसक छितराये हुए हैं
गीली न हो जाये कंठकस टाई इसलिए उसे नीचे से उठा कर
                           गले में लपेट-सा लिया है, अँगौछे की तरह
झुक कर ओक से पानी पीते हुए
कालोनी की इमारतें दिखायी नहीं देतीं
एक पल को क़स्बे के कुएँ की जगत का भरम होता है
देख पा रहा हूँ उन्हें
वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद नहीं हैं
भारतीय मनुष्यों के उत्पाद हैं
वे भारतीय मनुष्य हैं - अपने ही भाई-बंद
भारतीय मनुष्य - जिनका श्रम सस्ता है
विश्व-बाज़ार की भूरी आँख
जिनकी जेब पर ही नहीं
जिगर पर भी गड़ी है |   

[ज्ञानेंद्रपति की कविताओं के साथ दिये गए चित्र देवीलाल पाटीदार के मूर्तिशिल्पों की तस्वीरें हैं |]

Sunday, April 22, 2012

हरिओम राजोरिया की कविताओं के साथ अरिंदम चटर्जी की पेंटिंग्स


|| थाने के सामने जिनके घर हैं ||

चलती सड़क के सामने होगा
तो पड़ेगा दिनचर्या में खलल
नींद का थोड़ा नफ़ा है
अगर किसी निर्जन में है तुम्हारा घर
तंग बस्तियों में घुटन हो सकती है
बाज़ार में रहने के ज़रूर कुछ लाभ हैं
हर जगह अपने तरह की है
हर जगह रहने के कुछ नुकसान फायदे हैं
पर क़िस्मत वाले हो तुम
थाने के सामने नहीं है तुम्हारा घर |

जो रहते हैं थाने के सामने
हो जाते हैं थाने से विरक्त
रात में किसी की चीख़ सुनकर
झट नहीं खोल पाते खिड़की
उनका इतना भर वास्ता होता है थाने से
कि उनके पते में थाने का जिक्र होता है |

ऐसा भी होता है कभी-कभी
वे गुजरें थाने के सामने से
और कर बैठें थाने को प्रणाम
बाद में भले हँसे भीतर ही भीतर
कि वे भूल गए थाने और मंदिर का फ़र्क
पर जब झुक रहे होते हैं भगवन के आगे
तब माँग रहे होते हैं दुआ -
"हे ईश्वर !
दूर रखना थाने के दरवाज़े से |"

जो रहते हैं थाने के सामने
उनके किसी न किसी हिस्से में
थोड़ा बहुत बचा ही रहता है थाना
तमाचों की गूँजें
घुड़कियाँ, गालियाँ और सलूटें
अँधकार में दमकते थाने का सन्नाटा
रात-विरात सन्नाटे को चीरता सायरन |

थाने के सामने जिनके घर हैं
वे रहते हैं इस दंभ से पीड़ित
कि वे हैं थाने के सामने
इसलिए नहीं है थाने के चंगुल में
सज्जनता डरपोक बनाती है उन्हें
सभ्य नागरिक होने की वजह से
हरदम करना पड़ता है उन्हें
इस यातनाघर का समर्थन

थाने के सामने रहने वाले लोग
इस हद तक गिर जाते हैं कभी-कभी
कि खो देते हैं मनुष्य होने की गरिमा
मौका आने पर इतना भी नहीं कर पाते
कि थाने के बाहर
सिर पीट-पीट कर बिलखतीं
उन स्त्रियों को पानी ही पिला दें
जिनके निरपराध पिता, पति, भाई या बेटे
पिट रहे होते हैं थाने के भीतर |




















|| अभिनेता ||

मैं एक ऐसे अभिनेता को जानता हूँ
जो स्टेशन पर उतरते ही
चलने लगता है मेरे साथ-साथ
बार-बार लपकता सामान की ओर
पूछता हुआ - "कहाँ जाना है भाई साहब ?
चलो रिक्शे में छोड़ देता हूँ |"
उम्मीद की डोर से बंधा
अपनी घृणा को छुपाता हुआ
वह काफी दूर चलता है मेरे पीछे-पीछे |

