Thursday, February 25, 2016

तुषार धवल की चार कविताएँ
























।। इस गोद में ।।

इस गोद में सेज है
तुम्हारी
उड़ानों की उडऩपट्टी है
यहाँ
तुम्हारे नरम सपनों का जंगल है
जिसमें संसार की पगडंडियाँ
घुसते ही मिट जाती हैं
उस जंगल में
टिमटिमाती कस्तूरी मणियाँ हैं
सुकुमार जल पर फैली महकीली लतायें हैं
जो अपने ही ढब के फूल ओढ़ी हुई
नाज़ुक सी ऊँघ में खिल रही हैं
वहाँ हवा में तैरती गुलाबी मछलियों की
किलकारियाँ हैं
पंछियों का गुंजार तुम्हारे हास की
थपक पर थिरकता है
वहाँ

उस जंगल में बस्ती है
मेरी आदिम जातियों की
उनके आग और काँटों के संस्मरण हैं
फूलों की गुलगुली छाती में
तपने और जूझने के
दाँत भींचे एकटक आईने हैं
किचकिची और लिजलिजी पीड़ायें हैं
ईमानदारी पर मिली बदनामियों की
ग्लानियों में आत्मदहन के क्षण हैं
मनुष्य होने के संघर्ष में
अनुभवों की थाती है

तुम्हारे उसी वन में मेरा शुद्ध आत्मबोध है
अनगढ़ अशब्द अपरिभाषित
और स्फटिक की चमकती खोह है
चेतस् ऊर्जा का हस्ताक्षर है वहाँ
मेरा तुम्हारा होना

मेरी गोद में तुम हो
और तुममें एक सुकुमार उनींदी
गोद है
जिसमें मेरा होना
हो रहा है !
























।। जब तुम तड़प कर रोते हो ।।

जीवन हहरा कर धँस जाता है हठात
खिलना भूल जाता है
बदहवास क्षणों के प्रपंच में
कराहती हुई तुम्हारी निरीह रुलाई पर

सृष्टि की कोख से उठता यह रोना तुम्हारा
ब्रह्माण्ड भर में कहर जाता है

दर्द से कराहती इस निरीह नन्ही पुकार पर
कैसे स्थिर रहा जाये बेटा !
वह धीर गम्भीर कोई और होगा
लेकिन जब रहा होगा
वह पिता नहीं रहा होगा
माँ तो बिल्कुल ही नहीं

एक करवट
एक कराह
और जीवन के मुगालते बेपर्दा हो जाते हैं
मैं सियाचीन में तड़पते उस बाप को सुनता हूँ
जिसकी जमती हुई हथेलियों पर बन्दूक थमी है
कान सरहद पर चौकस हैं
और कलेजे में घर से आये फोन की
उसी लाचार खबर वाली घन्टी
लगातार बज रही है
मैं जेल में बन्द उसी बाप सा होता हूँ
उतना ही मजबूर जितना पेशावर के
वे सभी बाप रहे होंगे
सोमालिया नाइजीरिया या ईराक में
कहीं मुसलमान कहीं ईसाई और कहीं यहूदी होने
के बोझ तले
जीना कोहराम बन गया है
और मेरे कन्धे कितने अशक्त हैं
जो रोक नहीं सकते तुम्हारे रोने को
पेट में उठती इन बेरहम मरोड़ों को
जो बाहर भी मरोड़ रही हैं मुझे
हम सबको
यहाँ वहाँ दुनिया के हर कोने में
यह मरोड़ कैसा उठा हुआ है
कि धुआँ है और बारूद झर रहा है आकाश से
उन सूने कन्धों और उजाड़ कलेजों की बेबसी
यहाँ आज यह बाप तुम्हारा ढो रहा है
जब तुम बेपनाह रोये जा रहे हो

रोते एक तुम हो
और दुनिया भर की हजारों मासूम जानें
मुझमें फिर से तड़प कर तुम्हारे साथ
रो पड़ती हैं !
























