Wednesday, February 17, 2016

अर्चना गुप्ता की पाँच कविताएँ

कविता के गंभीर अध्येता शरद शीतांश ने अर्चना गुप्ता की नीचे दी गईं कविताएँ उपलब्ध करवाते हुए उनकी कविताओं पर एक संक्षिप्त टिप्पणी भेजी है : 'अर्चना गुप्ता की कविताओं में प्रेम को लेकर जो गहन आवेग और रागमयी गर्माहट है, उसके चलते उनकी कविताएँ एक दुर्लभ उपलब्धि हैं । उनकी प्रेम कविताओं में जीवन का वह तनाव नहीं है जो प्रेम की अभिव्यक्ति को कठिन बनाता है । अर्चना इस कठिनाई की अभिव्यक्ति को छोड़कर प्रेम को जीवन का सरल और सहज अनुभव बनाती हैं । उनकी प्रेम कविताओं में रागमयी कामना का ज्वार जिस तरह अभिव्यक्ति पाता है, वह उनकी कविता को अर्थवान बनाता है । उनकी कविताओं में अनुभूति के स्तर पर समर्पण और सम्मोहन का जो भाव है - उसमें जीवन के अनछुए अनुराग, अनदिखे अंधकार और अधखिले फूलों के बोध का अहसास है । संभवतः इसीलिए उनकी कविताएँ लुभाती हैं और विवश करती हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ा जाए ।'
अर्चना गुप्ता की कविताओं के साथ दिए गए चित्र विश्वविख्यात वरिष्ठ भारतीय चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की पेंटिंग्स के हैं ।

 

।। एक ।।

दर्द की तपन से झुलस रहा है
हाड़ मांस का यह पिंजरा
निढाल कर रहीं हैं अब तो
सांसें भी बन कर इक बोझ
लगा मुखौटा हंसी का चेहरेपर
निभा रही अपना किरदार
चाहूँ चीख चीख कर रोना
घुट रहा है अब दम मेरा
दुश्वार हो गया है अब तो
बोझ ये जीवन का ढोना
अश्रु भी अब गए हैं सूख
चुभते हैं अखियन में मेरे
आंख मूंद अब सोना चाहूँ
लंबी व गहरी निद्रा में मैं
शायद फिर चेहरे पर उसके
इक हल्की मुस्कान खिले 























।। दो ।। 

 आज फिर यादों ने तेरी
दिल में मेरे दी है दस्तक
वो तेरी मोहक मुस्कान
तेरी मासूम सी शरारतें
पहला वो तेरा चुंबन
आज भी सांसों में मेरे
महके है सांसों की तेरी
भीनी खुशबू
आज भी जब माथे पर मेरे
झूल सी जाती है कोई लट
याद मुझे आ जाता है तेरी
उंगलियों का पहला स्पर्श
लाल गुलाब जो तूने मुझको
प्रेम से भेंट किया था कभी
खुशबू से उसकी आज भी
महकता है मेरा तन मन
बरसों बाद आज फिर गूंजी है
कानों में तेरी मधुर हंसी की
खनक
संजो के रखा है प्रियतम
हर इक निशानी को तेरी
सौंपूंगी सब कुछ तुमको
जब लौट कर आओगे प्रियवर
निश्छल और पावन प्रेम
है मेरा
ना इसमें है कोई खोट
आज भी मन मंदिर में मेरे
मूरत बस तेरी है चितचोर























।। तीन ।।

जब भी अपनी आंखें मैं मूंदूं
क्यों मुझको तू नज़र ना आए ?
दूर खड़ी इक धुंधली सी परछाईं
बस मुझे नज़र पड़े दिखाई
अक्सर क्यों मेरा नादान दिल
रह रह कर है घबराए?
क्यों चाहे ये मन कि तुझको
अपने दिल में लूँ मैं छिपाए?
रातों को क्यों अनजाना डर
सोने ना दे मुझको पल भर?
लगे कि आँखें जो झपकाऊँ
जाकर कहीं ना तू छिप जाए?
जानूँ कि बस भय है ये तो
पर यह दिल मेरी एक ना माने
तुझको कभी भी पा ना सकूँगी
यह भी है कड़वी सच्चाई
रहता है अखियन में मेरे
तू बनकर काँच के ख्वाब
डरती हूँ टूटकर चुभ ना जाएँ
अगर पलकें जो खोलूं मैं
हृदय का दर्द बनके अश्रु
हर क्षण है बहना चाहे
कहीं ना तुझको खो दूँ मैं
इस डर से आंसू भी ना बहाए

।। चार ।।

मैं हूँ गीली माटी सी
तूने प्यार से सींचा,
दिया संवार
अपने सांचे में यूं ढाला
मुझ पर आया ऐसा निखार
तेरे प्रेम के ताप से तपकर
कुंदन सी काया मैंने पाई
लबों पर लाली तेरे नाम की
मैंने है संईया जी लगाई
मेरे कंगन की खनखन में
तेरी शहद सी वाणी
पड़े सुनाई
कोमल स्पर्श से तेरे मेरी
गोरी काया सुर्ख हो जाए
तुझमें मैं यूँ सिमट सी जाऊँ
दो जिस्म इक जान हों जैसे
तेरी परछाईं बन जाऊँ
हर क्षण साथ रहूँ मैं ऐसे





















।। पाँच ।।

तेरे प्रेम का सुर्ख चटक रंग
जब से तन पर पड़ा है साजन
मोरी उजरी देह सुलग गई
रंग गया मोरा मन भी संग संग
मन मयूर भी लगा नाचने
लोक लाज सब कुछ मैं बिसरी
पिया नाम दिन रात मैं जापूँ
भई जोगन मैं तो उनकी
रात और दिन मोरी अखियन में
अब तो बस सपने हैं उनके
होठों की हर मुस्कान में मेरी
खनके है अब हंसी प्रियतम की
संईया मेरा प्रेम है पावन
ना उसमें है खोट तनिक भी
तुम्हें बाँधूं आँचल से अपने
सिर्फ इतनी ही चाह है मेरी

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