|| दृश्य एक ||
मनुष्यों की तरह कटे हुए थे पेड़
उनके धड़ों से अभी भी हो रहा था रक्तस्राव
कल इसी रास्ते पर दिखा विरल सूर्योदय
पर्वत शिखर पर
सूर्य के मुख पर सृष्टि के आदिम मनुष्य की मुस्कान
पक्षियों की चहचहाहट
छायाओं की करुणा
पत्तों के समुद्रों की निरंतर लहरें
हवा के पार्श्व में फूलों के उदघोष
प्रकृति : मनुष्य का पहला कुतूहल
आज यह वन मरुस्थल-सा जलता है
कटे वृक्षों के बीच
धूप हुआँ-हुआँ कर रही है
वृक्षों के घाव में मौन निरपराध का
सरकारी कागज़ में चांडाल का दर्प
वृक्षों, मनुष्यों के बीच
चमक कुल्हाड़ी की
वीरान इस धरती पर
फड़फड़ाती है छटपटाहट अपने डैने
|| दृश्य दो ||
एक रिपोर्ट :
हमारी यह शताब्दी
बेहोश पड़ी है ऑपरेशन की मेज़ पर
उसे तकलीफ है साँस की
जिगर में खराबी
हम इंतजार में खड़े हैं शवगृह के आसपास
|| दृश्य तीन ||
मृत्यु के हाथों से गिरी और टूट गई रात उस शहर की
फैल गई शवों की दुर्गंध
सर्वत्र
गिरजाघरों से आते आख़िरी घंटे ने
ढाँप लिया दीन-हीन क्रंदन
पीढ़े से न हिलने वाला ईश्वर - मूँद ली अपनी खुली आँखें
वक्त से पहले लौटे नीड़ों में पक्षी मर गये
जड़ हो गये जानवर
खड़े-खड़े
मर गई नि:स्पंद होकर वनस्पतियाँ
एक क़दम और बढ़ गया विज्ञान
लाशें घसीटकर
हवा के पहियों पर सवार
मृत्यु ने खदेड़ा
पैरों में प्राण लिए
भाग रहे लोग, आया प्रलय जैसे
उस मरघट में हुई सुबह
विषैले मेघों से
सूर्य के केश हो गए सफ़ेद
शवों के ढेर में
आग की निरपराधिता
अख़बार की सुर्ख़ियों में
एक और घटना
सरकारी काग़ज़ में चांडाल का दर्प
मृत्यु का अदृश्य जाल सब जगह फैल रहा
खोने का आर्तनाद खो रहा दिशाओं में
लकड़ियों की तरह जमा कर दिए गए थे मनुष्य
[ सुकुमारन समकालीन तमिल कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं | उनके कई कविता-संग्रह प्रकाशित हैं | 1957 में जन्में सुकुमारन पत्रकार और अनुवादक भी हैं | उनकी यहाँ प्रस्तुत कविता का अनुवाद एन. बालसुब्रह्मण्यम ने किया है, जो तमिल, संस्कृत, अंग्रेज़ी, हिंदी में लेखन तथा अनुवाद करते हैं | सुकुमारन की कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र वरिष्ठ चित्रकार शंकर घोष के बनाए मूर्तिशिल्पों के हैं | ]
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