Thursday, April 1, 2010

कुँवरनारायण की तीन कविताएँ



















|| एक दुराग्रह की हद तक ||

आदमी को पूरी तरह समझने के लिए
आवश्यक है
दूर - दूर तक उसके अतीत में जाना
- एक दुराग्रह की हद तक .....

केवल एक पशु - गंध को पकड़े
नाक की सीध में
अमीबा तक ही नहीं,
पढ़ना होगा
जीवाश्मों में संकेतित
उसकी प्रकृति के पूरे पंचांग को

भटकते रहना होगा
अनिर्दिष्ट काल तक
उस विरल 'ध्वनी' के लिए
जिससे उत्पन्न हुआ था पहला 'शब्द' ....

एक वंश - वृक्ष पर
सेब, साँप और बंदर,
वृक्ष के नीचे
प्रथम पुरुष और स्त्री
- इतना संयोग काफी नहीं

अखंड नक्षत्र-लोक को हलकोर कर
उन विश्रंखल कड़ियों को जोड़ना होगा
जिनके सुयोग से संभव हो पाती है एक स्रष्टि
तमाम विसंगतियों के बावजूद
















|| क्या चाहता हूँ ||

तुम्हारा वह परेशान सवाल
"आखिर तुम मुझसे चाहते क्या हो ?"

कैसे बताऊँ उस चाहने का अतापता
जो मेरे जीवन से बाहर
कहीं है ही नहीं |
जिसका सौंदर्य
वृक्षों से छनती धूप की तरह
झिलमिल है |

कैसे बताऊँ कि हो सकता है
एक ऐसा भी चाहना
जिसे शब्द नहीं दिए जा सकते | ....

मैं चाहता हूँ तुम्हें
पर खुद भी नहीं जानता
कि क्या चाहता हूँ तुम से |

शायद एक ऐसी अंतरंगता
जो अंगों की भाषा से व्यंजित हो
और उनसे मुक्त भी |

छूना चाहता हूँ तुम्हें
कुछ इस तरह
जैसे आग को छूती है आग
पानी को छूता है पानी
और छूते ही उनके बीच से
मिट जाता है स्थूल का अंतर |

एक पारिवारिक यथार्थ में
जकड़ी तुम्हारी देह,
धीरे - धीरे छीजता तुम्हारा रूप

कैसे बताऊँ कि पाना चाहता हूँ तुम्हें
कुछ इस तरह
जैसे पाया जाता है कभी-कभी
एक क्षणिक अनुभूति को
ठहरा कर
एक विरल जीवन - स्वप्न में




















|| माँ का कमरा ||

इस घर के कोने - कोने में बसे हैं वे
पूर्वज, सगे-संबंधी, उनकी चीजें, उनकी यादें |

ढीलाढाला वह पलंग
जैसे उस पर कोई लेटा हो |
आरामकुर्सी के पास रखा पीकदान |
पोपले मुँहवाले दद्दा की तस्वीर
जो बड़े कमरे में टँगी है |
आँगन में औंधा पड़ा टब |
वह पिचकी बाल्टी जो तब भी चूती थी
और जिसमें पानी कभी भी इतनी देर नहीं रुका
कि बासी हो पाता |
बेंत का बना वह मोढ़ा जिसे पहिये की तरह लुढ़का कर
मैं गलियारे में खेला करता था ..... सब - के - सब
न जाने कब से उसी समय में रखे हुए ......

और हाँ .....
वह कमरा
मेरी माँ की लंबी बीमारी के अंतिम दिनों का कमरा
जो तभी से बंद है
जिसमें आज भी कोई जीवित-सा लगता है,
मृत्यु से कहीं बड़े साहस भर जीवित |

[ यहाँ प्रदर्शित तीनों चित्र अनीता कृषाली की पेंटिंग्स के हैं | नई दिल्ली की त्रिवेणी कला संगम में एक चित्रकार के बतौर काम कर रहीं अनीता ने इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय से कला का कोर्स किया है | आईफैक्स की वार्षिक प्रदर्शनी में उनका काम चुना और प्रदर्शित हो जा चुका है | उसके आलावा भी कई समूह प्रदर्शनियों में अनीता कृषाली की पेंटिंग्स प्रदर्शित हो चुकी हैं | ]

1 comment:

  1. भरत शुक्लApril 2, 2010 at 5:49 PM

    'समय संकल्प' की शुरुआत आपने कुँवरनारायण की कविताओं से की, यह कुँवरनारायण की कविताओं के प्रति आपके सम्मान को तो दर्शाता ही है, साथ ही कुँवरनारायण की कविता की 'पहुँच' को भी प्रकट करता है | कुँवरनारायण निस्संदेह एक बड़े कवि हैं और यह कविताएँ उनकी पहचान के अनुरूप ही हैं | अनीता कृषाली की पेंटिंग्स भी समकालीन समय की विसंगतियों तथा उम्मीदों को अभिव्यक्त करती हैं |

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