Sunday, November 21, 2010

अरुण आदित्य की कविताएँ



















|| कालीन ||

घर में अगर यह हो तो
बहुत सारी गंदगी छुप जाती है इसके नीचे
आने वाले को दिखती है
सिर्फ आपकी संपन्नता और सुरुचि
इस तरह बहुत कुछ दिखाने
और उससे ज्यादा छिपाने के काम आता है कालीन

आम राय है कि कालीन बनता है ऊन से
पर जहीर अंसारी कहते हैं, ऊन से नहीं जनाब, खून से

ऊन दिखता है
चर्चा होती है, उसके रंग की
बुनाई के ढंग की
पर उपेक्षित रह जाता है खून
बूंद-बूंद टपकता
अपना रंग खोता, काला होता चुपचाप

आपकी सुरुचि और संपन्नता के बीच
इस तरह खून का आ टपकना
आपको अच्छा तो नहीं लगेगा
पर क्या करूँ, सचमुच वह खून ही था
जो कबीर, अबीर, भल्लू और मल्लू की अंगुलियों से
टपका था बार-बार
इस खूबसूरत कालीन को बुनते हुए

पछताइए मत
आप अकेले नहीं हैं
सुरुचि संपन्नता के इस खेल में
साक्षरता अभियान के मुखिया के घर में भी
दीवार पर टंगा है एक खूबसूरत कालीन
जिसमें लूम के सामने खड़ा है एक बच्चा
और तस्वीर के ऊपर लिखा है -
मुझे पढ़ने दो - मुझे बढ़ने दो

वैष्णव कवि और क्रांति- कामी आलोचक के
घरों में भी बिछे हैं खूबसूरत कालीन
जिनसे झलकता है उनका सौंदर्य बोध

कवि को मोहित करते हैं
कालीन में कढ़े हुए फूल पत्ते
जिनमें तलाशता है वह वानस्पतिक गंध
और मानुष गंध की तलाश करता हुआ आलोचक
उतरता है कुछ और गहरे
और उछालता है एक वक्तव्यनुमा सवाल -
जिस समय बुना जा रहा था यह कालीन
घायल हाथ, कुछ सपने भी बुन रहे थे साथ-साथ
कालीन तो पूरा हो गया
पर सपने जहाँ के तहाँ हैं
ऊन - खून और खंडित सपनों के बीच
हम कहां हैं ?

आलोचक खुश होता है
कि उत्तर से दक्षिण तक
दक्षिण से वाम तक
वाम से अवाम तक
गूँज रहा है उसका सवाल
अब तो नहीं होना चाहिए
कबीर, अबीर, भल्लू और मल्लू को कोई मलाल |















|| विनय-पत्र ||

सूर्य !
तुम उन्हें भी देते हो उतना ही प्रकाश
जबकि वे तो तुम्हें देवता नहीं मानते

इंद्र !
तुम उनके हिस्से में भी देते हो
हमारे ही बराबर बारिश
जबकि सिर्फ हम ही
मानते हैं तुम्हें देवराज

शिव !
तुम्हारा तीसरा नेत्र भी
फ़र्क नहीं करता हममें और उनमें
जबकि भंग, धतूर और बेलपत्र
तो हमीं चढ़ाते हैं तुम्हें

और राम जी !
तुम भी बिना सोचे समझे ही
कर देते हो सबका बेड़ा पार
कुछ तो सोचो यार
आख़िर तुम्हारे लिए ही तो
लड़ रहे हैं हम

आदरणीय देवताओं !
वे नहीं हैं तुम्हारी अनुकम्पा के हकदार
यही विनती है बारंबार
कि छोड़ दो ये छद्म धर्मनिरपेक्षता
छोड़ दो, छोड़ दो, छोड़ दो

छोड़ दो, वरना......
तय है तुम्हारा मरना |



















|| अन्वर्थ ||

चित्र बना रही है वह
या चित्र बना रहा है उसे

अभी-अभी भरा है उसने
एक पत्ती में हरा रंग
और एक हरा-भरा उपवन
लहलहाने लगा है उसके मन में

एक तितली के पंख में
भरा है उसने चटख पीला रंग
और पीले फूलों वाली स्वप्न- उपत्यका में
उड़ने लगी है वह स्वयं
उसे उड़ते देख खिल उठा है कैनवास

अब वह भर रही है आसमान में नीला रंग
और कुछ नीले धब्बे
उभर आए हैं उसकी स्मृति में

अब जबकि भरने जा रही है वह
बादल में पानी का रंग
आप समझ सकते हैं
कि उसकी आंखों को देख
सहम-सा क्यों गया है कैनवास




















|| यही दो सच ||

कई बार सांप को रस्सी समझा है
और रस्सी को सांप
आधी रात में जब भी अचकचा पर टूटी है नींद
अक्सर हुआ है सुबह होने का भ्रम

कई सुहानी सुबहों को रात समझकर
सोते और खोते रहे हैं हम

जो नहीं मिला, उसे पाने की टोह में
बार-बार भटके समझौतों के नार-खोह में
गलत-सही मोड़ों पर कितनी ही बार मुड़े
कितनी ही बार उड़े माया के व्योम में

पर हर ऊंचाई और नीचाई से
मुझे दिखती रही है भूखे आदमी की भूख
और अपने भीतर बैठे झूठे का झूठ
भूख और झूठ दो ऐसे सच हैं
जो बार-बार खींच लाते हैं मुझे अपनी जमीन पर |

[अरुण आदित्य की यहाँ प्रकाशित कविताओं के साथ दिये गए चित्र युवा चित्रकार तिरुपति अन्वेश के काम के हैं | ]

10 comments:

  1. अच्छा लिखते हो दोस्त ....हार्दिक शुभकामनायें !

