Saturday, April 14, 2012

विष्णु खरे की दो कविताओं के साथ शुवप्रसन्ना की पेंटिंग्स



















|| मौसम ||

शब्दों का भी एक मौसम होता है
कपड़ों की तरह
तुम चाहो तो एक ही शब्द
बार-बार पहन सकते हो
शायद एक ही शब्द
तुम्हें अच्छा लगता हो
अपनी स्थिरता में
बच्चे को बढ़ने से रोकने की इच्छा करती हुई माँ की तरह
किंतु हम एक ही आदमी को
एक ही जैसा देखने के आदी नहीं होना चाहते
चाहते हैं
उससे अगली दफा मिलने पर
अपना और चीज़ों का पुरानापन याद आये
या हम कह सकें
कि अब वह पहले सा नहीं रहा या
हम चकित हों
उसके अचानक पीठ पर हाथ रख मुस्कराने
और हमारे उसे पहचान लेने के क्षण के बीच
अनिश्चय की असुविधा में
शब्द खोजते हुए

तुम चाहो तो
एक ही शब्द उलट-पलट कर पहन सकते हो
या उसी मौसम में -
बिस्तर पर जाने के पहले उनकी घटनाहीन जीवनी में
उनकी पत्नियों के लिए एक उल्लेखनीय वारदात बनते हुए -
कोई दूसरे शब्द -
जैसे शीशे के पीछे औरत
दिसंबर में भी सिर्फ ब्रा पहने होती है -
तुम्हारी असामान्य पसंद से चौकते हुए वे आसपास देखेंगे
उन्हें भी मौसम का अहसास नहीं होता
किंतु प्रतिदिन की असामान्यता
रंगीन मछलीघर की तरह
उनकी एक और आदत हो जाएगी
और फिर हालाँकि तुम रोज़ नये शब्द पहने हुए
उनके सामने से गुज़रोगे
या खीझ-भरे एकाध दिन
कुछ भी नहीं पहने हुए भी सड़क पर निकल आओगे
तब भी वे पुराने पोस्टरों पर या छतों पर लटकते
फीके कपड़ों पर
या किसी रुकी हुई नाली पर आँखे गड़ाए हुए बढ़ जाएँगे
जब तक कि तुम
शब्दों को अपने नियत मौसम में पहनकर
उनमें
एक धुँधली आश्चर्यान्वित पहचान न जगाओ



















|| लौटना ||

हम क्यों लौटना चाहते हैं
स्मृतियों, जगहों और ऋतुओं में
जानते हुए कि लौटना एक ग़लत शब्द है -
जब हम लौटते हैं तो न हम वही होते हैं
और न रास्ते और वृक्ष और सूर्यास्त -
सब कुछ बदला हुआ होता है और चीज़ों का बदला हुआ होना
हमारी अँगुलियों पर अदृश्य शो-विन्डो के काँच-सा लगता है
और उस ओर रखे हुए स्वप्नों को छूना
एक मृगतृष्णा है

अनुभवों, स्पर्शों और बसंत में लौटना
कितना हास्यास्पद है - फिर भी हर शख्स कहीं न कहीं लौटता है
और लौटना एक यंत्रणा है
चेहरों और वस्तुओं पर पपड़ियाँ और एक त्रासद युग की खरोंच
देखकर अपनी सामूहिक पराजयों का स्मरण करते हुए
आइने के व्योमहीन आकाश में
एक चिड़िया लहूलुहान कोशिश करती है उस ओर के लिए
और एक गैर-रूमानी समय में
हम सब लौटते हैं अपने-अपने प्रतिबिंबित एकांत में
वह प्राप्त करने के लिए
जो पहले भी वहाँ कहीं नहीं था

[विष्णु खरे जी की कविताओं के साथ दिये गए चित्र प्रख्यात चित्रकार शुवप्रसन्ना जी की पेंटिंग्स के हैं |]

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