Friday, September 10, 2010

तरसेम गुजराल की पंजाबी कविताएँ



















|| निस्सारता की कला ||

पुरानी हो गई बूढ़ी सदी
पुरानी हो गई ग़रीब पर दया
पुराना पड़ गया
इंसाफ़ के हक़ में
कुदाल उठाता मज़दूर |

विज्ञापन में लड़की का बदन ताज़ा है
सिगरेट के हवा में उड़ते छल्ले ताज़ा हैं
गोरेपन की क्रीम फिर भी ताज़ा है
खनिज के साथ बिक रहा
तुम्हारा ख़ून भी ताज़ा है |

मिट्टी मिट्टी होती ज़मीन ने कुछ कहा नहीं
सूखते हुए तालाब ने
उठते शॉपिंग मॉल्स पर कुछ कहा नहीं |
इतिहास की गली में जो जाने को तैयार नहीं
कहता है करमावाली का भट्ठा आख़िरी है
पवित्र पापी* का घड़ीसाज़ आख़िरी है
कोने का वह मोची भी आख़िरी है
पिता का श्राद्ध भी आख़िरी है |
[ पवित्र पापी : नानक सिंह का उपन्यास ]



















|| कश्मीर से विस्थापित ||

बची हुई जगह में
उसके फैल नहीं पाते इरादे
भटकन में आकाश का
फ़ैसला नहीं कर पाती
कि कितना उसका |

बची हुई जगह में
भीतर उतरती है
तो बीते का दर्द
पसलियों से उठता है
मरोड़ कर रख देता है पूरी देह |

सेब जैसे गाल सेब जैसे नहीं रहे
परन्तु दाँत बहुत-से लोग लगाए बैठे हैं |



















|| बयान ||

जब बारिश ने कोहराम मचा दिया
मैंने पवनदूत से आकाश विचरण करते हुए आँसू बहाए
क़र्ज़ में डूबे किसान ने आत्महत्या की
मैंने पाठ रखवाया
उसकी आत्मा की शांति के लिए |

उस इज्ज़त लुटी कबूतरी की
मैंने पाले हुए बिल्ले से शादी करवा दी
पुलिसे ने तोड़ डाली मज़दूरों की हड्डियाँ
मैंने प्रत्येक टूटी टांग के बीस हज़ार
प्रत्येक टूटी बाँह के पचास हज़ार दिलवाए |

क्या नहीं किया मैंने
विचारों को विचारों तक ही
रखने वाले क़लमनवीसों को
पुरस्कृत किया
ख़ाली कुर्सी की आत्मा के लिए
पूजाघर बनवाए |

आज तुम कहते हो
बारिश में जिनके मकान गिरे
अभी तक नहीं बने |
किसान को बचाया जाना ज़रूरी
कबूतरी को मैंने ही मरवाया |
मज़दूर हमारे कानों के बंद होने से पिटे |
विचारों में बहुत थी पेचदार गलियाँ
और ख़ाली कुर्सियों की पूजा
मंदी सफ़ेद हाथियों को पालने से जुड़ी है
अब तुम ही बताओ
तुम्हें गुरबद वाली इमारत दूँ या तुम्हारा अचार डालूँ ?















|| नींद के बाहर ||

बहुत सो लिया
तुम्हें भी जागना होगा
मुझे भी |

जागना होगा
कि एक चीख़ सुनते ही
खुल जाएँ सभी खिड़कियाँ
ताकि शब्दों में ढल जाए, वह ज़हर
जो पीते रहे लोग चुपचाप |

जागना ही होगा
कि चमत्कार हथेली पे नहीं उगते
आलू की सब्ज़ी से लेकर
स्वप्न को आकार देने तक
मेहनत आदमी का धर्म है |

जागना ही होगा
कि सोते हुए
व्यवस्था, क़ानून और संविधान
तुम्हारी क़मीज़ चुरा लेने वाले को
कोई सज़ा नहीं देते |

जागना ही होगा
कि इस वक्त
चंद किरणों ने
अँधेरे को बालों से पकड़ रखा है |

[ तरसेम गुजराल पंजाबी के सक्रिय लेखक हैं | कहानी, उपन्यास व कविता की उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं | भाषा विभाग से वह पुरस्कृत हैं | यहाँ जो कविताएँ दी गईं हैं, उनका अनुवाद ख़ुद तरसेम गुजराल ने ही किया है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र ललित शर्मा की पेंटिंग्स के हैं | उदयपुर के ललित शर्मा अपने परिवार में पांचवीं चित्रकार पीढ़ी का नेतृत्व करते हैं | पारंपरिक कला का प्रशिक्षण उन्हें अपने परिवार में ही मिला | उदयपुर यूनीवर्सिटी से कला की उच्च शिक्षा प्राप्त करते हुए ललित शर्मा का परिचय समकालीन कला से हुआ और तब उन्होंने पारंपरिक व समकालीन कला के मेल से अपनी कला को विकसित किया | उदयपुर, उज्जैन, जयपुर, अहमदाबाद, पुणे, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, नई दिल्ली में वह अपने चित्रों को कहीं एकल प्रदर्शनियों में तो कहीं समूह प्रदर्शनियों में प्रदर्शित कर चुके हैं और विभिन्न शहरों में सम्मानित व पुरस्कृत हो चुके हैं | ]

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