।। तड़प उठा था दर्द ।।

तड़प उठा था दर्द
जब तुम्हारी नन्ही जान बेबस
बेतहाशा रो रही थी ।

कुछ कह रहे थे तुम अपनी भाषा में
जिसे मैं समझ न सका ।

तुम्हारी वह सहज बेशब्द भाषा
मेरे बीज तक की परतों को उधेड़ती रही
एक तड़प तुमसे उठ कर
बिना किसी व्याख्या के
मुझमें उतर कर
मेरे भीतर तड़प गई

कितने असहाय थे तुम उस वक्त
कह नहीं सकते थे दर्द मुझ से मेरी भाषा में
जिसे सीखने में
मैं भूल चुका हूँ सृष्टि की नाभि से उगी
जीवन की उस मूल भाषा को
जिसे तुम अभी जानते हो

तुम्हें भी सभ्यता के व्याकरण में ढाला जायेगा
और तब तुम भी
अपनी यह बेशब्द भाषा भूल जाओगे
कि इस दुनिया की भाषा
जीवन की उस मूल भाषा के नाश पर ही
उग सकती है
इसे सीखने के लिये उसे भूलना ही पड़ेगा तुम्हें।

कैसा असर छोड़ता है तुम्हारी भाषा का
एक नन्हा अर्धविराम भी !

मैं कवि होने का दम्भ लिये
कितना लघु हूँ तुम्हारी इस क्षमता के आगे

तुम नहीं समझोगे मेरी भाषा
कि तुम सृष्टि के स्पन्दन में धड़कते हो
इसे भूलोगे जैसे जैसे
तुम मेरी भाषा सीखते जाओगे
इस दुनिया में जीने के लिये
बहुत सी अच्छी चीजें
तुम्हें भूलनी पड़ेगी
मेरे बेटे ।
























।। तुम्हारे पालने के बाहर ।।

तुम्हारे पालने के बाहर
एक रतजगा ऐसा भी है
जिसमें रात नहीं होती।

जिसमें देह की परतें खुल जाती हैं
भाषा से शब्द झर जाते हैं
आँखें आँख नहीं रहतीं
वे स्वप्न हो जाती हैं
बोध के सन्दर्भ जिसमें उलट जाते हैं
काल का व्याकरण गल जाता है।

तुम्हारे पालने के बाहर
एक थकान ऐसी भी होती है
जो अपनी ही ताजगी है
आशंकायें जिसमें खूब गरदन उठाती हैं
एक आक्रान्त स्नेह अपने भविष्यत संदिग्धों
की तलाश में होता है
और यहीं से उन सबका शिकार करता है
आने वाले दुर्गम पथों पर
माटी की नरम मोयम रखता हुआ

तुम्हारे पालने के बाहर
एक बीहड़ है जिसमें
एक बागी हुआ मन गाता रहता है
मानव मुक्ति के गीत
उसके हाथ
केसर कुदाल करतब करताल
होते रहते हैं

एक मोम हुआ हृदय ऐसा भी होता है
तुम्हारे पालने के बाहर
जो अपने दु:स्वप्नों और हाहाकारों में
तुम्हारी असंज्ञ चेतन मुस्कान
भर रहा होता है ।

(तुषार धवल की कविताओं के साथ दी गईं तस्वीरें मनीष पुष्कले की 'म्यूजियम ऑफ अननोन मेमोरीज़' थीम पर आधारित पेंटिंग्स की हैं ।)

