Sunday, April 22, 2012

हरिओम राजोरिया की कविताओं के साथ अरिंदम चटर्जी की पेंटिंग्स


|| थाने के सामने जिनके घर हैं ||

चलती सड़क के सामने होगा
तो पड़ेगा दिनचर्या में खलल
नींद का थोड़ा नफ़ा है
अगर किसी निर्जन में है तुम्हारा घर
तंग बस्तियों में घुटन हो सकती है
बाज़ार में रहने के ज़रूर कुछ लाभ हैं
हर जगह अपने तरह की है
हर जगह रहने के कुछ नुकसान फायदे हैं
पर क़िस्मत वाले हो तुम
थाने के सामने नहीं है तुम्हारा घर |

जो रहते हैं थाने के सामने
हो जाते हैं थाने से विरक्त
रात में किसी की चीख़ सुनकर
झट नहीं खोल पाते खिड़की
उनका इतना भर वास्ता होता है थाने से
कि उनके पते में थाने का जिक्र होता है |

ऐसा भी होता है कभी-कभी
वे गुजरें थाने के सामने से
और कर बैठें थाने को प्रणाम
बाद में भले हँसे भीतर ही भीतर
कि वे भूल गए थाने और मंदिर का फ़र्क
पर जब झुक रहे होते हैं भगवन के आगे
तब माँग रहे होते हैं दुआ -
"हे ईश्वर !
दूर रखना थाने के दरवाज़े से |"

जो रहते हैं थाने के सामने
उनके किसी न किसी हिस्से में
थोड़ा बहुत बचा ही रहता है थाना
तमाचों की गूँजें
घुड़कियाँ, गालियाँ और सलूटें
अँधकार में दमकते थाने का सन्नाटा
रात-विरात सन्नाटे को चीरता सायरन |

थाने के सामने जिनके घर हैं
वे रहते हैं इस दंभ से पीड़ित
कि वे हैं थाने के सामने
इसलिए नहीं है थाने के चंगुल में
सज्जनता डरपोक बनाती है उन्हें
सभ्य नागरिक होने की वजह से
हरदम करना पड़ता है उन्हें
इस यातनाघर का समर्थन

थाने के सामने रहने वाले लोग
इस हद तक गिर जाते हैं कभी-कभी
कि खो देते हैं मनुष्य होने की गरिमा
मौका आने पर इतना भी नहीं कर पाते
कि थाने के बाहर
सिर पीट-पीट कर बिलखतीं
उन स्त्रियों को पानी ही पिला दें
जिनके निरपराध पिता, पति, भाई या बेटे
पिट रहे होते हैं थाने के भीतर |




















|| अभिनेता ||

मैं एक ऐसे अभिनेता को जानता हूँ
जो स्टेशन पर उतरते ही
चलने लगता है मेरे साथ-साथ
बार-बार लपकता सामान की ओर
पूछता हुआ - "कहाँ जाना है भाई साहब ?
चलो रिक्शे में छोड़ देता हूँ |"
उम्मीद की डोर से बंधा
अपनी घृणा को छुपाता हुआ
वह काफी दूर चलता है मेरे पीछे-पीछे |

भर दोपहर में
जब सब दुबके रहते हैं अपने-अपने घरों में
उस बूढ़े अभिनेता का क्या कहना 
बहुत दूर सड़क से
सुनाई पड़ती है उसकी डूबी आवाज़
जो बच्चों के लिए कुल्फी का गीत गाता है

एक लड़का मिलता है टाकीज के पास
रास्ता चलते पकड़ लेता है हाथ
मैं भयभीत होता हूँ इस महान अभिनेता से
मैं डरता हूँ उसकी जलेबियों से
वह ज़िद के साथ कुछ खिलाना चाहता है मुझे
मेरे इन्कार करने पर कहता है -
"समोसे गरम हैं
कहो तो बच्चों के लिए बांध दूँ |"

एक अभिनेता ऐसा है शहर में
जो कपड़ा दुकान के अहाते में
बैठा रहता है कुर्सी लगाये
हर आते-जाते को नमस्कार करता
दिन भर मुस्कुराता ही रहता है
और महीना भर में
सात सौ रुपया पगार पाता है

गली, मोहल्लों, हाट, बाज़ार और सड़कों पर
हर कहीं टकरा ही जाते हैं ऐसे अभिनेता
पेट छुपाते हुए अपनी-अपनी भूमिकाओं में संलग्न
वे जीवन से सीखकर आये हैं अभिनय
जरूरतों ने ही बनाया है उन्हें अभिनेता
ऐसा भी हो सकता है अपने पिता की ऊँगली पकड़
वे चले आये हों अभिनय की इस दुनिया में
पर उनका कहीं नाम नहीं
रोटी के सिवाय कोई सपना नहीं उनके पास
जीवन उनके लिए बड़ा कठिन |

हाँ, ऐसे कुछ लोग भी हैं इस समाज में
जो इन अभिनताओं की नकल करते हैं
और बन जाते हैं सचमुच के अभिनेता

[हरिओम राजोरिया की कविताओं के साथ दिये गए चित्र अरिंदम चटर्जी की पेंटिग्स के हैं |]

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