Wednesday, December 22, 2010

वीरभद्र कार्कीढोली की कविताएँ



















|| जीने की बातें ||

देखा है मैंने पत्थरों को रोते हुए
लेकिन नहीं देखा रोते हुए विश्वास को |

सभी जीतों को जीत नहीं मानना चाहिए
और न ही सभी हारों को हार
ज़िंदगी के मुकम्मल हिस्से में ही
जो ज़ख्मों को लिये फिरते हैं
मत सोचना
तृष्णा किसी-किसी के लिये
औषधि लेकर वापस आएगी |

आसान नहीं है जीना
कितनी बार कौन रीत जाता है,
कौन भर जाता है
लेकिन रीतता अवश्य है
भर जाता है अवश्य;
अनबुझ प्यास की
कभी मत करना आकांक्षा |

मेरे लोग धरती छोड़कर उड़ रहे हैं
आसमान में
सिर्फ़ मैं नहीं उड़ सका, पंख होते हुए भी
हैरान हूँ, किस तरह उड़ रहे हैं
बिना पंखों के लोग |

करते हैं जो कमरतोड़ मेहनत
उन्हें अहसास ही नहीं होता
आती हैं कितनी मुश्किलें राहों में

जीने की तनिक प्यास थी, मर गई |
सचमुच मैंने पत्थरों को
रोते देखा है |
लेकिन सच को नहीं देख पाया हूँ
और जो जीतते हैं
वे शक्तिशाली नहीं होते
हारने वाले कमजोर भी नहीं होते
मैंने बहुतों को नितांत रीता हुआ देखा है |
इसीलिये तो
मैंने पत्थरों को
रोते देखने का सौभाग्य पाया है |



















|| इस बार ||

इस बार
मैंने अपना जन्मदिन अकेले ही मनाया
मोमबत्ती जलाते ऊँगलियाँ जल गईं
और जन्मदिन के केक काटने वाले चाकू से
तक़रीबन आत्महत्या कर बैठा |

इस बार बसंत
आया कि नहीं, पता नहीं चला
आँगन में कोई फूल नहीं खिला
पंछी भी नहीं आए
घर के कबूतरों ने
नये चूजे नहीं बनाए |

इतनी हुई बारिश इस बार कि
शेष इच्छाओं और सपनों को
झड़ी और ओलों की मार ने
मार दिया, सभी मर गए |
वर्षों बाद मैंने इस बार
खोलकर देखा ख़ुद को
कितनी अधिक कमर झुक गई,
छटपटाते- छटपटाते
अंदर से तक़रीबन सड़-गल चुका हूँ |
इतना अधिक फट चुका हूँ कि
अब और फटने की गुंजाइश ही नहीं रही |

और आज मैं
उन मोमबत्तियों और इन ऊँगलियों को
उस केक और इस चाक़ू को देखते हुए
अपने जन्मदिन को याद कर रहा हूँ |
और उस क्षण के साथ तनिक भयभीत हूँ, सचमुच भयभीत हूँ |



















|| नहीं है मेरा अपना ईश्वर ||

मैंने कहा न,
मेरा अपना ईश्वर नहीं है |
मैंने बहुत पुकारा | बहुत-बहुत आवाज़ दी,
पर मेरी आवाज़ उन टीलों और पहाड़ियों ने
तुम तक पहुँचने ही नहीं दी |

मैंने बहुत देखा | इतना कि
जितनी ऊँचाइयाँ थीं, उन्हें चढ़कर भी
पर उस कोहरे और धुँध ने
तुम्हें देखने ही नहीं दिया |

उड़ नहीं सका आकाश, मगर
पता है
पंखों के बिना
मन के पंखों से अधिक उड़ा |
इतना अधिक कि
उसका वर्णन मुमकिन नहीं है
कविता की पंक्तियों में |

आजकल वर्षा और कोहरे से
आच्छादित दिन अच्छा नहीं लगता
बादल छाए हों और फैला हो कोहरा तो अच्छा नहीं लगता |
व्यर्थ ही बीत गया,
यह मार्च का महीना |
मार्च के महीने की ही तरह अप्रैल नहीं बीतेगा, कौन कह सकता है |
ये टीले, पहाड़ियाँ
नापसंद होने पर ही
मैंने उनकी ओर नज़र नहीं डाली |

भीड़ों और संगतों से क्यों अलग
हुआ, यह मत पूछो
कुछ खोकर जैसे कुछ खोज रहा हूँ |
उड़ रहे किसी पखेरू-से
क्यों एक क्षण के लिये
पंख उधार माँगने की इच्छा हो रही है ?

आज भी खिड़की खुलने पर पूर्ववत
उसी ओर नज़र जाती है |
उस उजाले और अँधेरे को क्या पता कि
मैंने उजाले और अँधेरे का वक्त कैसे बिताया है ?
मौसम की तरह मन नहीं बदल सका
पूर्ववत आजकल उड़ने की बातें भी
नहीं सोच सकता
मैंने बहुत पुकारा, देखा यहाँ से
साक्षी हैं वे बादल और कोहरे
ऊँचे टीले और पहाड़ियाँ
मुँडेर के पानी में
अँजुली भरने की याद आते ही
मुझे लगता है सचमुच ईश्वर मेरा
अपना नहीं है |
इसलिए मैं ईश्वर को नहीं पुकारता
ईश्वर को नहीं मानता |
शंख और घंटियों के स्वरों में
शांति और आनंद है, ऐसा नहीं सोचता |
क्योंकि मैंने ईश्वर को आज तक नहीं देखा |
जिस तरह मैं उन बादलों और कोहरों को देख रहा हूँ |

[ 1964 में जन्मे वीरभद्र कार्कीढोली के सात कविता संग्रह तथा कई-एक अनुवादित व संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं | प्रतिष्ठित स्रष्टा पुरस्कार के साथ-साथ कई अन्य संस्थाओं से भी वह पुरस्कृत हो चुके हैं | नेपाली में लिखी गईं इन कविताओं का अनुवाद सुवास दीपक ने किया है, जिनकी भी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं | कविताओं के साथ दिये गए चित्र ललित पंत द्वारा चारकोल से बनाई गई पेंटिंग्स के हैं | प्रतिष्ठित आईफैक्स पुरस्कार के साथ-साथ अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित ललित पंत कई एक समूह प्रदर्शनियों में तो अपने चित्रों को प्रदर्शित कर ही चुके हैं; अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी भी कर चुके हैं | ]

No comments:

Post a Comment