Wednesday, June 2, 2010

वंशी माहेश्वरी की पाँच कविताएँ



















|| पुल की तरह खुला है दिन ||

सुबह से तनकर
बिछा है पूरा दिन
पिछली रात के अनंत स्पर्श लिए |

धरती से कुछ ऊपर
आकाश से कुछ नीचे
पुल की तरह खुला है दिन |

तमाम अनुभूतियाँ / स्मृतियाँ
जुड़ेंगी
इसके अंतिम छोर
रात की किरकिराती आँखों में
पूरा दिन फिर आयेगा
हमेशा
व्यतीत की तरह |

फिर उद्भव
फिर अंत
मनुष्यों की यादगार की अंतहीन
पुनर्जीवित गाथाएँ
पुल से गुजरेंगी

कुछ पुल के ऊपर
कुछ पुल के नीचे |















|| नींद नहीं सपने नहीं ||

रात
अनगिनत सपने बाँटती है हर रात
कई सपने
भटक कर लौट आते हैं
उन सपनों को
अपनी नींद में उतारती है रात !

सुबह तक वह
भूल जाती है
टूटती जुड़ती
अनगढ़ सपनों की दुनिया

सुबह से दिन भर के सारे एकांत समेट कर
व्यथित हुए
अपने निहंग संसार को
अँधेरे में बुनकर
बाँटती है
लौट लौट आते हैं
थक
कर सपने

पिछली कई रातों से
रात की आँखों में
नींद नहीं
सपने नहीं
उतार आये हैं मनुष्य !
जो भोर होते-होते
बे नींद
जीवन में लौट जाते हैं !















|| निर्वासित ||

असह्य उदास
निरीह बूढ़े आदमी की तरह
हाँफता
निर्वासित दुःख
जो मेरा नहीं
नहीं कह सकता कि मेरा नहीं !

इस क़दर अकेला
गुमसुम होकर
अपने निरपेक्ष चेहरे पर
उजाड़ होती शिकायतों के बाहर फैली खामोशी में
समय के आख़री क्षण को समेट कर रखता है
अँधेरे खण्डहर स्वप्नों के लिए !

उसका
निराश आक्रोश
अभिशप्त के शरीर से बाहर झाँक कर
कितने ही इंतज़ारों में
देखता है
शताब्दियों की मर्मान्तक यातना !

हर दम आता-जाता रहा उसका आना जाना
उसकी आहट में
अतीत है
आकाश है
मन के अँधेरे से फूटता उजाला है
और .....करुणा की असीम ऊष्मा है !



















|| व्यतीत ||

समय
घड़ी की तरह
शायद दीवार में

दिनारम्भ की फड़फड़ाती चेतना के साथ सूर्य
रोज़ाना
रोज़ाना ही उतरता जाता रहा है

कितने समय से
पता नहीं

कितने समय से
ये भी पता नहीं
कौन व्यतीत हो रहा है
समय या मनुष्य !












|| दिन का बीत जाना नहीं है ||

शायद बीतना दिन का स्वभाव है
बीत गए कई दिन |

कई दीवारें बनीं टूटीं
खण्डहर
बनते बिगड़ते चलते रहे
साँसों में उतरते .....

छोटी छोटी बातें
धड़कनों में बजती रहीं
स्मृतियों में
डूबती रही
शांति की लय

सहसा
चौंककर आसपास
वे दिन लौट आते हैं
आत्मा में धंस कर ....

[ पिपरिया से निकलने वाली पत्रिका 'तनाव' के संपादक वंशी माहेश्वरी हिंदी के परिचित कवि हैं | कविताओं के साथ दिए गए चित्र युवा चित्रकार सुनीता शर्मा की पेंटिंग्स के हैं | रीवा की सुनीता शर्मा स्वयं प्रशिक्षित चित्रकार हैं और रीवा, भोपाल, लखनऊ तथा दिल्ली में अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनियाँ कर चुकी हैं | चंडीगढ़, उदयपुर और मुंबई में आयोजित हुई समूह प्रदर्शनियों में भी उनकी पेंटिंग्स प्रस्तुत हुई हैं | सुनीता शर्मा कविताएँ भी लिखती हैं | ]

4 comments:

  1. bahut gahri kavitayen


    dhanyawad padwane ke liye

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  2. बहुत प्रभावशाली कविताएँ...

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  3. राजेंद्र पाठकJune 3, 2010 at 5:59 PM

    सुनीता शर्मा के चित्रों का प्रतिसंसार व्यक्ति-मन के अंतर्जगत की उथल-पुथल को रूपायित करता है और उनके चित्रों में दिखने वाली प्रयोगधर्मिता एक खोज-प्रक्रिया का प्रतिफलन है | मुझे याद है कि क़रीब दो वर्ष पहले दिल्ली में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की कलादीर्घा में सुनीता शर्मा के चित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए प्रख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा ने उनके चित्रों की भूरी-भूरी प्रशंसा की थी |

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  4. कल मंगलवार को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है



    http://charchamanch.blogspot.com/

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