Thursday, April 8, 2010
दिनेश जुगरान की कविताएँ
|| रूख्सत से पहले ||
मैंने ही हर बार
देर की है
निर्णय लेने में
हवा तो कई बार गुजरी
मेरे बहुत करीब से
हाथ थे जिस्म में लिपटे हुए
और मुट्ठियाँ बंद
आवाज़ें भटकती हुई
रोशनी वाले चौराहे से
गुजर कर
मेरी गली की कगार तक
पहुँच गई हैं
एक हत्यारा भी
दाखिल होने वाला होगा
उसकी परछाईं बिखरी हुई है
इस बेजान लम्हे में
तुम मेरे बहुत करीब से भी गुजरो
तो भी
उन हमला करने वाले हाथों को
देख नहीं पाओगे
बचाना तो कभी
तुम्हारी कोशिश में शामिल नहीं था
इस शहर की पुरानी इमारतें
अपने मौन में
किसे याद करती हैं
इनकी आखें कहाँ हैं
कोई भी आवाज क्यों सुनाई नहीं देती
सारी खामोशी मेरी पीठ पर लदी है
एक अजनबी
दीवार के पास खड़ा
मुस्कुरा रहा है
वे लम्हे
जिन्हें मैंने अपना साक्षी बनाया था
मेरी हड्डियों में चुभ रहे हैं
एक गूँगा व्यक्ति
बहुत देर से
मेरे करीब बैठा हुआ है
मेरी आवाज का सारा तिलिस्म
गायब हो चुका है
बहुत सारे चकनाचूर चेहरों के बीच
तुम मुझे साफ दिखाई दे रहे हो
एक तारा
जिसकी आँखें हैं नम
हौले से आवाज देकर
रोकता है मुझे
उसकी मुट्ठियों में बंद है
शायद
रूख्सत से पहले
गुजरा हुआ वक्त
मेरी याददाश्त का फ़रिश्ता
कहीं गुम हो गया है
जब देर रात
देह में उठता है दर्द
तब मेरी आँखों
और होठों का फासला
बहुत कम हो जाता है
मुझे अकेला छोड़ दो
मुझे जाना है
अपने बेतरतीब
और बेवजह बातों के
सिलसिलों को
आगे बढ़ाने के लिए
जहाँ नब्बे साल की दादी
अकेले ही रात को
पहाड़ों में
एक लाठी के साथ
अपनी गाय को
खोजने के लिए निकल जाती है
|| मेरे और तुम्हारे बीच ||
जब मैं मिलता हूँ तुमसे
कोई बात नहीं करता
मेरी बातों और
तुम्हारे बीच
इतनी दूरी हो गई है
मैं तुम्हें कोई भी
आप बीती नहीं सुना सकता
कोई एक घास का तिनका भी
नहीं बचा है
मेरे अन्दर जिसे
शब्दों के बदले मैं दे सकूँ
ये समय वैसे भी
लंबी-लंबी बातें
करने का
नहीं रह गया है
सबकी कलाइयों में घड़ियाँ
अलग-अलग समय दिखा रही हैं
तुम वैसे
कुछ सुनने को तैयार भी नहीं हो
तुम्हें एहसास है
मेरे पास कहने को कुछ नया नहीं है
तुम्हारी चुप्पी से मुझे कोई भय नहीं है
डर मुझे सिर्फ
तुम्हारी आँखों से है
जो लगातार पैनी होती जा रही है
तुम करो कोई बात
या मैं दूँ कोई जवाब
कोई फर्क नहीं पड़ता है
समय की खामोशी को
आओ आपस में बाँट लेते हैं
देखो, बाहर रात का अँधेरा है
पूरी दोपहर तुम काफी बोल चुके हो
अँधेरा महसूस करो
सुबह जागते समय
फिर चिल्ला लेना
|| रात होने तक ||
ये क्या वही आँखें हैं
जो थोड़ी देर पहले
मुझे सड़क के किनारे
घूर रहीं थीं
उन आँखों का रंग
शाम होने तक
मेरी दीवारों पर
लिपटे स्लेटी रंग
से मिलता हुआ लगता है
कहीं वे मेरी ही आँखें तो नहीं हैं
जो शाम होने तक
लगने लगती हैं
इतनी भयावह
तुमने सुबह - सुबह
जिस माथे को छूकर
किया था बिदा
घर लौटते वक्त
उस पर लिखी होती हैं
मौत की कई इबारतें
हम आदी हो गए हैं
अपने - अपने
भय के दायरे में
जीने के
रात होने तक
मेरी आवाज भी
उगलने लगती है
अँधेरा
हवाएँ घर की चार दीवारी के बाहर
चौकन्नी
शहर के चौकीदारों के हाथों में
एलान करता हुआ
एक भौपूं है
अँधेरे में छुपी हुई परछाइयों की तलाश में
मेरे पास तुम्हें तसल्ली देने के लिए
कोई शब्द नहीं
तुम सो जाओ बच्चों के साथ
मैं सो जाता हूँ दरवाजे के करीब
[ पौड़ी के मूल निवासी दिनेश जुगरान का जन्म लखनऊ में हुआ | इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा पूरी करने के बाद भारतीय पुलिस सेवा में नौकरी की | रिटायर होने के बाद पूरी तरह कविता, संगीत और सत्संग में दिलचस्पी ले रहे हैं | दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र वरिष्ठ चित्रकार एसजी वासुदेव की पेंटिंग्स के हैं | ]
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बहुत अच्छा प्रयास है . आपको मेरी कविताएँ कहाँ से मिल गई!!!!!
ReplyDeleteदिनेश जी, ब्लॉग आपसे 'परिचित' होने का मौका भी उपलब्ध करायेगा, यह नहीं सोचा था | सचमुच, आनंदित हुआ हूँ | आपकी ये कविताएँ शायद चार साल से भी अधिक समय से मेरी डायरी में दर्ज हैं, जिन्हें मैं अक्सर ही पढ़ता/दोहराता रहा हूँ | डायरी में दर्ज सूचना के अनुसार मैंने इन्हें 'पहल' के किसी अंक से लिया है | कोई रचना हमें प्रिय हो, और उसका रचनाकार यूं अचानक मिल जाये तो अपने पाठक होने पर वास्तव में गर्व जैसा कुछ होने लगता है |
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