Saturday, September 18, 2010

रमेशचंद्र शाह की कविताएँ



















|| कछुए की पीठ पर ||

कछुए की पीठ पर चिकोटी काटते
क्या है मेरे पास अपने शब्दों की
सचाई नापने के लिए
सिवा एक बूढ़ी
और जगह-जगह चिटखी हुई नस के !

ज़बान में तालू की तरह
चिपका यह बोझ
किसी अनजान आदमी का
अब मेरे सिर से अलग नहीं

हर आती-जाती गाड़ी के साथ
खामखाह थरथराता...
कितना अजीब है यह मकान
जिसमें मेहमान हूँ मैं

छुट्टी मनाने के रास्ते में
सड़ते खलिहान... और
ओलों से पटे हुए बागीचे

भूल गया हूँ मैं
किधर से आया था
किधर को जाऊँगा

घंटा भर पहले ट्रक से कुचला हुआ कुत्ता
अभी... हाँफ रहा है
मैं किस को बनाऊँ अपना आईना
उन सूखे ढोकों को
इस गँदली बाढ़ को?

ज़िन्दा कविता सन्निपात का पुल है
इस बेख़बर बहाव में
भीगने से इनकार करते हुए
ठहर जाती है मेरी निगाह
सड़क के आरपार लेटी हुई छाया पर
















|| फ़िलहाल ||

फूटा एक रंग
अँधेरे का
अँधेरे में

रात भर सोई सड़क
उठती दीवार सी
खोलती खिड़की एक
देखती अँधेरे में
रंगा हुआ आसमान

रंगों की हलचल थी सुबह कभी
रंगों की नींद रात
सपने दिखाती थी रंग के

रंग है अभी तो
फ़िलहाल यह अँधेरा

सड़क की आहट पर
टूटता हुआ आसमान
छूटता हुआ घर
टूटना नहीं है यह
छूटना नहीं है सिर्फ़
हल्का पड़ जाना है
रंगों की तरह...

लौटता है घर आसमान को
लौटती हैं सड़कें
सड़कों को लपेट कर
लौटतीं एक दीवार ओढ़कर सड़कें
गुम हो जातीं
अपने अँधेरे में
लौटते हैं रंग फिर
लौटता अँधेरा

लौटते हैं तारे

लौटते अनन्त घर
अनन्त आसमान में



















|| चोटियाँ ||

चोटियाँ
रहने के लिए नहीं होतीं
और घाटियाँ
सिर्फ़ बहने के लिए होती हैं |

चोटियाँ
गल-गल कर
घाटियों तक पहुचती हैं |
घाटियाँ
कल-कल कर
उन्हीं का स्वर गुँजाती हैं |

दोनों से अलग
दोनों की सुनता मै
इस भूगोल का क्या करूँ ?
जो न रहने की बात जानता है
न बहने की;
जो जानता है सिर्फ़ अपने
दहने को, सहने को;

जो
उस दहने और सहने के ही
कहने में आकर
उन्हें कभी भी नहीं पाता
सिर्फ़
कहने को तरसता है
चोटियों को |
घाटियों को |



















|| नाम काट दो ||

बन हो गई है मेरी समझ
चाभी देना
मै अक्सर भूल जाता हूँ
मेरा नाम काट दो |

मुझे अपनी कक्षा तक
याद नहीं रहती |
साड़ी कक्षाएँ मुझे एक सी दिखती हैं |
बावजूद लगातार मौजूद रहने के
उपस्थिति मेरी बेतहाशा
गिर रही है |

मुझे कुछ भी नहीं सूझता |
श्यामपट पर भी
एक धुँधले काले
एक धुँधले सफ़ेद के सिवा
कुछ भी नहीं दीखता मुझे
कुछ भी नहीं सूझता |
मुझे कुछ भी नहीं सुनाई पड़ता
सिवा एक अंतहीन शोर के...|

कक्षा में रहकर भी मुझे यही लगता है |
बाहर खड़ा हूँ मैं
जबकि बाहर मुझे कोई नहीं करता
जबकि मैं चाहे जिस कक्षा में घुस जाऊँ
मुझे कोई कुछ भी नहीं कहता |
मुझे अंदर रखने में जाने किसकी कुशल है
मुझे नहीं मालूम |