भर दोपहर में
जब सब दुबके रहते हैं अपने-अपने घरों में
उस बूढ़े अभिनेता का क्या कहना 
बहुत दूर सड़क से
सुनाई पड़ती है उसकी डूबी आवाज़
जो बच्चों के लिए कुल्फी का गीत गाता है

एक लड़का मिलता है टाकीज के पास
रास्ता चलते पकड़ लेता है हाथ
मैं भयभीत होता हूँ इस महान अभिनेता से
मैं डरता हूँ उसकी जलेबियों से
वह ज़िद के साथ कुछ खिलाना चाहता है मुझे
मेरे इन्कार करने पर कहता है -
"समोसे गरम हैं
कहो तो बच्चों के लिए बांध दूँ |"

एक अभिनेता ऐसा है शहर में
जो कपड़ा दुकान के अहाते में
बैठा रहता है कुर्सी लगाये
हर आते-जाते को नमस्कार करता
दिन भर मुस्कुराता ही रहता है
और महीना भर में
सात सौ रुपया पगार पाता है

गली, मोहल्लों, हाट, बाज़ार और सड़कों पर
हर कहीं टकरा ही जाते हैं ऐसे अभिनेता
पेट छुपाते हुए अपनी-अपनी भूमिकाओं में संलग्न
वे जीवन से सीखकर आये हैं अभिनय
जरूरतों ने ही बनाया है उन्हें अभिनेता
ऐसा भी हो सकता है अपने पिता की ऊँगली पकड़
वे चले आये हों अभिनय की इस दुनिया में
पर उनका कहीं नाम नहीं
रोटी के सिवाय कोई सपना नहीं उनके पास
जीवन उनके लिए बड़ा कठिन |

हाँ, ऐसे कुछ लोग भी हैं इस समाज में
जो इन अभिनताओं की नकल करते हैं
और बन जाते हैं सचमुच के अभिनेता

[हरिओम राजोरिया की कविताओं के साथ दिये गए चित्र अरिंदम चटर्जी की पेंटिग्स के हैं |]

Saturday, April 14, 2012

विष्णु खरे की दो कविताओं के साथ शुवप्रसन्ना की पेंटिंग्स



















|| मौसम ||

शब्दों का भी एक मौसम होता है
कपड़ों की तरह
तुम चाहो तो एक ही शब्द
बार-बार पहन सकते हो
शायद एक ही शब्द
तुम्हें अच्छा लगता हो
अपनी स्थिरता में
बच्चे को बढ़ने से रोकने की इच्छा करती हुई माँ की तरह
किंतु हम एक ही आदमी को
एक ही जैसा देखने के आदी नहीं होना चाहते
चाहते हैं
उससे अगली दफा मिलने पर
अपना और चीज़ों का पुरानापन याद आये
या हम कह सकें
कि अब वह पहले सा नहीं रहा या
हम चकित हों
उसके अचानक पीठ पर हाथ रख मुस्कराने
और हमारे उसे पहचान लेने के क्षण के बीच
अनिश्चय की असुविधा में
शब्द खोजते हुए

तुम चाहो तो
एक ही शब्द उलट-पलट कर पहन सकते हो
या उसी मौसम में -
बिस्तर पर जाने के पहले उनकी घटनाहीन जीवनी में
उनकी पत्नियों के लिए एक उल्लेखनीय वारदात बनते हुए -
कोई दूसरे शब्द -
जैसे शीशे के पीछे औरत
दिसंबर में भी सिर्फ ब्रा पहने होती है -
तुम्हारी असामान्य पसंद से चौकते हुए वे आसपास देखेंगे
उन्हें भी मौसम का अहसास नहीं होता
किंतु प्रतिदिन की असामान्यता
रंगीन मछलीघर की तरह
उनकी एक और आदत हो जाएगी
और फिर हालाँकि तुम रोज़ नये शब्द पहने हुए
उनके सामने से गुज़रोगे
या खीझ-भरे एकाध दिन
कुछ भी नहीं पहने हुए भी सड़क पर निकल आओगे
तब भी वे पुराने पोस्टरों पर या छतों पर लटकते
फीके कपड़ों पर
या किसी रुकी हुई नाली पर आँखे गड़ाए हुए बढ़ जाएँगे
जब तक कि तुम
शब्दों को अपने नियत मौसम में पहनकर
उनमें
एक धुँधली आश्चर्यान्वित पहचान न जगाओ



