Wednesday, February 17, 2016

अर्चना गुप्ता की पाँच कविताएँ

कविता के गंभीर अध्येता शरद शीतांश ने अर्चना गुप्ता की नीचे दी गईं कविताएँ उपलब्ध करवाते हुए उनकी कविताओं पर एक संक्षिप्त टिप्पणी भेजी है : 'अर्चना गुप्ता की कविताओं में प्रेम को लेकर जो गहन आवेग और रागमयी गर्माहट है, उसके चलते उनकी कविताएँ एक दुर्लभ उपलब्धि हैं । उनकी प्रेम कविताओं में जीवन का वह तनाव नहीं है जो प्रेम की अभिव्यक्ति को कठिन बनाता है । अर्चना इस कठिनाई की अभिव्यक्ति को छोड़कर प्रेम को जीवन का सरल और सहज अनुभव बनाती हैं । उनकी प्रेम कविताओं में रागमयी कामना का ज्वार जिस तरह अभिव्यक्ति पाता है, वह उनकी कविता को अर्थवान बनाता है । उनकी कविताओं में अनुभूति के स्तर पर समर्पण और सम्मोहन का जो भाव है - उसमें जीवन के अनछुए अनुराग, अनदिखे अंधकार और अधखिले फूलों के बोध का अहसास है । संभवतः इसीलिए उनकी कविताएँ लुभाती हैं और विवश करती हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ा जाए ।'
अर्चना गुप्ता की कविताओं के साथ दिए गए चित्र विश्वविख्यात वरिष्ठ भारतीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की पेंटिंग्स के हैं ।

 

।। एक ।।

दर्द की तपन से झुलस रहा है
हाड़ मांस का यह पिंजरा
निढाल कर रहीं हैं अब तो
सांसें भी बन कर इक बोझ
लगा मुखौटा हंसी का चेहरेपर
निभा रही अपना किरदार
चाहूँ चीख चीख कर रोना
घुट रहा है अब दम मेरा
दुश्वार हो गया है अब तो
बोझ ये जीवन का ढोना
अश्रु भी अब गए हैं सूख
चुभते हैं अखियन में मेरे
आंख मूंद अब सोना चाहूँ
लंबी व गहरी निद्रा में मैं
शायद फिर चेहरे पर उसके
इक हल्की मुस्कान खिले 























।। दो ।। 

 आज फिर यादों ने तेरी
दिल में मेरे दी है दस्तक
वो तेरी मोहक मुस्कान
तेरी मासूम सी शरारतें
पहला वो तेरा चुंबन
आज भी सांसों में मेरे
महके है सांसों की तेरी
भीनी खुशबू
आज भी जब माथे पर मेरे
झूल सी जाती है कोई लट
याद मुझे आ जाता है तेरी
उंगलियों का पहला स्पर्श
लाल गुलाब जो तूने मुझको
प्रेम से भेंट किया था कभी
खुशबू से उसकी आज भी
महकता है मेरा तन मन
बरसों बाद आज फिर गूंजी है
कानों में तेरी मधुर हंसी की
खनक
संजो के रखा है प्रियतम
हर इक निशानी को तेरी
सौंपूंगी सब कुछ तुमको
जब लौट कर आओगे प्रियवर
निश्छल और पावन प्रेम
है मेरा
ना इसमें है कोई खोट
आज भी मन मंदिर में मेरे
मूरत बस तेरी है चितचोर























।। तीन ।।

जब भी अपनी आंखें मैं मूंदूं
क्यों मुझको तू नज़र ना आए ?
दूर खड़ी इक धुंधली सी परछाईं
बस मुझे नज़र पड़े दिखाई
अक्सर क्यों मेरा नादान दिल
रह रह कर है घबराए?
क्यों चाहे ये मन कि तुझको
अपने दिल में लूँ मैं छिपाए?
रातों को क्यों अनजाना डर
सोने ना दे मुझको पल भर?
लगे कि आँखें जो झपकाऊँ
जाकर कहीं ना तू छिप जाए?
जानूँ कि बस भय है ये तो
पर यह दिल मेरी एक ना माने
तुझको कभी भी पा ना सकूँगी
यह भी है कड़वी सच्चाई
रहता है अखियन में मेरे
तू बनकर काँच के ख्वाब
डरती हूँ टूटकर चुभ ना जाएँ
अगर पलकें जो खोलूं मैं
हृदय का दर्द बनके अश्रु
हर क्षण है बहना चाहे
कहीं ना तुझको खो दूँ मैं
इस डर से आंसू भी ना बहाए

