Friday, July 9, 2010

कुमार पाशी की नज़्में



















|| मैं हँसना चाहता हूँ ||

मैं समँदर जितना हंसना चाहता हूँ
और बूँद जितना रोना

ईश्वर !
मैं सिर्फ़ तेरे ही जितना
जीना चाहता हूँ,
नित नए सपनों के साथ
अपनों के साथ

ईश्वर !
मैं पैग़म्बर नहीं हूँ
बिलकुल तेरी तरह हूँ
मेरी ख़्वाहिशों की फ़ेहरिस्त
बड़ी लंबी है
तेरी फ़ेहरिस्त से भी तवील -

लेकिन मैं
ईश्वर से क्यूं मुख़ातिब हूँ ?
जब कि मुझे मालूम है
वो मुझे फूल जितना हंसायेगा
और फिर
आस्मान जितना रुलायेगा



















|| अंतिम संस्कार ||

सूख चुकी है बहती नदी
आँखों में अब नीर नहीं है
सोचो तो कुछ
कहाँ गये वो भक्त, पुजारी
सुबह को उठ कर
जो सूरज को जल देते थे
कहाँ गया वो चाँद सलोना
जो लहरों के होंट चूम कर
झूम-झूम कर
आँखों की पुरशोर नदी में लहराता था

पानी से लबरेज़ घटाओ !
जल बरसाओ
सुन्दर लहरो !
आँखों की नदी को जगाओ
जाने कब से
बीते जुग के फूल लिये हाथों में खड़ा हूँ
सोच रहा हूँ, इन्हें बहा दूँ
जीवन का हर दर्द मिटा दूँ



















|| तेरी मख़्लूक़ तुझ से मुख़ातिब है ||

मेरे अन्दर नफ़ासत नहीं
गर्द ही गर्द है

तुम कभी मेरी खिड़की से झाँको तो देखो मुझे
मैं नहीं यह कोई दूसरा है
मिरा भूत है
मेरे अन्दर - यहाँ से वहाँ दनदनाता हुआ
अपने सूखे, सड़े गोश्त के चीथड़ों को उड़ाता हुआ
पहले वो कितना नज़दीक थी
हाथ अपना बढ़ाऊँ तो छू लूं - मगर
आज कितने धुँधलके हैं उस के मिरे दरमियाँ
ता हदे-जिस्मो-जाँ

आस्माँ - बोल !
वो जिस को देखा था सुबहों ने तेरी कभी
खिलखिलाते हुए
वो कहाँ खो गया ?
आज उस की लिखी सब किताबों में भी
उस की तस्वीर मिलती नहीं
लफ़्ज़ हैं : हड्डियों की तरह खोखले, बेसदा -
ऐ ख़ुदा -
तेरी मख़्लूक़ तुझ से मुख़ातिब है : सुन !

इन के हाथों में
इन के गुनाहों की फ़ेहरिस्त दे
और सदियों से पहले का लिक्खा हुआ फ़ैसला
आज इन को सुना

ऐ ख़ुदा -
तेरे मौसम भी मुझ को न बहला सके
मेरी नींदें न ख़्वाबों से महका सके
कोई अनदेखा मंज़र न दिखला सके

कोई है ?
जो अँधेरों के अम्बार में
मेरे खोये हुए नक़्श को
ढूँढ कर ला सके ?



















|| नई फ़स्ल के नाम ||

ये मासूम पौधे
ये धरती के बेटे
जिन्हें दूध का एक क़तरा भी शायद मयस्सर नहीं है
ये दिन रात बेजान आँखों से
अपने बदन की तरफ़ बेसबब घूरते हैं
बदन - जिन से लिपटा हुआ माँस कुम्हला चुका है
जहाँ अनगिनत टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें
ख़ुनक चाँदनी की तमन्ना में उभरी हुई हैं

ये मासूम पौधे
ये धरती के बेटे, कि जिन की रगों में चुभन अपने होने की
दुःख के समँदर को कुछ और गहरा किये जा रही है
बहुत दूर - नीचे
तहों में पड़े मोतियों की चमक मन्द पड़ने लगी है
ये मासूम पौधे
अभी तक तसव्वुर की रंगीनियों के सहारे मुक़द्दर के अनदेखे
रूख़सार सहला रहे हैं
मगर इन को इतनी ख़बर भी नहीं है कि इन के सरों पर
खुला आस्माँ है
जहाँ धूप किरनों के धागे से इन के कफ़न सी रही है

[ आधुनिक उर्दू शाइरी में बड़ी पहचान रखने वाले कुमार पाशी 4 जुलाई 1935 को बग़दाद उल जदीद (पाकिस्तान) में पैदा हुए थे | विभाजन के बाद वह भारत आ गये और पहले जयपुर तथा फिर दिल्ली में रहे | 17 सितंबर 1992 को दिल्ली में उनका निधन हुआ | कुमार पाशी की यहाँ प्रस्तुत रचनाओं के साथ प्रकाशित चित्र अंजली सपरा की पेंटिंग्स के हैं | नई दिल्ली के त्रिवेणी कला संस्थान में प्रशिक्षित अंजली ने अपने चित्रों को दिल्ली, मुंबई, बंगलौर और लंदन में प्रदर्शित किया है | ]

6 comments:

  1. सुन्दर नज़्में..आभार पढ़वाने का.

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  2. सबके सब सुदर .. आपका बहुत आभार !!

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  3. बहुत खूब। कुमार पाशी साहब की सभी कविताए दिल को छूने वाली है

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  4. में समन्दर जितना....... अति उत्तम

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  5. में समन्दर जितना....... अति उत्तम

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  6. बहुत खूब। कुमार पाशी साहब की सभी कविताए दिल को छूने वाली है

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