|| लौटना ||

हम क्यों लौटना चाहते हैं
स्मृतियों, जगहों और ऋतुओं में
जानते हुए कि लौटना एक ग़लत शब्द है -
जब हम लौटते हैं तो न हम वही होते हैं
और न रास्ते और वृक्ष और सूर्यास्त -
सब कुछ बदला हुआ होता है और चीज़ों का बदला हुआ होना
हमारी अँगुलियों पर अदृश्य शो-विन्डो के काँच-सा लगता है
और उस ओर रखे हुए स्वप्नों को छूना
एक मृगतृष्णा है

अनुभवों, स्पर्शों और बसंत में लौटना
कितना हास्यास्पद है - फिर भी हर शख्स कहीं न कहीं लौटता है
और लौटना एक यंत्रणा है
चेहरों और वस्तुओं पर पपड़ियाँ और एक त्रासद युग की खरोंच
देखकर अपनी सामूहिक पराजयों का स्मरण करते हुए
आइने के व्योमहीन आकाश में
एक चिड़िया लहूलुहान कोशिश करती है उस ओर के लिए
और एक गैर-रूमानी समय में
हम सब लौटते हैं अपने-अपने प्रतिबिंबित एकांत में
वह प्राप्त करने के लिए
जो पहले भी वहाँ कहीं नहीं था

[विष्णु खरे जी की कविताओं के साथ दिये गए चित्र प्रख्यात चित्रकार शुवप्रसन्ना जी की पेंटिंग्स के हैं |]

Sunday, April 8, 2012

भगवत रावत की दो कविताओं के साथ वाल्टर बोज की पेंटिंग्स



















|| जो रचता है वह मारा नहीं जा सकता ||

मारने से कोई मर नहीं सकता
मिटाने से कोई मिट नहीं सकता
गिराने से कोई गिर नहीं सकता

इतनी सी बात मानने के लिए
इतिहास तक भी जाने की ज़रूरत नहीं
अपने आसपास घूम फिरकर ही
देख लीजिए

क्या कभी आप किसी के मारने से मरे
किसी के मिटाने से मिटे
या गिराने से गिरे

इसका उल्टा भी करके देख लीजिए
क्या आपके मारने से कोई .....
.........ख़ैर छोड़िए

हाँ हत्या हो सकती है आपकी
और आप उनमें शामिल होना चाहें
तो आप भी हत्यारे हो सकते हैं
बेहद आसान है यह
सिर्फ मनुष्य विरोधी ही तो होना है
आपको

इन दिनों ख़ूब फल फूल भी रहा है यह
कारोबार
हार जगह खुली हुईं हैं उसकी एजेंसियाँ
बड़े-बड़े देशों में तो उसके
शो रूम तक खुले हुए हैं

तोपों के कारखानों के मालिकों से लेकर
तमंचा हाथ में लिए
या कमर में बम बाँधे हुए
गलियों में छिपकर घूमते चेहरों में
कोई अंतर कहाँ है
इस सबके बावजूद
जो जीता है सचमुच
वह अपनी शर्तों पर जीता है
किसी की दया के दान पर नहीं
वह अर्जित करता है जीवन
अपनी निचुड़ती
आत्मा की एक-एक बूँद से

उसकी हत्या की जा सकती है
उसे मारा नहीं जा सकता

इस सबके बावजूद वह रहता है
दूसरों को हटा-हटा कर
चुपचाप ऊँचे आसन पर जा बैठे
दोमुँहे, लालची, लोलुप आदमी की तरह नहीं

अपनी ज़मीन पर उगे
पौधे की तरह,
लहराता
निर्विकल्प
निर्भीक

दुनिया का सबसे कठिन काम है जीना
और उससे भी कठिन उसे, शब्द के
अर्थ की तरह रचकर दिखा पाना
जो रचता है वह मारा नहीं जा सकता
जो मारता है, उसे सबसे पहले
ख़ुद मरना पड़ता है |



















|| शिनाख्त ||

चेहरे से ही किसी को पहचान पाना
संभव हुआ होता तो तीस-चालीस बरस
पहले ही उसे ठीक से
पहचान लिया होता

