Monday, October 25, 2010

विद्यापति के पद














|| एक ||

नन्दक नन्दन कदम्बेरी तरु तरे घिरे घिरे मुरली बजाव |
समय संकेत निकेतन बइसल बेरि बेरि बोलि पठाव ||
सामरि,
तोरा लागि अनुखने विकल मुरारि
जमुनाक तीर उपवन उदबेगलफिरि फिरि ततहि निहारी |
गोरस विकेनिके अबइते जाइते जनि जनि पुछ बनवारि ||
तोहे मतिमान सुमति मधुसूदन वचन सुनह किछु मोरा |
भनइ विद्यापति सुन वरजुवति बन्दह नन्दकिशोरा ||



















|| दो ||

माधव करिअ समधाने |
तुअ अभिसार कएल जत सुन्दरी कामिनी करए के आने ||
बरिस पयोधर धरनि वारि भर रयनि महामय भीमा |
तइअओ चललि थनि तुअ गुन मने गुनि तसु साहस नहि सीमा ||
देखि भवन भिति लिखल भुजगपति जसु मने परम तरासे |
से सुवदनि करे झपइते फनि मनि विहुसि आइलि तुअ पासे ||
निअ पहु परिहरि सँतरि विखम नरि अँगिरि महाकुल गारि |
तुअ अनुराग मधुर मद मातलि किछु न गुनल वरनारी ||
इ रस रसिक विनोदक विन्दक सुकवि विद्यापति गावे |
काम पेम दुहु एक मत भए भर रहू कखने की न कराबे ||















|| तीन ||

माधव कि कहब सुन्दरि रूपे |
कतेक जतन विहि आनि समारल देखलि नयन सरूपे ||
पल्लवराज चरण-युग शोभित गति गजराजक माने |
कनक-कदलि पर सिंह समारल तापर मेरु समनि ||
मेरु उपर दुइ कमल फुलायल नाल बिना रुचि पाई |
मनिमय हार धार बह सुरसरि तें नहि कमल सुखाई ||
अधर-बिम्ब सन दसन दाड़िम-विजु रविससि उगथिक पासे |
राहु दूरि बसु नियरो न आवथि तैं नहि करथि गरासे ||
सारंग नयन बचन पुन सारंग सारंग तसु समधाने |
सारंग उपर उगल दस सारंग केलि करथि मधुपाने ||
भनइ विद्यापति सुन वर यौवति एहन जगत नहिं जाने |
राजा सिवसिंघ रुपनरायन लखिमादइ प्रति भाने ||















|| चार ||

माधव, कत तोर करब बड़ाई |
उपमा तोहर कहब ककरा हम, कहितहुं अधिक लजाई ||
जून श्रीखंड-सौरभ अति दुरलभ, तौं पुनि काठ कठोर |
जौं जगदीस निसाकर, तौं पुन एकहि पच्छ उजोर ||
मनि-समान औरौं नहि दोसर, तनिकर पाथर नामे |
कनक-कदलि छोट लज्जित भए रह, की कहु ठाम-हि-ठामे ||
तोहर-सरिस एक तोहँ माधव, मन होइछ अनुमान |
सज्जन जन सों नेह कठिन थिक, कवि विद्यापति भान ||



















|| पाँच ||

कानु हेरब छल मन बड़ साध | कानु हेरइत भेल एत परमाद ||
तबधरि अबुधि मुगुधि हम नारि | कि कहि कि सुनि किछु बुझए न पारि ||
साओन-धन सम झरू दु नयान | अविरत घस घस करए परान ||
की लागि सजी दरसन भेल | रभसे अपन जिउ पर हथ देल ||
ना जानु किए करू मोहनचोर | हेरइत प्राण हरि लई गेल मोर ||
अत सब आदर गेओ दरसाइ| जत विसरिए तत बिसर न जाइ ||
विद्यापति कह सुन बरनारि | धैरज धर चित मिलब मुरारि ||
















|| छह ||

माधव, बहुत मिनति कर तोय |
दए तुलसी-मिल देह समर्पिनु, दय जनि छडिब मोय ||
गनइत दोसर गुन लेस न पाओबि, जब तुहुँ करबि विचार |
तुहू जगत जगनाथ कहाओसि, जग बाहिर नइ छार ||
किए मानुस पसु पखि भए जनमिए अथवा कीट-पतंग |
करम- बिपाक गतागत पुनु- पुनु, मति रहु तुअ परसंग ||
भनइ विद्यापति अतिसय कातर तरइत इह भव-सिंधु |
तुअ पद-पल्लव करि अवलंबन तिल एक देह दिनबंधु ||