मेरी बदतमीज़ियाँ भी
लौट-लौट आई हैं मेरे पास बाइज्ज़त |

आम शरारतों को दुहरा-दुहरा कर भी
वापस नहीं ला सका मैं
अब तक अपनी याददाश्त |

मैं अपनी ग्लानि का किससे लूँ प्रतिशोध ?
गुरुओं ? सहपाठियों से?
मेरा नाम काट दो |
मुझे अपनी ग्लानि में तो कम से कम,
मौलिक रह जाने दो |

मेरा चाल-चलन अब सुधरने से रहा;
कोई राज़ बाकी अब उघरने से रहा;

मेरी उम्मीद छोड़ दो |
इतनी सारी बहियों में
किसी के भी नाम के साथ
मेरा काम जोड़ दो |

रहा मेरा भविष्य
उस भरे घड़े को तुम
प्रार्थना सभा में कल
सबके सामने फोड़ दो |

मेरा नाम काट दो |
सुना मेरा बाप भी कभी
इसी स्कूल में पढ़ता था |
उसका नाम रहने दो |

मेरा नाम काट दो |

[ हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार रमेशचंद्र शाह उन बिरले रचनाकारों में से एक हैं जिनके लिये लेखन की तमाम ज्ञात एवं अज्ञात विधाओं को एक साथ साध लेने का कौशल जुड़ा है | यहाँ उनकी कविताओं के साथ लगे चित्र अहमदाबाद के युवा चित्रकार अर्पित बिलोरिया की पेंटिंग्स के हैं | ]

Friday, September 10, 2010

तरसेम गुजराल की पंजाबी कविताएँ



















|| निस्सारता की कला ||

पुरानी हो गई बूढ़ी सदी
पुरानी हो गई ग़रीब पर दया
पुराना पड़ गया
इंसाफ़ के हक़ में
कुदाल उठाता मज़दूर |

विज्ञापन में लड़की का बदन ताज़ा है
सिगरेट के हवा में उड़ते छल्ले ताज़ा हैं
गोरेपन की क्रीम फिर भी ताज़ा है
खनिज के साथ बिक रहा
तुम्हारा ख़ून भी ताज़ा है |

मिट्टी मिट्टी होती ज़मीन ने कुछ कहा नहीं
सूखते हुए तालाब ने
उठते शॉपिंग मॉल्स पर कुछ कहा नहीं |
इतिहास की गली में जो जाने को तैयार नहीं
कहता है करमावाली का भट्ठा आख़िरी है
पवित्र पापी* का घड़ीसाज़ आख़िरी है
कोने का वह मोची भी आख़िरी है
पिता का श्राद्ध भी आख़िरी है |
[ पवित्र पापी : नानक सिंह का उपन्यास ]



















|| कश्मीर से विस्थापित ||

बची हुई जगह में
उसके फैल नहीं पाते इरादे
भटकन में आकाश का
फ़ैसला नहीं कर पाती
कि कितना उसका |

बची हुई जगह में
भीतर उतरती है
तो बीते का दर्द
पसलियों से उठता है
मरोड़ कर रख देता है पूरी देह |

सेब जैसे गाल सेब जैसे नहीं रहे
परन्तु दाँत बहुत-से लोग लगाए बैठे हैं |



















|| बयान ||

जब बारिश ने कोहराम मचा दिया
मैंने पवनदूत से आकाश विचरण करते हुए आँसू बहाए
क़र्ज़ में डूबे किसान ने आत्महत्या की
मैंने पाठ रखवाया
उसकी आत्मा की शांति के लिए |

उस इज्ज़त लुटी कबूतरी की
मैंने पाले हुए बिल्ले से शादी करवा दी
पुलिसे ने तोड़ डाली मज़दूरों की हड्डियाँ
मैंने प्रत्येक टूटी टांग के बीस हज़ार
प्रत्येक टूटी बाँह के पचास हज़ार दिलवाए |

क्या नहीं किया मैंने
विचारों को विचारों तक ही
रखने वाले क़लमनवीसों को
पुरस्कृत किया
ख़ाली कुर्सी की आत्मा के लिए
पूजाघर बनवाए |

आज तुम कहते हो
बारिश में जिनके मकान गिरे
अभी तक नहीं बने |
किसान को बचाया जाना ज़रूरी
कबूतरी को मैंने ही मरवाया |
मज़दूर हमारे कानों के बंद होने से पिटे |
विचारों में बहुत थी पेचदार गलियाँ
और ख़ाली कुर्सियों की पूजा
मंदी सफ़ेद हाथियों को पालने से जुड़ी है
अब तुम ही बताओ
तुम्हें गुरबद वाली इमारत दूँ या तुम्हारा अचार डालूँ ?