बोलचाल और व्यवहार की
कुशलता से ही कुछ पता लगता तो
इतने बरस उसके मोह में
क्यों पड़ा रहता

चरित्र की अंदरूनी पेचीदगियों
और उसकी बाहरी बुनावट में
इतनी विरोधी दूरियाँ भी हो सकती हैं
यह बड़ी देर से समझ आया

दरअसल आज़ादी के ठीक बाद
लोकतंत्र के ढीले-ढाले झोल के चाल चलन में
धीरे-धीरे युवा होते हुए आदमी ने
वे सारे पैंतरे विरासत में
उन दलालों से सीख लिए थे जो हमेशा
ऊँट की करवट देखकर ही अपनी
चाल चलते थे

जिनके एक हाथ में राष्ट्रीयता का झंडा होता था
तो दूसरे हाथ में स्वामीभक्त होने का तमगा

कुल मिलाकर यह कि उसने
सीखी ऐसी सधी हुई भाषा जो किसी को
नाख़ुश नहीं करती
उसने गढ़े ऐसे नारे जिनसे न कोई
असहमत हो, न कर सके कोई विरोध

उसने अख्तियार की ऐसी
सधी हुई विद्रोही मुद्रा जिससे उसके शरीर पर
खरोंच तक न आये
और तेवर विद्रोही का विद्रोही रहा आये

उसने हर लड़ाई में हमेशा छोड़ी एक
ऐसी अदृश्य जगह जहाँ दुश्मन से
हाथ मिलाने की गुंजाइश
हमेशा रही आये

और इस तरह संघर्ष और विद्रोह की
ताक़तवर प्रतिरोधी दीवार के बीच लगाई उसने सेंध
और बन बैठा हमारा-आपका नायक
फिर इसके बाद क्या हुआ
यह बताने की शायद अब कोई ज़रूरत नहीं

आप ही की तरह मैं भी पड़ा रहा भ्रम में
कि गिरावट के इस घटाटोप में कहीं
कोई तो है जो लड़ रहा है
पर वह तो उसकी रणनीति थी
सबके कंधों पर पाँव रख कर उस जगह पहुँचने की
जहाँ संघर्ष और विद्रोह का
कोई अर्थ रह नहीं जाता

रह जाता है वह और केवल वह
और उसी के इर्द-गिर्द गूँजती उसी की
जय जयकार

यह सच है कि इतने समय तक
ख़ामोश रह कर हमने
खो दिये अपने सच बोलने के सारे अधिकार

फिर भी जाते-जाते इस जहान से
कुछ न कुछ तो करना होगा कारगर उपाय
जैसे यही कि यह कविता या इसका आशय ही
कहीं बचा रह जाये
और आने वाली किन्हीं युवा आँखों में
रोशनी की तरह
समा जाये |

[भगवत रावत की कविताओं के साथ दिये गए चित्र वाल्टर बोज की पेंटिंग्स के हैं |]

Monday, April 2, 2012

प्रोदोश दासगुप्ता के मूर्तिशिल्पों के साथ सुधीर मोता की चार कविताएँ



















|| नायक ||

भीड़ इकटठी होती है

उस मंच से उदित होता है
एक नया नायक

उनींदी आँखों से
देखते हैं वे थके लोग
कंधे पर टाँगे सफ़र की पोटली

सुनते हैं ललकार
जुड़ते हैं जयजयकार में

अचम्भे से देखते हैं
शहर
शहर एक चक्का जाम की शक्ल में
थम जाता है
देश में आने से पहले
सड़कों पर आ चुकी होती है क्रांति
क्रांति के अनुयायी
कुछ दुकानें लूटते हैं

एक बीमार अस्पताल नहीं पहुँच पाता
कुछ की रेल छूटती है
कुछ की नौकरी

इस तरह एक अज्ञात ठग
रातोंरात प्रसिद्ध हो जाता है
पन्नों पर
और परदों पर
छोटे छोटे सपने
उससे बड़े
और बड़े
बड़े से बड़े
इस तरह क्रम से
सपने देखने वालों का
पिरामिड खड़ा होता है