[ मैथिली के महानतम कवि विद्यापति ( 1350 - 1460 ) की पहचान भारतीय साहित्य के श्रेष्ठतम सर्जकों में है | वे संस्कृत, अबहत्य (अपभ्रंश) तथा मैथिली के विद्वान् थे, और उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी | जिस समय संस्कृत समस्त आर्यावर्त की सांस्कृतिक भाषा के तौर पर स्वीकृत थी, उस समय उन्होंने अपनी क्षेत्रीय बोली को अपने मधुर व मोहक काव्य का माध्यम बनाया एवं साहित्यिक भाषा के अनुरूप उसमें अभिव्यक्तिकरण का सामर्थ्य भर दिया | विद्यापति क़रीब 800 वैष्णव व शैव पदों के लिये सुविख्यात हैं, जिन्हें विभिन्न ताड़-पत्र पांडुलिपियों में से बचा लिया गया है | विद्यापति के यहाँ प्रस्तुत पदों के साथ दिए गए चित्र श्वेता झा की पेंटिंग्स के हैं | सिंगापुर में रह रहीं श्वेता मिथिला की गौरवशाली प्राचीन संस्कृति व कला-परंपरा को संरक्षित करने तथा बढ़ावा देने के साथ-साथ सृजन की निरंतरता को बनाए रखने के उद्देश्य से निजी तौर पर भी सक्रिय हैं | वह सिंगापुर में अपने चित्रों की प्रदर्शनी भी कर चुकी हैं; कला प्रेक्षकों व कला मर्मज्ञों के बीच उनके चित्रों को व्यापक रूप से सराहना और पहचान मिली है | ]

Wednesday, October 20, 2010

राग तेलंग की कविताएँ



















|| आखिरी बार ||

जानता हूँ
आखिरी बार
मिला है यह
मनुष्य का जन्म

आखिरी बार
मिले हैं
इस जन्म में दोस्त

आखिरी बार के लिए हैं
ये आपसी संबंध

आखिरी बार हो रहा है
यह सब कुछ
पहली बार का

आखिरी बार
मुस्कुराना है यह

आखिरी बार
एकदम अचानक एक दिन
रूठ गई थी मेरी माँ

आखिरी बार
रहना है इस घर में

आखिरी बार
लिखना है यह सब कविता में

हमेशा के लिए
कुछ भी नहीं यहाँ
सब है आखिरी बार के लिए

इस सब आखिरी बार को
सहेजना होगा
बाँध के पक्का रखना होगा साथ
जब तक भी है

जीने के हर पल के लिए
काम आएँगी
आखिरी बार की बातें |



















|| चाहता तो ||

अँधेरा था उन स्थानों पर
जहाँ प्यार से देखने भर से
पहुँच सकती थी उम्मीद
कोई रोशनी बनकर

अँधेरा वहाँ कई शक्लों में था
इसलिए पहुँचना जरुरी था
उसमें से दिखती
कोई पुकार पर किसी को

मैं चाहता था मुझसे पहले
वहाँ मेरी आवाज़ पहुँचे और लगे
दौड़ती आती हुई

अँधेरा गहरा था पाताल जैसा
जहाँ धरती के
कई लोगों की मुस्कुराहट
इकट्ठा बंद होकर
भय के अनेक दु:स्वप्नों से
लिपटी बैठी थी
घुटनों को थामे