|| नींद के बाहर ||

बहुत सो लिया
तुम्हें भी जागना होगा
मुझे भी |

जागना होगा
कि एक चीख़ सुनते ही
खुल जाएँ सभी खिड़कियाँ
ताकि शब्दों में ढल जाए, वह ज़हर
जो पीते रहे लोग चुपचाप |

जागना ही होगा
कि चमत्कार हथेली पे नहीं उगते
आलू की सब्ज़ी से लेकर
स्वप्न को आकार देने तक
मेहनत आदमी का धर्म है |

जागना ही होगा
कि सोते हुए
व्यवस्था, क़ानून और संविधान
तुम्हारी क़मीज़ चुरा लेने वाले को
कोई सज़ा नहीं देते |

जागना ही होगा
कि इस वक्त
चंद किरणों ने
अँधेरे को बालों से पकड़ रखा है |

[ तरसेम गुजराल पंजाबी के सक्रिय लेखक हैं | कहानी, उपन्यास व कविता की उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं | भाषा विभाग से वह पुरस्कृत हैं | यहाँ जो कविताएँ दी गईं हैं, उनका अनुवाद ख़ुद तरसेम गुजराल ने ही किया है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र ललित शर्मा की पेंटिंग्स के हैं | उदयपुर के ललित शर्मा अपने परिवार में पांचवीं चित्रकार पीढ़ी का नेतृत्व करते हैं | पारंपरिक कला का प्रशिक्षण उन्हें अपने परिवार में ही मिला | उदयपुर यूनीवर्सिटी से कला की उच्च शिक्षा प्राप्त करते हुए ललित शर्मा का परिचय समकालीन कला से हुआ और तब उन्होंने पारंपरिक व समकालीन कला के मेल से अपनी कला को विकसित किया | उदयपुर, उज्जैन, जयपुर, अहमदाबाद, पुणे, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, नई दिल्ली में वह अपने चित्रों को कहीं एकल प्रदर्शनियों में तो कहीं समूह प्रदर्शनियों में प्रदर्शित कर चुके हैं और विभिन्न शहरों में सम्मानित व पुरस्कृत हो चुके हैं | ]

Saturday, September 4, 2010

अंकुर बेटगेरी की कविताएँ















|| शहर में अजनबी ||

पैदा हुआ बैंगलोर में
पर यह शहर मेरा नहीं
क्योंकि वे बेचते हैं इसे
और मुझे करते हैं ख़रीदने को विवश
हरदम एक बताए गए तयशुदा रास्ते पर
चलने को मजबूर मैं
अजनबी शहर में एक अजनबी

रेस्तराँ में टूरिस्ट
मॉल में टूरिस्ट
सिनेमा हॉल में टूरिस्ट
पार्क में भी टूरिस्ट ही हूँ मैं

पैसा फेंको, तमाशा देखो
और चलता करो !
टिकट की शक्ल में ख़रीदा गया
जो समय और जितना
मेरा है बस उतना
पर यह समय नहीं रच सकता कोई स्मृति
क्योंकि इसकी कोई ज़मीन नहीं
जिसमें मैं धँसा सकूँ अपनी जड़ें

मैं किसी भ्रूण की तरह सोता हूँ सिकुड़कर
अपने इर्द-गिर्द की चीज़ों की अनुपस्थिति में
उनकी गर्माहट से ऊर्जा पाता
मेरे जीने का हिस्सा नहीं बन सकती जो
मैं अकेला और मुक्त
किसी चाबी से चलायमान गतिविधियों के
निर्वात में झूलता

जब मैं लिखता हूँ
जो कुछ है, उसका चमत्कार छूता है मुझे
और इस तरह मैं धीरे-धीरे
जीवंत हो उठता हूँ
और यह दुनिया भी मेरे भीतर
जीवंत हो उठती है !