शिखर पर खड़ा वह
नया नायक
मूँछ उमेठता
मुदित होता है |



















|| उलट प्रवाह ||

बिल्कुल तुम दोनों पर गए हैं
तुम्हारे बच्चे

लोग कहते
और हम
सृजक होने के सुख से
सराबोर हो जाते

आँख नाक होंठ
ठोड़ी माथा
इस तरह गोया
सारे चेहरे का मिलान करते

फिर बड़े होते होते
चाल ढाल और आदतों से

आज चकित हूँ
पत्नी की बात पर
कहती है
तुम बिल्कुल बच्चों की तरह
होते जा रहे हो

छोटे वाले की तरह
जल्दी नाराज हो जाते हो
बड़े की तरह
लापरवाह हो गए हो

सिनेमा में
पड़ोस की सीट वाले से
पूछते हो
कितनी देर हो गई शुरू हुए

टीवी पर सास बहू के सीरियल
और समाचार छोड़
अटपटे गाने
या मसखरों की हरकतें देखते हो

मैं ताज्जुब करता हूँ
गुणसूत्रों के रसायन का
यह उलट प्रवाह है
पिता का बच्चों पर जाना

या जीवन की
उत्तर गाथा का शुरू होना है
बचपन का लौट आना |



















|| कौन हैं वे ||

अब तक तो यही पता है
यहीं पर है जीवन
इस पृथ्वी नामक उपग्रह पर

इसी से बना यह तथ्य
कि मृत्यु भी यहीं है
इस पृथ्वी पर

भूकम्प तूफान बवंडर बिजली भूस्खलन के आँकड़े
चन्द्र बुध मंगल शनि या
अन्य किसी ग्रह के संदर्भ में भी होंगे
वैज्ञानिकों के पास
मृत्यु के नहीं
क्योंकि मृत्यु के आँकड़ों के लिए
पहले जीवन का होना बहुत जरूरी है

पहले जरूरी है
जन्म की ख़ुशी के गीत
खेती किसानी उड़ावनी के गीत
प्रेम और उल्लास के गीत
मोह के और
एक दूसरे के प्रति राग का गीत
जैसे जरूरी हैं
बिछोह की कसक के लिए

हममें से जितने लोग
जानते हैं जीवन के बारे में
दुखी होते हैं
सौ हजार लाख या केवल एक मृत्यु में
उन लोगों के अतिरिक्त
जो जानते हैं केवल
मृत्यु के बारे में

जिनके पास मृत्यु के अट्टहास हैं
भय की फसल के बीज हैं
घृणा की शोकान्तिकाएँ हैं

पृथ्वी के बारे में जानते हैं
भूखंडों की कीमत जानते हैं
मृत्यु के थोक बाजार की
नब्ज
अच्छी तरह पहचानते हैं

कैसे मृत्यु विशेषज्ञ
बन गए ये लोग
जीवन के बारे में जाने बगैर

कौन हैं वे लोग
कहाँ के
क्या सचमुच इसी उपग्रह के ?



















|| अभी-अभी ||

उस बक्से में देखा अभी
एक हत्या होते हुए
देखा धूँ धूँ जलता हुआ
एक मकान
जिसके भीतर
प्रेम लाड़ दुलार सत्संग
और मन और देह के
न जाने कितने
रूपक रचे गए होंगे

खाक होते हुए खिलौने
किताबें तस्वीरें ख़त
जिनकी कोई प्रतिकृति
किसी के पास नहीं होगी
जिन्हें कोई बीमा कम्पनी
या सरकार
मुआवजे से नहीं भर सकेगी

इसके बाद नहीं सिहरेगा कोई
ऐसा दृश्य देख कर
जैसे अब नहीं काँपता जी
रेल दुर्घटना दंगे विस्फोट
में लोथड़ा हुई लाशों
की तस्वीरें देख कर

अभी देखा
नारी को पहली बार
इतनी कुटिल
सन्तानों को इतना कृतघ्न
संबंधों को देखा
औद्योगिक उत्पाद की तरह
लादे उतारे जाते

