Sunday, June 6, 2010
गुलाम मोहम्मद शेख की दो कविताएँ
|| दिल्ली ||
टूटे टिक्कड़ जैसे किले पर
कच्ची मूली के स्वाद की सी धूप
तुगलकाबाद के खंडहरों में घास और पत्थरों का संवनन
परछाइयों में कमान, कमान में परछाइयाँ; खिड़की मस्जिद
आँखों को बेधकर सुई की मानिंद
आरपार निकलती
जामामस्जिद की सीढ़ियों की क़तार
पेड़ की जड़ों से अन्न नली तक उठ खड़ा होता क़ुतुब
चारों ओर महक
अनाज की, माँस की, खून की, जेल की, महल की
बीते हुए कल की, सदियों की
साँस इस क्षण की
आँख आज की उड़ती है इतिहास में
उतरती है दरार में ग़ालिब की मजार की
भटकती है ख़ानखानान की अधखाई हड्डी की खोज में
ओढ़ जहाँआरा की बदनसीबी को
निकल पड़ती है मक़बरा दर मक़बरा |
अभी भी धूल, अभी भी कोहरा
अब भी नहीं आया कोई फर्क माँस ओर पत्थर में
लाल किले की पश्चिमी कमान में सोई
फाख्ता की योनि की छत से होती हुई
घुपती है मेरी आँख में
किरण एक सूर्य की |
अभी तो भोर ही है
सत्य को संभोगते हैं स्वप्न
सबेरा कैसा होगा ?
|| गर्मी की एक रात को ||
आज रात को
नीचे के डबरे में झरते हैं अमलताश के पीले फूल
लगता है फूल रातभर झरते रहेंगे
और सुबह तक तो
हो जाएगा अमलताश निर्वसन
चढ़ चुकी होगी डबरे पर एक पर्त फूलों की
मिट गई होगी पानी और जमीन के बीच की संधि रेखा
बगल के शिरीष की महीन कोंपलों पर ऊँगलियाँ फेरता
उठता है चाँद
शिरीष के पत्तों की नमी
और आसमान के थिराए प्रकाश के बीच नहीं बचा अब कोई फ़र्क
झूलती है अपनी ही परछाईं पर, छादन की बोगनबेल
झरोखे के खोखल में उड़ती है सोऊ पंडूक की नाक तक
आँगन की निबौरी की गंध
छत के भीतर की बल्ली से सरकता है नीचे को चमगादड़
धुल गया है इस वक्त
रास्ते को लगा दोपहर की धूप का जंग
फूटती हैं मेरे अधखुले कमरे के दरवाज़े से
गर्मी की धाराएँ
और सीढ़ियों तक पहुँचते पहुँचते फसक पड़ती है ढेलों की तरह
खड़ा रहता हूँ मैं दुविधा में
कि बरस पड़ता है मुझ पर, पूरा का पूरा अमलताश !
[ सुरेंद्रनगर, गुजरात में 1937 में जन्में गुलाम मोहम्मद शेख देश-दुनिया में मूलरूप से एक चित्रकार के रूप में जाने / पहचाने जाते हैं | चित्रकार के रूप में उनकी जो ख्याति है और उन्होंने जो काम किया है, उसके कारण ही उन्हें अन्य कई पुरुस्कारों व सम्मानों के साथ पद्मश्री भी मिली है | गुलाम मोहम्मद शेख देश-दुनिया में भले ही एक चित्रकार के रूप में जाने जाते हों, लेकिन गुजराती साहित्य में एक लेखक और एक कवि के रूप में भी उनकी खासी प्रतिष्ठा है | चित्र-रचना के साथ-साथ कविता-लेखन में समान अधिकार रखने वाले गुलाम मोहम्मद शेख की यहाँ प्रस्तुत मूल गुजराती में लिखीं कविताओं का हिंदी अनुवाद ज्योत्स्ना मिलन ने किया है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र गुलाम मोहम्मद शेख की पेंटिंग्स के हैं | ]
Wednesday, June 2, 2010
वंशी माहेश्वरी की पाँच कविताएँ
|| पुल की तरह खुला है दिन ||
सुबह से तनकर
बिछा है पूरा दिन
पिछली रात के अनंत स्पर्श लिए |
धरती से कुछ ऊपर
आकाश से कुछ नीचे
पुल की तरह खुला है दिन |
तमाम अनुभूतियाँ / स्मृतियाँ
जुड़ेंगी
इसके अंतिम छोर
रात की किरकिराती आँखों में
पूरा दिन फिर आयेगा
हमेशा
व्यतीत की तरह |
फिर उद्भव
फिर अंत
मनुष्यों की यादगार की अंतहीन
पुनर्जीवित गाथाएँ
पुल से गुजरेंगी
कुछ पुल के ऊपर
कुछ पुल के नीचे |
|| नींद नहीं सपने नहीं ||
रात
अनगिनत सपने बाँटती है हर रात
कई सपने
भटक कर लौट आते हैं
उन सपनों को
अपनी नींद में उतारती है रात !
