Saturday, September 4, 2010
अंकुर बेटगेरी की कविताएँ
|| शहर में अजनबी ||
पैदा हुआ बैंगलोर में
पर यह शहर मेरा नहीं
क्योंकि वे बेचते हैं इसे
और मुझे करते हैं ख़रीदने को विवश
हरदम एक बताए गए तयशुदा रास्ते पर
चलने को मजबूर मैं
अजनबी शहर में एक अजनबी
रेस्तराँ में टूरिस्ट
मॉल में टूरिस्ट
सिनेमा हॉल में टूरिस्ट
पार्क में भी टूरिस्ट ही हूँ मैं
पैसा फेंको, तमाशा देखो
और चलता करो !
टिकट की शक्ल में ख़रीदा गया
जो समय और जितना
मेरा है बस उतना
पर यह समय नहीं रच सकता कोई स्मृति
क्योंकि इसकी कोई ज़मीन नहीं
जिसमें मैं धँसा सकूँ अपनी जड़ें
मैं किसी भ्रूण की तरह सोता हूँ सिकुड़कर
अपने इर्द-गिर्द की चीज़ों की अनुपस्थिति में
उनकी गर्माहट से ऊर्जा पाता
मेरे जीने का हिस्सा नहीं बन सकती जो
मैं अकेला और मुक्त
किसी चाबी से चलायमान गतिविधियों के
निर्वात में झूलता
जब मैं लिखता हूँ
जो कुछ है, उसका चमत्कार छूता है मुझे
और इस तरह मैं धीरे-धीरे
जीवंत हो उठता हूँ
और यह दुनिया भी मेरे भीतर
जीवंत हो उठती है !
|| मै पानी हूँ ||
मै प्यार करना और प्यार किया जाना पसंद करता हूँ
मैं और ज़्यादा प्यार करना और
ज़्यादा प्यार किया जाना पसंद करता हूँ
मैं हर जगह होना पसंद करता हूँ
और हर काम करना चाहता हूँ
मैं एक चिंपाज़ी हूँ जो सोचता है, सोचता है और सोचता है
और इस तरह व्यवहार करता है मानों उसने पूरे ब्रह्मांड को
अपने माथे में भर लिया है
मैं पानी हूँ और उन सब लोगों के शरीर में घुस जाता हूँ
जिन्हें पसंद करता हूँ और उनकी साँसों में
थरथराता हुआ ठहर जाता हूँ
मैं पानी हूँ, जब मै ख़ुश होता हूँ, फूट पड़ता हूँ
और हर जगह बहने लगता हूँ
मैं पानी हूँ और जहाँ खुशियों और दर्द के आंसू हैं, मैं वहाँ हूँ
मैं पानी हूँ, मेरा कोई किनारा नहीं है
और मैं किसी भी चीज़ में पूरी तरह भरा नहीं जा सकता
(जिसमें भी भरा जाता हूँ, बाहर छलकने लगता हूँ)
मैं पानी हूँ, जहाँ संसार के सारे शिशु अपना
पहला स्वप्न देखते हैं, मैं वहाँ हूँ
मैं पानी हूँ, मैं अपने जमे हुए हृदय से
बिजली और गड़गड़ाहट पैदा करता हूँ
मैं पानी हूँ और जब मैं भावुक होता हूँ
मै लहर पैदा नहीं करूँ, संभव नहीं
जब मैं बहुत ही भावुक होता हूँ
मैं ज्वार भी पैदा कर सकता हूँ
मैं पानी हूँ, मैं बवंडरों से पानी की प्रतिमाएँ बनाता हूँ
जो शहर से ऊँची उठती हैं, पर ठहरती नहीं
मैं पानी हूँ, मैं गर्म दोपहरों की बारिश की शांति हूँ
जो होशो-हवास में गिरती है, जब भी बेहोशी में खोई-खोई
मैं पानी हूँ, कितनी सारी चीज़ें मुझे पारिभाषित करती हैं
लेकिन तब भी कोई एक भी चीज़ मुझे पारिभाषित नहीं करती
मैं पानी हूँ, अँजुरी भर मुझे लो
मुझमें लोगों के समुद्र जैसा स्वाद है !
|| प्यार ||
तेरे भीतर से तोड़ लेता है तुझे
और मेरे भीतर से मुझे
और छोड़ देता है इन्हें
अनंत में
जैसे बसंती बयार में
फूलों की पंखुड़ियाँ हों-
प्यार बस यही तो करता है !
फ़िज़ा में बस एक महक रह जाती है..
शिराओं में जान आ जाती है
जब तेरे भीतर की तू मिलती है
मेरे भीतर के मैं से
तैरती हुई
मद्धम धुनों की तरह
समय की सिंफनी में !
|| कविताई ||
कविता की पहली शर्त यही
कि ख़ुद को कभी गंभीरता से मत लो
पर तब भी अपने भीतर की आवाज़ के प्रति
बने रहो वफ़ादार
तुम्हारा दर्द कुछ और नहीं
तुम्हारी सच्चाई का गाढ़ापन है
जिनसे तुम्हारे अंतस की छवियाँ
पाती हैं शब्द रूप
इसके अलावा हर चीज़ अतिरिक्त
चाहे वह प्यार की पेचीदगियाँ हों
या निजी संत्रास
जो पैदा हुईं ख़ुशियों की तलाश में
कविता रोज़मर्रे की सलवटों को सुलझाती हैं
और आपके अंदर की गुनगुनाहट को
तब तक करती है तीव्र
जब तक कि यह आपके सत्व को
व्यवस्थित नहीं कर देती
और एक गुंजायमान संगीत रह जाता है शेष !
[ कन्नड और अंग्रेज़ी के युवा कवि अंकुर बेटगेरि का अंग्रेज़ी में 'द सी ऑफ़ साइलेंस' तथा दो कविता-संग्रह कन्नड में प्रकाशित हैं | यहाँ दी गईं कविताएँ मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखी गई हैं, जिनका अनुवाद राहुल राजेश ने किया है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र दीपा सेठ की पेंटिंग्स के हैं | शिमला में कला की विधिवत शिक्षा प्राप्त करने वाली दीपा सेठ की पेंटिंग्स कई जगह प्रदर्शित हो चुकी हैं | ]
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