।। चार ।।

मैं हूँ गीली माटी सी
तूने प्यार से सींचा,
दिया संवार
अपने सांचे में यूं ढाला
मुझ पर आया ऐसा निखार
तेरे प्रेम के ताप से तपकर
कुंदन सी काया मैंने पाई
लबों पर लाली तेरे नाम की
मैंने है संईया जी लगाई
मेरे कंगन की खनखन में
तेरी शहद सी वाणी
पड़े सुनाई
कोमल स्पर्श से तेरे मेरी
गोरी काया सुर्ख हो जाए
तुझमें मैं यूँ सिमट सी जाऊँ
दो जिस्म इक जान हों जैसे
तेरी परछाईं बन जाऊँ
हर क्षण साथ रहूँ मैं ऐसे





















।। पाँच ।।

तेरे प्रेम का सुर्ख चटक रंग
जब से तन पर पड़ा है साजन
मोरी उजरी देह सुलग गई
रंग गया मोरा मन भी संग संग
मन मयूर भी लगा नाचने
लोक लाज सब कुछ मैं बिसरी
पिया नाम दिन रात मैं जापूँ
भई जोगन मैं तो उनकी
रात और दिन मोरी अखियन में
अब तो बस सपने हैं उनके
होठों की हर मुस्कान में मेरी
खनके है अब हंसी प्रियतम की
संईया मेरा प्रेम है पावन
ना उसमें है खोट तनिक भी
तुम्हें बाँधूं आँचल से अपने
सिर्फ इतनी ही चाह है मेरी

Thursday, July 19, 2012

श्रीप्रकाश शुक्ल की 'घर' शीर्षक कविता

  



















|| एक ||

घर बनाने में बहुत-सी सामानें आयीं |

घर को मिला सीमेंट, बालू और सरिया
मिले कुछ मजदूर, कारीगर और बढ़ई
मेरे हिस्से में आयीं कुछ ध्वनियाँ

मैं इन्हीं ध्वनियों को सुनता हूँ
और इन्हीं के सहारे
घर के भीतर पाता हूँ
ख़ुद को |
















|| दो ||

घर ध्वनियों से मुक्ति के लिए नहीं होता
वह होता है
ध्वनियों को सुनने के लिए

जितनी ही बड़ी ध्वनियाँ
उतना ही सुन्दर घर

मेरे घर का पता इन्हीं ध्वनियों में है |
















|| तीन ||

मैं अपने घर में एक किताब की तरह प्रवेश करता हूँ
पन्नों की तरह उसके कमरों में टहलता हूँ
और पिछवाड़े के जिल्द्नुमा दरवाज़े से जब निकलता हूँ

तब ख़ुद को
एक बड़े घर में पाता हूँ
जिसमें कई रोशनदान उभर आये हैं

इन रोशनदानों से ध्वनियाँ आती हैं
जहाँ मेरे पुरखे फुसफुसाते हैं |





















|| चार ||

जब नहीं था
नहीं होने का ग़म था

हर बार छोटी पड़ती गयी चारपाई
हर बार किताबों के लिए जगह कम पड़ती गयी
हर बार मेहमानों के लिए कोने का रोना रोता रहा

अब जब घर है
तब होने को लेकर नम हूँ
कैसे मिलेगा इसको दानापानी
कैसे देखूँगा इसके अकेले का होना
सफ़र का दुनिया में

घर में होने-न-होने के बीच
थरथराता है वजूद
अपनी ही उपस्थिति का |


















|| पाँच ||

एक ख़ाली ज़मीन थी
एक बड़ा घर मेरे सामने था

जैसे-जैसे ज़मीन भरती गयी
बड़ा घर
छोटा होता गया
मेरे सामने |
















|| छह ||

मैंने गृह प्रवेश किया
अतिथियों की जूठन के साथ
मैंने भी गिराये कुछ दाने

अब घर में रहने भी लगा हूँ
चूल्हा चौका सब कुछ ठीक ठाक ही है
पहले से थोड़ी जगह भी ज़्यादे है

लेकिन मुझे ही नहीं मिलता वह घर
जिसे भूमि पूजन के ठीक पहले तैयार किया था
नक्शे में |

[श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं के साथ दिये गए चित्र शिरीष देशपांडे की बॉलप्वाइंट पेंटिंग्स के चित्र हैं |]

