Sunday, April 4, 2010

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की चार कविताएँ













|| चमक ||

चमक है पसीने की
कसी हुई मांसपेशियों पर,
चमक है ख्वाबों की
तनी हुई भृकुटी पर |
चमक सुर्ख, तपे लोहे की घन में,
चमक बहते नाले की
शांत सोये वन में |
उसी चमक के सहारे मैं जिऊँगा
हर हादसे में आये जख्मों को सिऊँगा |













|| पहाड़ ||

भय से मुक्त किया तुमने
पर आशंका से नहीं |
जाने कब पहाड़ यह,
संतुलन बिगड़े
जा अतल में समाये
या फिर महाशून्य में
विलय हो जाये -
जिसे मैं अपनी छाती पर ढो रहा हूँ |
जिसके लिए निर्मल पारदर्शी जल
हो रहा हूँ |













|| हरा और पीला ||

फैले हरे पर
क्यों सिमटी पीली रेखा -
मैंने खुद को
तुम्हारी आँखों में देखा |
बाल मैं नहीं हूँ
लहराते धान का खेत में
जो कलगी बन जाऊं
दृश्य जगत का सेतमेत में
डंठल हूँ
इधर लेटा, उधर देता हूँ,
चारा हूँ पशुओं का
मत कहो प्रणेता हूँ |













|| चिड़िया ||

जितनी रंगीन चिड़ियाँ थीं मुझमें
सब उड़ गईं
जाने किन तरुओं गिरि-शिखरों से
जुड़ गईं
सूना नहीं हूँ मैं फिर भी ओ चितेरे,
राग बन कर के
सच मुझ में ही निचुड़ गईं |

[ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने यह कविताएँ प्रख्यात चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के प्रति अपने विगत स्नेह और एक बड़े कलाकार के प्रति अपनी श्रद्दा को प्रकट करने के उद्वेश्य से लिखी थीं | स्वामीनाथन का नाम उन थोड़े से कलाकर्मियों में शुमार किया जाता है जो बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्व में मनुष्य की अंतरात्मा और कला माध्यम के प्रश्नों को अटूट देखने में समर्थ हैं और जिनका कुछ भी सोचा-कहा-किया हुआ हमारे लिए एक गहरा अर्थ रखता है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र स्वामीनाथन की पेंटिंग्स के हैं | ]

2 comments:

  1. जे स्‍वामीनाथन के चित्रों के साथ सर्वेश्‍वर दयाल सक्‍सेना की कविताएं प्रस्‍तुत कर ऐसा प्रतीत हुआ मि मानो सोने में सुहागा हो...जय हो

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