Monday, October 25, 2010

विद्यापति के पद














|| एक ||

नन्दक नन्दन कदम्बेरी तरु तरे घिरे घिरे मुरली बजाव |
समय संकेत निकेतन बइसल बेरि बेरि बोलि पठाव ||
सामरि,
तोरा लागि अनुखने विकल मुरारि
जमुनाक तीर उपवन उदबेगलफिरि फिरि ततहि निहारी |
गोरस विकेनिके अबइते जाइते जनि जनि पुछ बनवारि ||
तोहे मतिमान सुमति मधुसूदन वचन सुनह किछु मोरा |
भनइ विद्यापति सुन वरजुवति बन्दह नन्दकिशोरा ||



















|| दो ||

माधव करिअ समधाने |
तुअ अभिसार कएल जत सुन्दरी कामिनी करए के आने ||
बरिस पयोधर धरनि वारि भर रयनि महामय भीमा |
तइअओ चललि थनि तुअ गुन मने गुनि तसु साहस नहि सीमा ||
देखि भवन भिति लिखल भुजगपति जसु मने परम तरासे |
से सुवदनि करे झपइते फनि मनि विहुसि आइलि तुअ पासे ||
निअ पहु परिहरि सँतरि विखम नरि अँगिरि महाकुल गारि |
तुअ अनुराग मधुर मद मातलि किछु न गुनल वरनारी ||
इ रस रसिक विनोदक विन्दक सुकवि विद्यापति गावे |
काम पेम दुहु एक मत भए भर रहू कखने की न कराबे ||















|| तीन ||

माधव कि कहब सुन्दरि रूपे |
कतेक जतन विहि आनि समारल देखलि नयन सरूपे ||
पल्लवराज चरण-युग शोभित गति गजराजक माने |
कनक-कदलि पर सिंह समारल तापर मेरु समनि ||
मेरु उपर दुइ कमल फुलायल नाल बिना रुचि पाई |
मनिमय हार धार बह सुरसरि तें नहि कमल सुखाई ||
अधर-बिम्ब सन दसन दाड़िम-विजु रविससि उगथिक पासे |
राहु दूरि बसु नियरो न आवथि तैं नहि करथि गरासे ||
सारंग नयन बचन पुन सारंग सारंग तसु समधाने |
सारंग उपर उगल दस सारंग केलि करथि मधुपाने ||
भनइ विद्यापति सुन वर यौवति एहन जगत नहिं जाने |
राजा सिवसिंघ रुपनरायन लखिमादइ प्रति भाने ||















|| चार ||

माधव, कत तोर करब बड़ाई |
उपमा तोहर कहब ककरा हम, कहितहुं अधिक लजाई ||
जून श्रीखंड-सौरभ अति दुरलभ, तौं पुनि काठ कठोर |
जौं जगदीस निसाकर, तौं पुन एकहि पच्छ उजोर ||
मनि-समान औरौं नहि दोसर, तनिकर पाथर नामे |
कनक-कदलि छोट लज्जित भए रह, की कहु ठाम-हि-ठामे ||
तोहर-सरिस एक तोहँ माधव, मन होइछ अनुमान |
सज्जन जन सों नेह कठिन थिक, कवि विद्यापति भान ||



















|| पाँच ||

कानु हेरब छल मन बड़ साध | कानु हेरइत भेल एत परमाद ||
तबधरि अबुधि मुगुधि हम नारि | कि कहि कि सुनि किछु बुझए न पारि ||
साओन-धन सम झरू दु नयान | अविरत घस घस करए परान ||
की लागि सजी दरसन भेल | रभसे अपन जिउ पर हथ देल ||
ना जानु किए करू मोहनचोर | हेरइत प्राण हरि लई गेल मोर ||
अत सब आदर गेओ दरसाइ| जत विसरिए तत बिसर न जाइ ||
विद्यापति कह सुन बरनारि | धैरज धर चित मिलब मुरारि ||
















|| छह ||

माधव, बहुत मिनति कर तोय |
दए तुलसी-मिल देह समर्पिनु, दय जनि छडिब मोय ||
गनइत दोसर गुन लेस न पाओबि, जब तुहुँ करबि विचार |
तुहू जगत जगनाथ कहाओसि, जग बाहिर नइ छार ||
किए मानुस पसु पखि भए जनमिए अथवा कीट-पतंग |
करम- बिपाक गतागत पुनु- पुनु, मति रहु तुअ परसंग ||
भनइ विद्यापति अतिसय कातर तरइत इह भव-सिंधु |
तुअ पद-पल्लव करि अवलंबन तिल एक देह दिनबंधु ||

[ मैथिली के महानतम कवि विद्यापति ( 1350 - 1460 ) की पहचान भारतीय साहित्य के श्रेष्ठतम सर्जकों में है | वे संस्कृत, अबहत्य (अपभ्रंश) तथा मैथिली के विद्वान् थे, और उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी | जिस समय संस्कृत समस्त आर्यावर्त की सांस्कृतिक भाषा के तौर पर स्वीकृत थी, उस समय उन्होंने अपनी क्षेत्रीय बोली को अपने मधुर व मोहक काव्य का माध्यम बनाया एवं साहित्यिक भाषा के अनुरूप उसमें अभिव्यक्तिकरण का सामर्थ्य भर दिया | विद्यापति क़रीब 800 वैष्णव व शैव पदों के लिये सुविख्यात हैं, जिन्हें विभिन्न ताड़-पत्र पांडुलिपियों में से बचा लिया गया है | विद्यापति के यहाँ प्रस्तुत पदों के साथ दिए गए चित्र श्वेता झा की पेंटिंग्स के हैं | सिंगापुर में रह रहीं श्वेता मिथिला की गौरवशाली प्राचीन संस्कृति व कला-परंपरा को संरक्षित करने तथा बढ़ावा देने के साथ-साथ सृजन की निरंतरता को बनाए रखने के उद्देश्य से निजी तौर पर भी सक्रिय हैं | वह सिंगापुर में अपने चित्रों की प्रदर्शनी भी कर चुकी हैं; कला प्रेक्षकों व कला मर्मज्ञों के बीच उनके चित्रों को व्यापक रूप से सराहना और पहचान मिली है | ]

1 comment:

  1. KE THIK MAITHIL, KAHAN ACHHI MITHILA, HAM KAHAIT CHHI ORE SON. MITHILA-VASHI SUNU PIHANI HAM KAHAIT CHHI JORE SON.BANU SADASYA BHARAT BHARATI SAMAJ KE, KARU KALYAN MITHILA KE.
    AAHANK:- DR. MAYA SHANKAR JHA

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