|| मै पानी हूँ ||

मै प्यार करना और प्यार किया जाना पसंद करता हूँ
मैं और ज़्यादा प्यार करना और
ज़्यादा प्यार किया जाना पसंद करता हूँ
मैं हर जगह होना पसंद करता हूँ
और हर काम करना चाहता हूँ
मैं एक चिंपाज़ी हूँ जो सोचता है, सोचता है और सोचता है
और इस तरह व्यवहार करता है मानों उसने पूरे ब्रह्मांड को
अपने माथे में भर लिया है
मैं पानी हूँ और उन सब लोगों के शरीर में घुस जाता हूँ
जिन्हें पसंद करता हूँ और उनकी साँसों में
थरथराता हुआ ठहर जाता हूँ
मैं पानी हूँ, जब मै ख़ुश होता हूँ, फूट पड़ता हूँ
और हर जगह बहने लगता हूँ
मैं पानी हूँ और जहाँ खुशियों और दर्द के आंसू हैं, मैं वहाँ हूँ
मैं पानी हूँ, मेरा कोई किनारा नहीं है
और मैं किसी भी चीज़ में पूरी तरह भरा नहीं जा सकता
(जिसमें भी भरा जाता हूँ, बाहर छलकने लगता हूँ)
मैं पानी हूँ, जहाँ संसार के सारे शिशु अपना
पहला स्वप्न देखते हैं, मैं वहाँ हूँ
मैं पानी हूँ, मैं अपने जमे हुए हृदय से
बिजली और गड़गड़ाहट पैदा करता हूँ
मैं पानी हूँ और जब मैं भावुक होता हूँ
मै लहर पैदा नहीं करूँ, संभव नहीं
जब मैं बहुत ही भावुक होता हूँ
मैं ज्वार भी पैदा कर सकता हूँ
मैं पानी हूँ, मैं बवंडरों से पानी की प्रतिमाएँ बनाता हूँ
जो शहर से ऊँची उठती हैं, पर ठहरती नहीं
मैं पानी हूँ, मैं गर्म दोपहरों की बारिश की शांति हूँ
जो होशो-हवास में गिरती है, जब भी बेहोशी में खोई-खोई
मैं पानी हूँ, कितनी सारी चीज़ें मुझे पारिभाषित करती हैं
लेकिन तब भी कोई एक भी चीज़ मुझे पारिभाषित नहीं करती
मैं पानी हूँ, अँजुरी भर मुझे लो
मुझमें लोगों के समुद्र जैसा स्वाद है !



















|| प्यार ||

तेरे भीतर से तोड़ लेता है तुझे
और मेरे भीतर से मुझे
और छोड़ देता है इन्हें
अनंत में
जैसे बसंती बयार में
फूलों की पंखुड़ियाँ हों-
प्यार बस यही तो करता है !

फ़िज़ा में बस एक महक रह जाती है..

शिराओं में जान आ जाती है
जब तेरे भीतर की तू मिलती है
मेरे भीतर के मैं से

तैरती हुई
मद्धम धुनों की तरह
समय की सिंफनी में !



















|| कविताई ||

कविता की पहली शर्त यही
कि ख़ुद को कभी गंभीरता से मत लो
पर तब भी अपने भीतर की आवाज़ के प्रति
बने रहो वफ़ादार

तुम्हारा दर्द कुछ और नहीं
तुम्हारी सच्चाई का गाढ़ापन है
जिनसे तुम्हारे अंतस की छवियाँ
पाती हैं शब्द रूप

इसके अलावा हर चीज़ अतिरिक्त
चाहे वह प्यार की पेचीदगियाँ हों
या निजी संत्रास
जो पैदा हुईं ख़ुशियों की तलाश में

कविता रोज़मर्रे की सलवटों को सुलझाती हैं
और आपके अंदर की गुनगुनाहट को
तब तक करती है तीव्र
जब तक कि यह आपके सत्व को
व्यवस्थित नहीं कर देती
और एक गुंजायमान संगीत रह जाता है शेष !

[ कन्नड और अंग्रेज़ी के युवा कवि अंकुर बेटगेरि का अंग्रेज़ी में 'द सी ऑफ़ साइलेंस' तथा दो कविता-संग्रह कन्नड में प्रकाशित हैं | यहाँ दी गईं कविताएँ मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखी गई हैं, जिनका अनुवाद राहुल राजेश ने किया है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र दीपा सेठ की पेंटिंग्स के हैं | शिमला में कला की विधिवत शिक्षा प्राप्त करने वाली दीपा सेठ की पेंटिंग्स कई जगह प्रदर्शित हो चुकी हैं | ]