Thursday, July 5, 2012

सुन्दर चन्द ठाकुर की दो कविताएँ




















|| दूसरी तरफ़ ||

वहाँ बिखरे हैं चमकीले रंग
काली रात के परदे पर
थिरकती दिखती है एक जगमग दुनिया

हर चीज़ अपनी सुन्दरता में निखरी
इन्द्रसभा में देवताओं का उत्सव हो जैसे
मादक देहगन्ध उड़ाती इठलाती कामुक अप्सराएँ
ऐन्द्रिक आनन्द में आकण्ठ डूबे
उपस्थित हैं वहाँ अपने-अपने साम्राज्यों के महामहिम राजा
नहीं है कोई खौफ़ वहाँ कोई भी चिन्ता
किसी बात का पछतावा कोई भी दुःख नहीं
अय्याशी की एक अँगड़ाई है समूचे दृश्य पर छायी हुई

मंच पर स्थापित यह हमारे ही समय का दृश्य है
बलिदानों और ख़ूनी क्रांतियों से भरे इतिहास की अन्तिम परिणति
हमारी ही सभ्यता का शीर्ष बिन्दु उसका उत्कर्ष
इसके चारों ओर पहरेदार सा फैला है घटाटोप अँधेरा
दूसरी तरफ सुनाई देता है कलपती आत्माओं का शोर
इच्छाओं से बिंधे सीनों की बेसुध सीत्कार
मारकाट हाय-हाय भयंकर प्रलाप

कभी-कभार आकाश से गिरती कोई उल्का जैसे
एक चमक भरी लकीर छोड़ती गुम जाती है
दूसरी तरफ से एक आदमी
कई पीढ़ियों की राख से उठती क्षीण एक चिनगारी सा
पीछे छोड़ता सारा शोर समस्त प्रलाप
अपने भाग्य के ईंधन से भरा द्रुतवेग से
बीच में फैले अन्धकार में क्षणभर चमकता
जगमग दुनिया में कूदकर बुझ जाता है |


 

















|| हमारी दुनिया ||

चिड़िया हमारे लिए तुम कविता थी
उनके लिए छटाँक भर गोश्त
इसीलिए बची रह गई
वे शेरों के शिकार पर निकले
इसलिए छूट गए कुछ हिरण
उनकी तोपों के मुख इस ओर नहीं थे
बचे हुए हैं इसीलिए खेत-खलिहान घरबार हमारे
वे जितना छोड़ते जाते थे
उतने में ही बसाते रहे हम अपना संसार

हमने झेले युद्ध अकाल और भयावह भुखमरी
महामारियों की अँधेरी गुफाओं से रेंगते हुए पार निकले
अपने जर्जर कन्धों पर युगों-युगों से
हमने ही ढोया एक स्वप्नहीन जीवन
कायम कीं परम्पराएँ रची हमीं ने सभ्यताएँ
आलीशान महलों भव्य किलों की नींव रखी
उनके शौर्य-स्तंभों पर नक्काशी करने वाले हम ही थे शिल्पकार
इतिहास में शामिल हैं हमारी कलाओं के अनगिनत ध्वंसाशेष
हमारी चीख़-पुकार के बरक्स वहाँ उनकी कर्कश आवाज़ें हैं
उनकी चुप्पी में निमग्न है हमारे सीनों का विप्लव

उनकी नफ़रत हममें भरती रही और अधिक प्रेम
क्रूरता से जनमे हमारे भीतर मनुष्यता के संस्कार
उन्होंने यन्त्रणाएँ दीं जिन्हें सूली पर लटकाया
हमारी लोककथाओं में अमर हुए वे सारे प्रेमी
उनके एक मसले हुए फूल से खिले अनगिन फूल
एक विचार की हत्या से पैदा हुए कई-कई विचार
एक क्रांति के कुचले सिर से निकलीं हज़ारों क्रांतियाँ
हमने अपने घरों को सजाया-सँवारा
खेतों में नई फसल के गीत गाये
हिरणों की सुन्दरता पर मुग्ध हुए हम