    PS: वर्ड वेरिफिकेशन को हटा दें, इसका कोई उपयोग नहीं

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  2. vaah...sabhi kavitaaen achchi hain lekin ye panktiyaan behad khaas...

    सचमुच वह खून ही था
    जो कबीर, अबीर, भल्लू और मल्लू की अंगुलियों से
    टपका था बार-बार
    इस खूबसूरत कालीन को बुनते हुए
    aur
    अब जबकि भरने जा रही है वह
    बादल में पानी का रंग
    आप समझ सकते हैं
    कि उसकी आंखों को देख
    सहम-सा क्यों गया है कैनवास

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  3. bahut hi khoobsurat kavitain padhne ka awsar diya hai arun ji aapne, yakeenan khoobsurat. abhi tou isse adhik kuchh kah paane ki manh sthiti me nahi ja pa raha hu, bass abhibhoot hu aur usse bahar nikalna bhi nahi chahta abhi. kaleen ki khoobsurati me dikhayi de gaye dhero drishay ubhar rahe hain-
    पछताइए मत
    आप अकेले नहीं हैं
    सुरुचि संपन्नता के इस खेल में
    साक्षरता अभियान के मुखिया के घर में भी
    दीवार पर टंगा है एक खूबसूरत कालीन
    जिसमें लूम के सामने खड़ा है एक बच्चा
    और तस्वीर के ऊपर लिखा है -
    मुझे पढ़ने दो - मुझे बढ़ने दो

    घर में अगर हो तो
    बहुत सारी गंदगी छुप जाती है नीचे
    आने वाले को दिखती है
    सिर्फ संपन्नता और सुरुचि

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  4. गहरी संवेदना लिए भावपूर्ण कविता या यूं कहें नंगी सच्चाई। खास यह कि कालीन सबकुछ छुपाता है। जी सर जी मेरे घरों मे भी होते है इस तरह के कालीन पर आलोचकों के खुश होने भर का सवाल करारा है।

    विनय पत्र के माध्यम से धर्मिक कट्टरता पर प्रहार करारा है।

    और सरजी अपनी जमीन पर बने रहने का यही दो सच संवेदनशील लोगों के लिए सच है बाकि तो इसे भूल ही गए है।


    बहुत सार्थक कविताऐं। आशा है आगे भी पढ़ने को मिलेगी। साधूवाद।

    कृप्या कॉमेंट सेटिंग में जाकर वर्ड वेरिफिकेशन को समाप्त कर दें ताकि कॉमेेंट देने वालों को परेशानी न हो।

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  5. अब वह भर रही है आसमान में नीला रंग
    और कुछ नीले धब्बे
    उभर आए हैं उसकी स्मृति में

    __________________________________


    बेहतरीन कविताएँ

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  6. कालीन और विनय पत्र बहुत प्रेरक . सार्थक. सच्चा लेखन. अरुण भाई, बधाई और थेंक्स !

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  7. पहली बार समय संकल्प ब्लॉग पर आया। अरूण आदित्य की कविताओं की गहरी संवेदना और उनकी अर्थ-व्याप्ति ने भीतर तक प्रभावित किया।
    -सुभाष नीरव

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  8. सुंदर प्रस्तुति भावपूर्ण कविता..
    कभी समय मिले तो http://shiva12877.blogspot.com ब्लॉग पर भी अपने एक नज़र डालें .फोलोवर बनकर उत्सावर्धन करें .. धन्यवाद .

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  9. ऊन दिखता है
    चर्चा होती है, उसके रंग की
    बुनाई के ढंग की
    पर उपेक्षित रह जाता है खून
    बूंद-बूंद टपकता
    अपना रंग खोता, काला होता चुपचाप-
    आपकी चारों कविताओं में से कई उद्धरण यहाँ प्रस्तुत किये जा सकते हैं. जब आपकी रचनाएँ पढ़ रहा था तो मन की विचित्र स्थिति थी- कौन सी पंक्तियाँ यहाँ रखूँ ... सभी तो लाजवाब हैं. ऊन और खून की गाथा जीवन के उस यथार्थ को प्रस्तुत करती है, जो आज हर जगह दिखाई देती है. और यह कडुआ सच भी है कि बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपने आप को होम कर देते हैं, फिर भी उपेक्षित ही रहते हैं आज के समाज में . बधाई स्वीकारें

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  10. अरुन जी बहुत मर्म स्पर्सी कविताए है
    बधाई

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