चाहता तो कोई और भी
सर्वाधिक प्रसन्न
देख सकता था यह सब

मगर जब छूट भी यहाँ
यह सब नज़र अंदाज कर देने की
तो देखता क्यों कोई रूककर
जाते हुए तेजी में
रोशनी से रोशनी की तरफ |



















|| तुम ही बताओ ||

ज़िंदगी की खुरदुरी सतह पर चल रहा हूँ और
अपनी शक्ल को
चिकना होते देखना चाहता हूँ
मैं भी कितना अजीब हूँ

हवा को हाथ में थामना चाहता हूँ
ये जानते हुए भी कि
पतंग उड़ाते हुए
मेरे हाथ में ही है डोर
अजीब है यह सब

ये देखते हुए कि मैं
अपने ही साए का पीछा करते हुए
पहुँचता हूँ आखीर में वहाँ
जहाँ कोई नहीं होता
मैं भी नहीं एक तरह से
पीछा करता हूँ खुद का आज भी

कोई भी रात
नहीं होती इतनी लंबी कि
सुबह का इंतज़ार
इंतज़ार ही बना रहे
यह जानते हुए भी
सशंकित सा
करता रहता हूँ काम दिन भर

इतने अँदर अपने कि
डूब जाएँ तो थाह भी न मिले
मेरी प्यास है कितनी गहरी
सात समुंदरों से भी ज्यादा
कहना चाहता हूँ सूखे गले से
पर कह नहीं पाता

मैं भी कितना अजीब हूँ
बाईं तरफ झुकना चाहता हूँ पर
ये सोचकर नहीं झुकता कि
घूमती हुई धरती का संतुलन
कहीं गड़बड़ा न जाए

मेरा झुकना व्यर्थ नहीं जाएगा ये जानता हूँ मैं
सही है उस दिशा में झुकना ये समझते हुए
मैं अपनी जगह कायम हूँ अब तक
मैं भी कितना अजीब हूँ

जानता हूँ
हूँ मैं अपनी ही गिरफ्त में
जाने कब से जकड़े हुए ख़ुद को
ख़ुद के ख़िलाफ
करता नहीं वक्त पर आज़ाद
अपने भीतर के परिंदे को
और चाहता हूँ
हो वैसा मेरे साथ
जैसा मैं चाहता हूँ |















|| एक दिन ऐसा होगा कि ||

ऊपर वाले को छोड़कर
और किसी को पता नहीं होगा और
हम चले जाएँगे एक दिन बिना बताए अचानक

जिन-जिनको होगा अफसोस
हमारे ऐसे चले जाने का
उनकी यादों में आएँगे हम ठीक वैसे ही बिना बताए

जो रो रहे होंगे उनको
दिलासा देने आएँगे हमारे जैसे हाथ
हालाँकि हमारी जगह भरी नहीं जाएगी हमारे जाने के बाद
फिर भी धीरे-धीरे वक्त भर देगा
हमारे जाने से पैदा हुआ खालीपन

हम चाहेंगे जिनसे किए हुए वादे हमें निभाने थे
वे उतने ही पूरे माने जाएँ
कुछ अधूरे काम जो हम छोड़ जाएँगे
उन्हें पूरा करेंगे हमारे अपने

हमारे सूखते हुए कपड़े
जब आखिरी बार रस्सी से उतारे जाएँगे
तब हम तुम्हारी स्मृतियों में भी झूल रहे होंगे याद रखना

हमारे बाद हमारे साथ गुज़ारे वक्त का जायजा
जिस पल तुम ले रहे होगे
तुम्हारी आँखों की कोर में उस वक्त नमी तैर रही होगी

चाँद से झाँकेंगे हम देखना
धरती की तरफ
इस दुआ के साथ कि
बची रहे जीवन की उम्मीद
हमेशा के लिए
आते रहें नन्हे मेहमान तय समय पर और
जाते रहें लोग हमारी तरह बिना बताए |














|| परिन्दे ||

हवा में उड़ते हुए
परिंदों का दम भी फूलता है
ठीक वैसे ही जैसे
पानी में डूबने से
कई बार बचते हैं तैराक