हम मरते थे और पैदा होते जाते थे |   

[पिथौरागढ़ में जनमे और भारतीय सेना में कैप्टन पद से ऐच्छिक सेवानिवृत्त सुन्दर चन्द ठाकुर की कविताओं के साथ यहाँ प्रकाशित चित्र आनंद गोस्वामी की पेंटिंग्स के हैं |]

Saturday, June 30, 2012

मुहम्मद अलवी की तीन उर्दू कविताएँ














|| नज़र आएगा ||

कोई तो सहारा नज़र आएगा
अभी कोई तारा नज़र आएगा

इरादा है उससे लिपट जाऊँगा
अगर वो दोबारा नज़र आएगा

उसे अपने ख़्वाबों में देखा करो
तुम्हें वो तुम्हारा नज़र आएगा

समंदर से यारी बढ़ाते रहो
कभी तो किनारा नज़र आएगा

मिरा शहर है ये, यहाँ हर कोई
मुसीबत का मारा नज़र आएगा




















  
|| लोग वहाँ कैसे हैं ||

शहर कैसा है, मकाँ कैसे हैं
क्या पता लोग वहाँ कैसे हैं !

सुनते हैं और भी जहाँ हैं मगर
कौन जाने वो कहाँ, कैसे हैं

तशिनगी और बढ़ा देते हैं
रेत पर आबे रवां कैसे हैं

हम तो हर हाल में ख़ुश रहते हैं
आप बतलाएँ म्याँ, कैसे हैं

कोई आया न गया है 'अलवी'
फिर ये क़दमों के निशाँ कैसे हैं

(तशिनगी = प्यास)




















|| आँख भर आए तो ||

कोई अच्छा चेहरा नज़र आए तो
उधर जाते-जाते इधर आए तो

ये दिल यूँ तो बच्चों का बच्चा है पर
गुनाह कोई संगीन कर आए तो

चला तो हूँ मैं अपना घर छोड़ कर
मगर साथ में मेरा घर आए तो

कबूतर तेरा उड़ते-उड़ते अगर
मेरी टूटी छत पर उतार आए तो

सबब हो तो रोना भी अच्छा लगे
मगर बेसबब आँख भर आए तो |    

[साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उर्दू कवि मुहम्मद अलवी का जन्म 1927 में हुआ | इनके कई ग़ज़ल-संग्रह प्रकाशित हुए हैं | यहाँ प्रकाशित उनकी कविताओं का अनुवाद ख़ुर्शीद आलम ने किया है, जो उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी से पुरस्कृत हैं | मुहम्मद अलवी की कविताओं के साथ दिये गए चित्र युवा चित्रकार और मूर्तिकार संजय कुमार श्रीवास्तव की पेंटिंग्स की तस्वीरें हैं |]


Wednesday, May 23, 2012

ज्ञानेंद्रपति द्धारा चयनित ख़ुद की दो प्रतिनिधी कविताएँ
















|| सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है ||

सूर्यास्त की आभा भी जब अस्त हो रही होती है
नदी का जल-पृष्ठ निरंग हो धीरे-धीरे सँवलाने लगता है जब
देखता हूँ, नदी के पारतट के ऊपर के आकाश में
एक झुंड है पक्षियों का
धुएँ की लकीर-सा वह
एक नीड़मुखी खगयूथ है
वह जो गति-आकृति उर्मिल बदलती प्रतिपल
हो रही ओझल
सूर्यास्त की विपरीत दिशा में नभोधूम का विरल प्रवाह
                                                       वह अविरल
क्षितिज का वही तो सांध्य रोमांच है
दिनान्त का अँकता सीमान्त वह जहाँ से
रात का सपना शुरू होता है
कौन हैं वे पक्षी
दूर इस अवार-तट से
पहचाने नहीं जाते
लेकिन जानता हूँ
शहर की रिहायशी कालोनियों में
बहुमंजिली इमारतों की बाल्कनियों में
ग्रिलों-खिड़कियों की सलाखों के सँकरे आकाश-द्धारों से
घुसकर घोंसला बनाने वाली गौरैयाएँ नहीं हैं वे
जो सही-साँझ लौट आती हैं बसेरे में
ये वे पक्षी हैं जो
नगर और निर्जन के सीमान्त-वृक्ष पर गझिन
बसते हैं
नगर और निर्जन के दूसरे सीमान्त तक जाते हैं
दिनारम्भ में बड़ी भोर
खींचते रात के उजलाते नभ-पट पर
प्रात की रेखा |
