ऐसे दृश्य जब
हाथ पकड़कर बिठा लेते हैं
शून्य मस्तिष्क लिए
आप घंटों बैठे रहते हैं

रुक जाते हैं न जाने कितने
सलोने शब्द
प्रेम कविता बनने से
गज़ल रूठ जाती है
सत्यकथाओं के भार से
कथाएँ दब जाती हैं

अभी-अभी
एक रचना की
भ्रूण हत्या हुई

आपको पता भी
न लगा |

[सुधीर मोता की कविताओं के साथ दिए गए चित्र प्रोदोश दासगुप्ता के मूर्तिशिल्पों के हैं | यह वर्ष प्रोदोश दास गुप्ता का जन्मशताब्दी वर्ष भी है | 1994 में वह यह संसार छोड़ कर न चले गये होते तो इस वर्ष अपना सौंवा जन्मदिन मनाते | उनके काम को देखना अपने समय और अपने संसार की अनुगूँजों को महसूस करना है | 'कलकत्ता ग्रुप' के संस्थापक सदस्य के रूप में प्रोदोश जी ने भारतीय मूर्तिशिल्प को वास्तव में समकालीन पहचान दी है | उनके मूर्तिशिल्प नई दिल्ली में ललित कला अकादमी की दीर्घा में प्रदर्शित हैं, जिन्हें 13 अप्रैल तक देखा जा सकता है |]

Friday, March 23, 2012

आशा गुलाटी की चित्र-रचनाओं के साथ आशमा कौल की चार कविताएँ















|| मौसम ||

मौसम इतना बेवफा
निकला
अंदर आँसू थे
बाहर बादल पिघला

काली घटाओं ने
घेर लिया है मुझको
आज फिर मैंने
पुकारा है तुमको
मौसम .....

शक्ल तेरी जब
हर घटा में बनने
लगती है उसी दम
घटा बिखरने लगती है
न जाने कब,
बेवफाई कर
छोड़ देगा मौसम
हर घटा को
तुम्हारी शक्ल कर देगा
यह किस दम |















|| आगमन करो ||

सूरज की किरणें
और ऊष्मा
जैसे बंद खिड़की के
शीशे से होकर
मुझ तक
आ रही हैं
क्या वैसे ही
मेरे विचारों की
ऊष्मा और गहराई
तुम्हारे मन के
कोनों तक
पहुँच पाएगी

मेरा रोम-रोम
जिस तरह
सजीव हो उठा है
किरणों के आगमन से
क्या तुम्हारा मन भी
स्पंदित होता है
मेरे इन
भावुक शब्दों से

और जैसे ये किरणें
मेरे अंतर्मन को
सहलाती हैं
क्या मेरे विचारों का
दिवाकर
तुम्हारे कोमल ह्रदय को
बहला पायेगा ?

यदि हाँ, तो आज अभी
मन की खिड़की खोलो
इन शाब्दिक
किरणों की ऊर्जा से
ओत-प्रोत होकर
आगमन करो
नव प्रभात !
नव लालिमा का |















|| दुनिया गोल है ||

दुनिया तिकोन नहीं
चौकोर नहीं
गोल है
इज्ज़त से लेकर
कफ़न तक
सब कुछ मिलता
सबका यहाँ मोल है

गरीब से धनी तक
अफसर से बाबू
मंत्री से संतरी तक
का चरित्र
यहाँ डांवाडोल है
दुनिया .....

गरीबी है, बीमारी है
लूट और चोरबाजारी है
आँखों में सबकी
लाचारी है
मिलते हर जगह
सिर्फ बड़े-बड़े बोल हैं
दुनिया ......

