Sunday, April 8, 2012

भगवत रावत की दो कविताओं के साथ वाल्टर बोज की पेंटिंग्स



















|| जो रचता है वह मारा नहीं जा सकता ||

मारने से कोई मर नहीं सकता
मिटाने से कोई मिट नहीं सकता
गिराने से कोई गिर नहीं सकता

इतनी सी बात मानने के लिए
इतिहास तक भी जाने की ज़रूरत नहीं
अपने आसपास घूम फिरकर ही
देख लीजिए

क्या कभी आप किसी के मारने से मरे
किसी के मिटाने से मिटे
या गिराने से गिरे

इसका उल्टा भी करके देख लीजिए
क्या आपके मारने से कोई .....
.........ख़ैर छोड़िए

हाँ हत्या हो सकती है आपकी
और आप उनमें शामिल होना चाहें
तो आप भी हत्यारे हो सकते हैं
बेहद आसान है यह
सिर्फ मनुष्य विरोधी ही तो होना है
आपको

इन दिनों ख़ूब फल फूल भी रहा है यह
कारोबार
हार जगह खुली हुईं हैं उसकी एजेंसियाँ
बड़े-बड़े देशों में तो उसके
शो रूम तक खुले हुए हैं

तोपों के कारखानों के मालिकों से लेकर
तमंचा हाथ में लिए
या कमर में बम बाँधे हुए
गलियों में छिपकर घूमते चेहरों में
कोई अंतर कहाँ है
इस सबके बावजूद
जो जीता है सचमुच
वह अपनी शर्तों पर जीता है
किसी की दया के दान पर नहीं
वह अर्जित करता है जीवन
अपनी निचुड़ती
आत्मा की एक-एक बूँद से

उसकी हत्या की जा सकती है
उसे मारा नहीं जा सकता

इस सबके बावजूद वह रहता है
दूसरों को हटा-हटा कर
चुपचाप ऊँचे आसन पर जा बैठे
दोमुँहे, लालची, लोलुप आदमी की तरह नहीं

अपनी ज़मीन पर उगे
पौधे की तरह,
लहराता
निर्विकल्प
निर्भीक

दुनिया का सबसे कठिन काम है जीना
और उससे भी कठिन उसे, शब्द के
अर्थ की तरह रचकर दिखा पाना
जो रचता है वह मारा नहीं जा सकता
जो मारता है, उसे सबसे पहले
ख़ुद मरना पड़ता है |



















|| शिनाख्त ||

चेहरे से ही किसी को पहचान पाना
संभव हुआ होता तो तीस-चालीस बरस
पहले ही उसे ठीक से
पहचान लिया होता

बोलचाल और व्यवहार की
कुशलता से ही कुछ पता लगता तो
इतने बरस उसके मोह में
क्यों पड़ा रहता

चरित्र की अंदरूनी पेचीदगियों
और उसकी बाहरी बुनावट में
इतनी विरोधी दूरियाँ भी हो सकती हैं
यह बड़ी देर से समझ आया

दरअसल आज़ादी के ठीक बाद
लोकतंत्र के ढीले-ढाले झोल के चाल चलन में
धीरे-धीरे युवा होते हुए आदमी ने
वे सारे पैंतरे विरासत में
उन दलालों से सीख लिए थे जो हमेशा
ऊँट की करवट देखकर ही अपनी
चाल चलते थे

जिनके एक हाथ में राष्ट्रीयता का झंडा होता था
तो दूसरे हाथ में स्वामीभक्त होने का तमगा

कुल मिलाकर यह कि उसने
सीखी ऐसी सधी हुई भाषा जो किसी को
नाख़ुश नहीं करती
उसने गढ़े ऐसे नारे जिनसे न कोई
असहमत हो, न कर सके कोई विरोध

उसने अख्तियार की ऐसी
सधी हुई विद्रोही मुद्रा जिससे उसके शरीर पर
खरोंच तक न आये
और तेवर विद्रोही का विद्रोही रहा आये

उसने हर लड़ाई में हमेशा छोड़ी एक
ऐसी अदृश्य जगह जहाँ दुश्मन से
हाथ मिलाने की गुंजाइश
हमेशा रही आये

और इस तरह संघर्ष और विद्रोह की
ताक़तवर प्रतिरोधी दीवार के बीच लगाई उसने सेंध
और बन बैठा हमारा-आपका नायक
फिर इसके बाद क्या हुआ
यह बताने की शायद अब कोई ज़रूरत नहीं

आप ही की तरह मैं भी पड़ा रहा भ्रम में
कि गिरावट के इस घटाटोप में कहीं
कोई तो है जो लड़ रहा है
पर वह तो उसकी रणनीति थी
सबके कंधों पर पाँव रख कर उस जगह पहुँचने की
जहाँ संघर्ष और विद्रोह का
कोई अर्थ रह नहीं जाता

रह जाता है वह और केवल वह
और उसी के इर्द-गिर्द गूँजती उसी की
जय जयकार

यह सच है कि इतने समय तक
ख़ामोश रह कर हमने
खो दिये अपने सच बोलने के सारे अधिकार

फिर भी जाते-जाते इस जहान से
कुछ न कुछ तो करना होगा कारगर उपाय
जैसे यही कि यह कविता या इसका आशय ही
कहीं बचा रह जाये
और आने वाली किन्हीं युवा आँखों में
रोशनी की तरह
समा जाये |

[भगवत रावत की कविताओं के साथ दिये गए चित्र वाल्टर बोज की पेंटिंग्स के हैं |]

1 comment:

  1. एक के बाद एक कई पोस्ट पढ़ीं। बहुत अच्छा ठिकाना है। आपका शुक्रिया।

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