|| आदमी को प्यास लगती है ||

कालोनी के मध्यवर्ती पार्क में  
जो एक हैंडपम्प है
भरी दोपहर वहाँ
दो जने पानी पी रहे हैं
अपनी बारी में एक जना चाँपे चलाये जा रहा है हैंडपम्प का हत्था
दूसरा झुक कर पानी पी रहा है ओक से
छक कर पानी पी, चेहरा धो रहा है वह बार-बार
मार्च-अख़ीर का दिन तपने लगा है, चेहरा सँवलने लगा है,
                                          कंठ रहने लगा है हरदम खुश्क
ऊपर, अपने फ्लैट की खुली खिड़की से देखता हूँ मैं
ये दोनों वे ही सेल्समेन हैं
थोड़ी देर पहले बजायी थी जिन्होंने मेरे घर की घंटी
और दरवाज़ा खोलते ही मैं झुँझलाया था
भरी दोपहर बाज़ार की गोहार पर के चैन को झिंझोड़े
                                    यह बेजा ख़लल मुझे बर्दाश्त नहीं
'दुनिया-भर में नंबर एक' - या ऐसा ही कुछ भी बोलने से उन्हें बरजते हुए
भेड़े थे मैंने किवाड़
और अपने भारी थैले उठाये
शर्मिन्दा, वे उतरते गए थे सीढ़ियाँ

ऊपर से देखता हूँ
हैंडपम्प पर वे पानी पी रहे हैं
उनके भारी थैले थोड़ी दूर पर रखे हैं एहतियात से, उन्हीं के ऊपर
तनिक कुम्हलायी उनकी अनिवार्य मुस्कान और मटियाया हुआ दुर्निवार उत्साह
गीले न हो जायें जूते-मोज़े इसलिए पैरों को वे भरसक छितराये हुए हैं
गीली न हो जाये कंठकस टाई इसलिए उसे नीचे से उठा कर
                           गले में लपेट-सा लिया है, अँगौछे की तरह
झुक कर ओक से पानी पीते हुए
कालोनी की इमारतें दिखायी नहीं देतीं
एक पल को क़स्बे के कुएँ की जगत का भरम होता है
देख पा रहा हूँ उन्हें
वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद नहीं हैं
भारतीय मनुष्यों के उत्पाद हैं
वे भारतीय मनुष्य हैं - अपने ही भाई-बंद
भारतीय मनुष्य - जिनका श्रम सस्ता है
विश्व-बाज़ार की भूरी आँख
जिनकी जेब पर ही नहीं
जिगर पर भी गड़ी है |   

[ज्ञानेंद्रपति की कविताओं के साथ दिये गए चित्र देवीलाल पाटीदार के मूर्तिशिल्पों की तस्वीरें हैं |]

Sunday, April 22, 2012

हरिओम राजोरिया की कविताओं के साथ अरिंदम चटर्जी की पेंटिंग्स


|| थाने के सामने जिनके घर हैं ||

चलती सड़क के सामने होगा
तो पड़ेगा दिनचर्या में खलल
नींद का थोड़ा नफ़ा है
अगर किसी निर्जन में है तुम्हारा घर
तंग बस्तियों में घुटन हो सकती है
बाज़ार में रहने के ज़रूर कुछ लाभ हैं
हर जगह अपने तरह की है
हर जगह रहने के कुछ नुकसान फायदे हैं
पर क़िस्मत वाले हो तुम
थाने के सामने नहीं है तुम्हारा घर |

जो रहते हैं थाने के सामने
हो जाते हैं थाने से विरक्त
रात में किसी की चीख़ सुनकर
झट नहीं खोल पाते खिड़की
उनका इतना भर वास्ता होता है थाने से
कि उनके पते में थाने का जिक्र होता है |