झूठ का एक परचम
सच बेमानी है
मर गया शहर में जो
वह आँख का पानी है
खोल रहे जो सब
एक दूसरे की पोल हैं
दुनिया तिकोन ......















|| जीने की चाह ||

मैंने उसे मरते देखा
हर दिन
जीने की चाह में
हर आहट पर
उसका चौंकना
हर किसी को
अपने पास रोकना
उसकी विवशता दिखाता

हर लम्हे को
वह कैद करना चाहता था
बंद मुट्ठी में
हर शब्द को
सजाना चाहता था
दिल की गहराई में

मैं देखती थी
उसका सबसे बतियाना
फिर अचानक
गुम होना तन्हाई में
पर मैं लाचार थी
उसके चंद लम्हात ही
सजा सकती थी

कोसती थी खुदा को
मूकदर्शक बन वह
सब देख रहा था
अगले दिन का आना
उसके बचे पलों का
कम हो जाना

इसी उधेड़-बुन में
समय उड़ गया जैसे
उस दिन सूर्य उगा
ऊष्मा लिए आकाश में
दूसरा सूरज डूब गया
ठंडा होकर अस्पताल में |


[आशमा कौल की कविताओं के साथ दिए गए चित्र आशा गुलाटी के काम के हैं | आशा गुलाटी ने पेपर कोलाज में अप्रतिम काम किया है, जिन्हें वह कई एकल प्रदर्शनियों में प्रदर्शित कर चुकी हैं | रचनात्मक अन्वेषण के साथ, प्रकृति के रहस्य और विस्मय को उन्होंने चमत्कारिक ढंग से रचा है | आशा गुलाटी ने अपनी रचना-यात्रा हालाँकि जलरंगों व तेल रंगों से शुरू की थी, लेकिन कुछ अलग रचने/करने की उनकी उत्सुकता उन्हें पेपर की विविधताओं के पास ले आई | शुरू में उन्हें यह मुश्किल भरा ज़रूर लगा, किंतु चूँकि उन्होंने हार नहीं मानी और मुश्किलों को चुनौती की तरह लिया - सो फिर उनके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं रहा | आज पेपर कोलाज और आशा गुलाटी एक दूसरे के पर्याय के रूप में पहचाने जाते हैं | आशमा कौल के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हैं और वह कई संस्थाओं द्धारा सम्मानित व पुरस्कृत हो चुकीं हैं |]

Wednesday, March 14, 2012

मालविका कपूर की पेंटिंग्स के साथ अशोक वाजपेयी की चार कविताएँ



















|| उम्मीद चुनती है 'शायद' ||

उम्मीद चुनती है अपने लिए एक छोटा-सा शब्द
शायद -

जब लगता है कि आधी रात को
दरवाज़े पर दस्तक देगा वर्दीधारी
किसी न किए गए जुर्म के लिए लेने तलाशी
तब अँधेरे में पालतू बिल्ली की तरह
कोने में दुबकी रहती है उम्मीद
यह सोचते हुए कि बाहर सिर्फ हवा हो
शायद |

फूलों से दबे संदिग्ध देवता के सामने हो रही
कनफोड़ आरती, कीर्तन
और घी-तेल की चीकट गंध में
किसी भुला दिए गए मंत्र की तरह
सुगबुगाती है उम्मीद
कि शायद अधपके नैवेध्य और चिपचिपाती भक्ति के नीचे
बची रह गई हो थोड़ी-सी प्राचीन पवित्रता |

जब लगता है कि भीड़-भाड़ भरी सड़क पर
सामने से बेतहाशा तेज़ आ रहा बेरहम ट्रक
कुचलकर चला जाएगा
उस न-जाने-कहाँ से आ गई बच्ची को
तभी उम्मीद
किसी खूसट बुढ़िया की तरह
न-जाने-कहाँ से झपटकर
उसे उठा ले जाएगी
नियति और दुर्घटना की सजी-धजी दूकानों के सामान को
तितर-बितर करते हुए |

शायद एक शब्द है
जो बचपन में बकौली के नीचे खेलते हुए
अकस्मात झरा था फूल की तरह
शायद एक पत्थर जो खींचकर किसी ने मारा था
परीक्षा में अच्छे नंबर न पाने की उदासी पर
शायद एक खिड़की है जिससे देखा था
धूमिल होती जाती प्रियछवि को
शायद एक अनजली अस्थि है
जिसे मित्रशव को फूँकने के बाद
हम वहीं भूल गए
जहाँ चिता थी
और जिसे आज तक किसी नदी में सिरा नहीं पाए हैं |