सड़क पर
हमारा कोई एक सफर
कितनी ही बार
होते-होते बचता है आखिरी
ऐसे कई वाकयों से भरा होता है
ऊपर का आसमान

लेकिन
हौसला सिर्फ हमारे पास ही नहीं
पंछियों के पास भी होता है

उनकी आँखें
हमसे बेहतर पहचान रखती हैं
शिकारी निगाहों की
इस हुनर के बगैर
बेमतलब होता है
बेहद ताकतवर पंखों का होना

खतरे कैसे भी हों
हवा में
उनकी मौजूदगी जानते हुए भी
बेखौफ उड़ान भरते रहते हैं परिंदे
एक ऐसा भी होता है हिम्मत का चेहरा

सात समंदरों से भी बड़े और
चौतरफा फैले इस बियाबान आसमान में
देखने में
बेहद अकेले दिखाई देते हैं परिंदे

मगर शायद ऐसा होता नहीं है
और तो और
हमारी इस फिक्र की
परवाह भी तो नहीं करते परिंदे |

[ प्रतिष्ठित 'रज़ा पुरस्कार' से सम्मानित राग तेलंग के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हैं तथा उनकी कविताएँ देश की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं | उनका नया संग्रह भी तैयार है | प्रख्यात लेखक उदय प्रकाश ने उनके एक कविता संग्रह के फ्लैप पर उनकी कविताओं का संक्षिप्त आकलन करते हुए उनकी कविताओं को 'हमारे समय की जरूरी और अर्थवान कविताओं' के रूप में रेखांकित किया है | राग तेलंग की यहाँ प्रकाशित कविताओं के साथ लगे चित्र समकालीन कला जगत में तेजी से अपनी पहचान बना रहे युवा चित्रकार सुरेश कुमार की पेंटिंग्स के हैं | ]

Saturday, October 16, 2010

सुन्दर चन्द ठाकुर की कविताएँ















|| जो नहीं देखा ||

हरियाली को हमने दूर से देखा हरियाली की तरह
और हमें अच्छा लगा
हमारा हरा हरे से ज़्यादा कुछ न था फ़क़त एक रंग
न पानी न बादल न छाया
घूल की परतें और शहर का धुआं था उस पर
उसमें था एक पेड़
उसे भी हमने पेड़ की तरह देखा
यानी कुछ पत्तियाँ देखीं हरी
और उनके झुरमुट से सुनी दो-चार चिड़ियों की आवाज़
इतने में ही ख़ुश हुए हम
उसकी नर्म छाल को नहीं छुआ
हवा में झूमती थीं पतली टहनियां
उसके बदन पर जहाँ-तहाँ उग आये अँखुओं में
भूरे रंग की झाँकती नन्ही सुबह नहीं देखी

नदी को दूर से देखा अच्छा लगा
पहाड़ को दूर से देखा अच्छा लगा
देखा एक प्रेमी युगल को एकाकी समुद्रतट पर
शाम को नारंगी धुँधले में साथ-साथ चलते हुए
दूर तक पैरों के निशान देखे
पानी में उतरते जहाज़ पर लोग हाथ हिलाते जाते थे
लाल रंग के विशाल एक सूरज के बरक्स
हमने मस्तूलों को ओझल होते देखा

हमारी कल्पना में थे कई ख़ुशनुमा दृश्य
पहाड़ों समुद्रों और मरुस्थलों के पार एक जीवन था
मुखौटे नहीं थे वहां किसी के पास
खुले हुए मैदानों पर बारिश गिरती थी
बच्चे पानी में भीगते थे तरबतर
इच्छाओं का एक दरिया देखा
ज़रा से ताप में वाष्पीभूत होता हुआ |















|| भूगोल ||

भूगोल जब नहीं था दुनिया में
तब घटनाएँ थीं जादू जैसी
चीज़ों को अंतरिक्ष में उड़ाती गोल-गोल घूमती थी हवा
कई घुड़सवार भी इस दिव्य घेरे में ऊपर उठते देखे गए
ज़मीन की अतल गहराइयों में जहाँ पाताललोक था
उससे भी बहुत नीचे शेषनाग ने फन पर सँभाली हुई थी पृथ्वी
वह थकता था तो काँपती थी ज़मीन भूकम्प आते थे
तलहटियों पर बसे ग्रामीण अपने पापों से डरते
सोचते थे उन्हें सज़ा देने ही लावा उगलता फूटता था पहाड़