सुबह तक वह
भूल जाती है
टूटती जुड़ती
अनगढ़ सपनों की दुनिया
सुबह से दिन भर के सारे एकांत समेट कर
व्यथित हुए
अपने निहंग संसार को
अँधेरे में बुनकर
बाँटती है
लौट लौट आते हैं
थक
कर सपने
पिछली कई रातों से
रात की आँखों में
नींद नहीं
सपने नहीं
उतार आये हैं मनुष्य !
जो भोर होते-होते
बे नींद
जीवन में लौट जाते हैं !
|| निर्वासित ||
असह्य उदास
निरीह बूढ़े आदमी की तरह
हाँफता
निर्वासित दुःख
जो मेरा नहीं
नहीं कह सकता कि मेरा नहीं !
इस क़दर अकेला
गुमसुम होकर
अपने निरपेक्ष चेहरे पर
उजाड़ होती शिकायतों के बाहर फैली खामोशी में
समय के आख़री क्षण को समेट कर रखता है
अँधेरे खण्डहर स्वप्नों के लिए !
उसका
निराश आक्रोश
अभिशप्त के शरीर से बाहर झाँक कर
कितने ही इंतज़ारों में
देखता है
शताब्दियों की मर्मान्तक यातना !
हर दम आता-जाता रहा उसका आना जाना
उसकी आहट में
अतीत है
आकाश है
मन के अँधेरे से फूटता उजाला है
और .....करुणा की असीम ऊष्मा है !
|| व्यतीत ||
समय
घड़ी की तरह
शायद दीवार में
दिनारम्भ की फड़फड़ाती चेतना के साथ सूर्य
रोज़ाना
रोज़ाना ही उतरता जाता रहा है
कितने समय से
पता नहीं
कितने समय से
ये भी पता नहीं
कौन व्यतीत हो रहा है
समय या मनुष्य !
|| दिन का बीत जाना नहीं है ||
शायद बीतना दिन का स्वभाव है
बीत गए कई दिन |
कई दीवारें बनीं टूटीं
खण्डहर
बनते बिगड़ते चलते रहे
साँसों में उतरते .....
छोटी छोटी बातें
धड़कनों में बजती रहीं
स्मृतियों में
डूबती रही
शांति की लय
सहसा
चौंककर आसपास
वे दिन लौट आते हैं
आत्मा में धंस कर ....
[ पिपरिया से निकलने वाली पत्रिका 'तनाव' के संपादक वंशी माहेश्वरी हिंदी के परिचित कवि हैं | कविताओं के साथ दिए गए चित्र युवा चित्रकार सुनीता शर्मा की पेंटिंग्स के हैं | रीवा की सुनीता शर्मा स्वयं प्रशिक्षित चित्रकार हैं और रीवा, भोपाल, लखनऊ तथा दिल्ली में अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनियाँ कर चुकी हैं | चंडीगढ़, उदयपुर और मुंबई में आयोजित हुई समूह प्रदर्शनियों में भी उनकी पेंटिंग्स प्रस्तुत हुई हैं | सुनीता शर्मा कविताएँ भी लिखती हैं | ]
Labels:
ANAL KUMAR,
HINDI KAVI,
HINDI KAVITA,
PIPARIA,
REEVA,
SUNITA SHARMA,
VANSHI MAHESHWARI
Subscribe to:
Posts (Atom)