उम्मीद ने चुना है
एक छोटा-सा पथहारा शब्द
'शायद |'



















|| वैसी पृथ्वी न हो पाने का दुःख ||

खिड़की के पास चुपचाप खड़ी होकर
देखती है पृथ्वी
कि कैसे बनाती है दूबी
अपनी छोटी-सी मेज़ पर
एक छोटी-सी कापी में
एक और छोटी-सी पृथ्वी |

एटलस से काटकर
कुछ भू-भाग
कुछ हरी दूब और सूखी वनस्पतियाँ
कुछ टुकड़े, पन्नियाँ चमकीली जमाकर
मेरी बेटी
गढ़ती है अपनी एक पृथ्वी
जो धड़कती है
बिना किसी मनुष्य के |

अपने गोलार्धों में
बँटी-फँसी पृथ्वी
कुछ पछतावे से सोचती है
क्यों नहीं बनाया
किसी ने उसे
वैसी ही पृथ्वी ?















|| अगर इतने से ||

अगर इतने से काम चल जाता
तो मैं जाकर बुला लाता देवदूतों को
कम्बल और रोटियाँ बाँटने के लिए |

बैठ जाता पार्क की बेंच पर,
एक अकेले उदास बूढ़े की तरह
होने के कगार पर,
और देखता रहता पतझर
चुपचाप ढाँकते पृथ्वी को |

चला जाता
उस बे-दरो-दीवार के घर में,
जिसे किसी बच्ची ने
खेल-खेल में
अपनी कापी में खींच रखा है |

ले जाता
अपनी गुदड़ी से निकालकर
एक पुरानी साबुत घड़ी का उपहार,
अस्पताल में पड़े बीमार दोस्त के लिए
ताकि वह काल से बचा रह सके |

आत्मा के अँधेरे को
अपने शब्दों की लौ ऊँची कर,
अगर हरा सकता
तो मैं अपने को
रात-भर
एक लालटेन की तरह जला रखता |

अगर इतने से काम चल जाता !














|| कितना बजा है ? ||

कितना बजा है ?
पूछता है सत्रहवीं शताब्दी के अँधेरे में
बुर्ज पर खड़ा एक चौकीदार
अपनी लालटेन की कम होती रोशनी में |
किसी यहूदी कवि की रचनाओं का
अनुवाद करने की कोशिश में बेहाल
भारी फ्रेम के चश्मेवाली लड़की पूछती है
मानो किसी प्राचीन ग्रंथ के
सर्वज्ञ नायक से -
कितना बजा है ?

थककर चूर हुआ दुर्दांत बूढ़ा देवता
जम्हाई लेता हुआ
चीखता है शून्य में -
कितना बजा है ?

कुँजड़िनों के झगड़ों से त्रस्त
और अपनी स्कूली पुस्तकें कहीं न पाने से दुखी
छतों की दुकान के सामने
पैसे न होने के बावजूद ललचाता हुआ एक बच्चा
जानना चाहता है एक मुस्तंड खरीदार से -
कितना बजा है ?

अपने जीवन की धुँध से घिरा
बचपन के मुबहम होते जाते चेहरों को
खोने के पहले याद करता हुआ
रक्त के मौन में कहीं
दूर से आ रही पुकार सुनता हुआ
मैं इसी अधबनी कविता से पूछता हूँ -
कितना बजा है ?

[लखनऊ स्थित ललित कला अकादमी के रीजनल सेंटर में कार्यरत मालविका कपूर ने बनारस हिंदु विश्वविद्यालय से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है | कई समूह प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स प्रदर्शित कर चुकीं मालविका उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी से पुरस्कृत हैं तथा अभी हाल ही में मुंबई की जहाँगीर ऑर्ट गैलरी में उनकी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी आयोजित हुई है | उनकी पेंटिंग्स में दिखती रंगाभिव्यक्ति में जीवनानुभवों की उस सूक्ष्मता को महसूस किया जा सकता है जो वैचारिक सरलीकरण के बीच गुम से हो गए हैं | उनकी पेंटिंग्स के साथ प्रस्तुत कविताओं के रचयिता अशोक वाजपेयी समकालीन हिंदी कविता के क्षेत्र में अपना एक अलग स्थान रखते हैं |]