वे इंद्र देवता के अच्छे दिन थे उनका रुतबा था
बारिश के लिए तब होते थे अनुष्ठान

भूगोल जब नहीं था तब समुद्र अनन्त हुआ करते थे
अनन्त से उठकर आती थीं लहरें
मरुस्थलों के पार कुछ न था
वे भी समुद्रों की तरह अनन्त थे रेत की लहरें अनन्त तक दौड़ती थीं

भूगोल आया तो मानसूनी हवाएँ आयीं चक्रवात आये
बारिशों का मौसम तय हुआ
वह बर्फ़ीले प्रदेशों के एस्कीमो का अनोखा जीवन लाया
एक टापुओं, प्रायदीपों, पठारों, घास के मैदानों
और सदाबहार जंगलों की अनजानी दुनिया
भूगोल अपने झोले से निकाल सामने फैलाता गया

भूगोल आया पृथ्वी पर अक्षांशों और देशान्तरों का जाल बिछाता
समय को भूखंडों में विभाजित करता
पर्वतों-शिखरों की ऊँचाई नदियों की लम्बाई नापता
उसने ऋतुओं का सबसे पुराना तिलिस्म तोड़ा
अनजाने प्रदेशों की जातियों का पिटारा खोला
नदियों, पहाड़ों, समुद्रों का परिचय देता
दीपों, ध्रुवों, धाराओं को साथ लेता
बच्चों का कौतूहल बढ़ाता पृथ्वी को पारदर्शी बनाता
घटनाओं और दृश्यों को सरल करता
कई दिशाओं कटिबन्धों से होता हुआ
एक ही कक्षा में इतिहास के संग़ भूगोल आया |















|| ख़ाली समय ||

हज़ार व्यस्तताओं और भीषण भाग-दौड़ के बीच
यह ख़ाली समय है जो बचा रह गया है
एक मरहम है यह इच्छाओं से दग्ध ह्रदय के लिए
या कि भागते-भागते थक गए हैं हम
और फ़िलहाल थोड़ा सुस्ताना चाहते हैं

सोचें क्या कोई कविता या पढ़ें कोई
या कि चुपचाप तकते रहें सूरज का ढलना
धुंधली परछाइयों का बढ़ना पेड़ों से पत्तों का गिरना
एक गौरैया की चिर्र-चीं कौवे की कांव-कांव सुनें
या खोल दें सारे दरवाज़े-खिड़कियाँ
आत्मा में थोड़ी धूप और हवा भरें

कुछ करना चाहिए इस ख़ाली समय में
इच्छाओं का ज्वालामुखी प्रसुप्त है अभी
समय का हंटर अभी चेतना की पीठ पर नहीं बरस रहा
कुछ करें जो मन को हल्का करे
किसी दोस्त से दो-चार बातें थोड़ी गपशप
किसी को व्यक्त करें अपनी चिंताएँ
बूढी माँ को ही दे दें थोड़ा समय
पुरानी चिट्ठियों का पोथा खोलें
अपने ही अतीत में लगा आयें एक ताज़ा डुबकी
या कि किताबों से धूल झाड़ें

अस्त-व्यस्त चीज़ों को ठीक-ठाक कर दें
हारमोनियम और तबला कब से पड़े हैं कबाड़ में
तबले पर उतारें उँगलियों की अकड़न
या हारमोनियम पर अपना बेसुरा होता सुर साधें