ऐसा भी होता है कभी-कभी
वे गुजरें थाने के सामने से
और कर बैठें थाने को प्रणाम
बाद में भले हँसे भीतर ही भीतर
कि वे भूल गए थाने और मंदिर का फ़र्क
पर जब झुक रहे होते हैं भगवन के आगे
तब माँग रहे होते हैं दुआ -
"हे ईश्वर !
दूर रखना थाने के दरवाज़े से |"

जो रहते हैं थाने के सामने
उनके किसी न किसी हिस्से में
थोड़ा बहुत बचा ही रहता है थाना
तमाचों की गूँजें
घुड़कियाँ, गालियाँ और सलूटें
अँधकार में दमकते थाने का सन्नाटा
रात-विरात सन्नाटे को चीरता सायरन |

थाने के सामने जिनके घर हैं
वे रहते हैं इस दंभ से पीड़ित
कि वे हैं थाने के सामने
इसलिए नहीं है थाने के चंगुल में
सज्जनता डरपोक बनाती है उन्हें
सभ्य नागरिक होने की वजह से
हरदम करना पड़ता है उन्हें
इस यातनाघर का समर्थन

थाने के सामने रहने वाले लोग
इस हद तक गिर जाते हैं कभी-कभी
कि खो देते हैं मनुष्य होने की गरिमा
मौका आने पर इतना भी नहीं कर पाते
कि थाने के बाहर
सिर पीट-पीट कर बिलखतीं
उन स्त्रियों को पानी ही पिला दें
जिनके निरपराध पिता, पति, भाई या बेटे
पिट रहे होते हैं थाने के भीतर |




















|| अभिनेता ||

मैं एक ऐसे अभिनेता को जानता हूँ
जो स्टेशन पर उतरते ही
चलने लगता है मेरे साथ-साथ
बार-बार लपकता सामान की ओर
पूछता हुआ - "कहाँ जाना है भाई साहब ?
चलो रिक्शे में छोड़ देता हूँ |"
उम्मीद की डोर से बंधा
अपनी घृणा को छुपाता हुआ
वह काफी दूर चलता है मेरे पीछे-पीछे |

भर दोपहर में
जब सब दुबके रहते हैं अपने-अपने घरों में
उस बूढ़े अभिनेता का क्या कहना 
बहुत दूर सड़क से
सुनाई पड़ती है उसकी डूबी आवाज़
जो बच्चों के लिए कुल्फी का गीत गाता है

एक लड़का मिलता है टाकीज के पास
रास्ता चलते पकड़ लेता है हाथ
मैं भयभीत होता हूँ इस महान अभिनेता से
मैं डरता हूँ उसकी जलेबियों से
वह ज़िद के साथ कुछ खिलाना चाहता है मुझे
मेरे इन्कार करने पर कहता है -
"समोसे गरम हैं
कहो तो बच्चों के लिए बांध दूँ |"

एक अभिनेता ऐसा है शहर में
जो कपड़ा दुकान के अहाते में
बैठा रहता है कुर्सी लगाये
हर आते-जाते को नमस्कार करता
दिन भर मुस्कुराता ही रहता है
और महीना भर में
सात सौ रुपया पगार पाता है

गली, मोहल्लों, हाट, बाज़ार और सड़कों पर
हर कहीं टकरा ही जाते हैं ऐसे अभिनेता
पेट छुपाते हुए अपनी-अपनी भूमिकाओं में संलग्न
वे जीवन से सीखकर आये हैं अभिनय
जरूरतों ने ही बनाया है उन्हें अभिनेता
ऐसा भी हो सकता है अपने पिता की ऊँगली पकड़
वे चले आये हों अभिनय की इस दुनिया में
पर उनका कहीं नाम नहीं
रोटी के सिवाय कोई सपना नहीं उनके पास
जीवन उनके लिए बड़ा कठिन |

हाँ, ऐसे कुछ लोग भी हैं इस समाज में
जो इन अभिनताओं की नकल करते हैं
और बन जाते हैं सचमुच के अभिनेता

[हरिओम राजोरिया की कविताओं के साथ दिये गए चित्र अरिंदम चटर्जी की पेंटिग्स के हैं |]