पड़े रहें बिस्तर पर औंधे मुँह ढँककर सो जायें
या कि झटककर सबकुछ उठें किसी काम में खो जायें
भविष्यनिधि का लगाएँ हिसाब
अछे दिनों की लालसा में योजनाएँ बनाएँ
या फिर आइने में अपनी सूरत ताकें
देखें बढ़ चुके हैं कितने सफ़ेद बाल
चेहरे पर उग आया है कितना जंजाल |















|| खिड़कियाँ ||

एक तस्वीर रखी होती है
एक पर्दा चुपचाप लटका रहता है वहाँ
एक पौधा वहीँ अपनी उम्र गुज़ारता है
एक दृश्य वहाँ हमेशा फैला होता है
एक गली या एक पेड़ वहाँ से दिखाई देता रहता है

उन पर अक्सर चिड़ियों के बैठने का ज़िक्र मिलता है
जबकि हवा और रोशनी के लिए होती हैं खिड़कियाँ
वहाँ से बारिश दिखती है दिखता है कोहरा
जंगल और पहाड़ दिखते हैं
दूर एक नदी का पानी चमकता है आँख में
एक छोटा सा आसमान उन पर हमेशा टंगा रहता है

खिड़कियों से झाँकती है घरों की ज़िन्दगी
घर इनसे दूसरों की ज़िन्दगी में झाँकते हैं
खुली होती हैं जिन घरों की खिड़कियाँ
हम उम्मीद करते हैं ऐसे घरों में
सरलता से बहता स्वस्थ होता होगा जीवन
बंद खिड़कियों वाले घरों में दुखी रहते होंगे लोग

जेल की अंधी कोठरियों में होती है एक अकेली खिड़की
यह खिड़की सबसे ज़्यादा खिड़की होती है
एक खिड़की कैदियों की आँख में होती है
यह आँख की खिड़की दीवार की खिड़की पर बैठी रहती है
इसी से समय रिसता आता है
आती है उम्मीद
स्वजनों की धुंधली तस्वीरें
झांकता है इसी से
उनका टिमटिमाता छोटा होता भविष्य

हमारी आँखें हमारे शरीर की दो खिड़कियाँ हैं
इन्ही से यह संसार हमारे भीतर प्रवेश करता है
स्थिर होते हैं यहीं रंगों और दृश्यों के प्रतिबिम्ब
हमारे कानों में भी होती है एक खिड़की
इसी से हमारे भीतर उतरता है सन्नाटा
यहीं बैठ रात का गीत गाते हैं झींगुर
एक खिड़की हमारे दिमाग में भी होती है
इसके बारे में शिक्षक बच्चों को हिदायत देते हैं
यह हमेशा खुली रखनी चाहिए

खिड़कियाँ आजकल धड़ाधड़ बंद हो रही हैं
बाहर उमड़ आया है एक ख़तरनाक तूफ़ान
दुखों की मूसलाधार बारिश गिर रही है
आँख के लिए रह गए हैं ख़ून के रंग
कान के लिए रह गई हैं बुरी ख़बरें
दिमाग के लिए बिक रहीं हैं साजिशें
आँख की कान की दिमाग की
और एक जो हमारी आत्मा में है
समस्त खिड़कियाँ हो रही हैं बन्द

बन्द होती खिड़कियों के बीच जो खुली हुई हैं खिड़कियाँ
उनसे उदास लड़कियां ढलती शामें ताक रही हैं
बच्चे टुकुर-टुकुर देख रहे हैं खुला आसमान
आदमी डंडा पकड़ उड़ा रहा है कबूतर
छिपकलियाँ पाल रही हैं बच्चे
वहाँ मकड़ी के जाले निकल आये हैं
और जो तस्वीर रखी है वहाँ
वह बस रोने ही वाली है |

[ पिथौरागढ़ में जन्में और भारतीय सेना में कैप्टन रहे सुन्दर चन्द ठाकुर ने प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख व समीक्षाएँ लिखी हैं, और समकालीन हिंदी कविता में अपनी पहचान बनाई है | यहाँ प्रकाशित उनकी कविताओं के साथ लगे चित्र पामेला बसु ने चंडीगढ़ स्थित अपने घर की बालकनी से हाल ही में हुई बारिश के तुरंत बाद खींचे हैं | ]

Friday, October 8, 2010

मदन सोनी की कविताएँ














|| बसंत : उस लड़की के खून में ||

केशर और सिंदूर रंगों से रेखांकित वह शब्द
उस लड़की के खून में अचानक घुल गया है
लड़की चकित है :
हाथ में खुली किताब से गर्म भाप निकलती है | रोज़
दोपहर बाद उसका चेहरा अक्सर
बगैर गुस्से के तमतमाया रहता है

खिड़की के बाहर
दिन के तीसरे पहर की तेज़ धूप में
हिलती पीली झाड़ियाँ
शरारती छोकरे की तरह
उसे धीरे-धीरे बुलाती हैं

कोई वर्णहीन अक्षर
उसकी चेतना की फुनगियों पर
किसी चिड़िया की तरह फुदकता है
लड़की उसे लिखने की कोशिश में
लिखी-सी रह जाती है

घर लौटते हुए उसे लगता है
उसके पैरों में गुब्बारे बँधे हैं
उसके कपड़ों से हज़ारों आँखें चिपक गई हैं

हालांकि यह उसका भ्रम है
लेकिन बिस्तर पर लेटते ही यह भ्रम
उसकी बगल में लेट जाता है
रात भर नींद की अँधेरी घाटियों में उसका पीछा करता
सुबह
सामने वाले दरख़्त पर बैठे पक्षी के गले में बैठ
ऐसे चीखता है
कि लड़की
नींद से फिसलकर बिस्तर पर गिरती है














|| चिड़िया, जिसे शक है की वह चिड़िया है ||

वह मैदान नहीं है
जहाँ बच्चे दौड़ रहे हैं
न वे बच्चे हैं, जो मैदान में दौड़ रहे हैं
एक चिड़िया
जिसे शक है कि वह चिड़िया है
रेफ़री के कानों में लगातार चीख़ रही है

बच्चे थककर गिरते हैं मैदान में
मैदान टूट कर उड़ता हवा में
चिड़िया चीखती लगातार-
वह थकान नहीं
जो धराशायी कर रही बच्चों को
न वह हवा है
जो टूट कर उड़ते मैदान को
जंगल की आतुर भुजाओं में सौंप रही है

चिड़िया के लिए
वह मैदान नहीं है
वे बच्चे नहीं हैं
वह थकान
वह हवा नहीं है
सिर्फ़ एक रेफ़री है
जिसके सुनसान कानों में
सेंध लगाना चाहती है उसकी चीख़

रेफ़री के लिए
वह चिड़िया नहीं है
वह चीख़ नहीं है
वह शक नहीं कि वह रेफ़री है
सिर्फ़ एक खेल है
जिसे वह संचालित कर रहा है |














|| सेना का पुनरागमन ||

पूरे जंगल को घराशायी करती वह सेना
फिर तुम्हारे आंगनों में पड़ाव डाले है
सम्राट विहीन परास्त थकी हुई
प्यास
एक लोटे पानी की याचना में
डूबा है उसका इतिहास
इतिहास एक और
इतिहास की तरह न लिखा गया
बच्चों की किताब से बाहर

गाँव से बाहर
जीर्ण कुआँ
डूब कर मरी थी दुहाजू की बहु
कोई नहीं रोया
एक भयभीत कुत्ता भूंकता रहा लगातार
सेना को कुएँ के
इर्द गिर्द देख

कुत्ते की स्मृति में
बार-बार ताज़ा होता है इतिहास
वही लश्कर है
पानी मिलते जी उठेगा
जिरहबख्तर बंद अस्त्रों से लैस
सिर उठायेगा एक चमचमाता मुकुट
गाँवों और जंगलों को रौंधता जुलूस
गूंजता कुएँ में देर तक

कुत्ता चुप हो जायेगा
गंध के सहारे
सिंह दरवाज़ों तक जायेगा
गुस्से में संभव है
किसी सैनिक को काट खायेगा
मारा जायेगा |

[ मदन सोनी की कविताओं से साथ प्रकाशित चित्र आसिफ मंसूरी की पेंटिंग्स के हैं ]