
|| बहुरि अकेला ||
अन्तराम्भ
समय से बाहर
शब्दों दुखों घावों के शिल्प से
जल जो नदी है
स्मृति में एकत्र
जासूस की तरह जीवन
यह जो
ढुलकने से पहले
मरने के पहले कितने स्थगन
थोड़ा-थोड़ा हमें भी
रंग वही सूर्यास्त उदय का
विदा का कोई समय नहीं
किए न किए का अरण्य
कहीं नहीं के घर में
घर और घर नहीं
फहा फाहा उड़ते समय से
किस शैव चट्टान पर
प्रार्थना में कोई शब्द नहीं
होना पृथ्वी न होना आकाश
असंख्य में से सिर्फ़ एक
अंत का समय आरम्भ का समय

|| जल जो नदी है ||
नदी बिलकुल शान्त कभी नहीं हो पाती चाहकर भी
कोई न कोई आवाज़ या सन्नाटा गूँजता हुआ सा
उसके तट पर उसके मझधार में किसी चट्टान से
नीरव टकराते उसके जल में |
नदी बहती है धरातल पर सूखकर रेत के नीचे थमकर
प्रतिपल जाती हहुई अपने विलय की ओर
फिर भी उच्छल
धूप अँधेरे लू-लपट
सुख की झूलती हुई डालों
दुःख के खिसकते-ढहते ढूहों से
हर सर्वनाम को लीलता हुआ
आदि और अंत से उदासीन
सिर्फ़ बहता चलता है जल
जिसे शायद पता ही नहीं चलता कि वह नदी है |

|| थोड़ा-थोड़ा हमें भी ||
जैसे सूर्योदय बुलाता है
कलरव ओस हलकी सी ठण्ड
उषा की केलि को
वैसे ही पुकारती है
एक ही मृत्यु
दूसरे के जन्म को-
तिल-सकट कच्चे दूध में पड़े तिल
माघ की ठण्ड में हुए शुभारम्भ को-
एक जन्म ही नहीं फुँकता
एक जीवन की ही नहीं होती अन्त्येष्टि
कुछ और जन्म भी झुलसते हैं
कुछ और जीवन भी सरकते हैं
अंत कि ओर-
जो होने न होने को गाता है
उसी का होना अन्तत: मौन है
उसी का न होना शान्ति |
हम अपनी चुप्पी के पार
एक पुकार सुनते हैं
और अनसुनी करते हैं |
जो जाता है
थोड़ा-थोड़ा हमें भी ले जाता है
और इसलिए कभी
पूरी तरह से नहीं जाता है |

|| विदा का कोई समय नहीं है ||
कौन से प्रतीक, कौन से रंग
कौन सा समय
चुनती है विदा ?
अपनी विजड़ित आभा में स्थिर चट्टानें
दिन को डूबने से थामे हुए गिरिमालाएँ
अँधेरे में गाने की इच्छा-सा ठहरा हुआ सन्नाटा
वनस्पतियों में निर्बाध चमकती हरीतिमा
भोजन के बाद बचे-खुचे से सजी थाली
कुनकुने पानी से भरी छलछलाती बाल्टी
साँकल बंद करने को उठा हाथ
नींद कि नीरव निस्स्वप्न घाटी की गहरी चुप्पी
चिड़ियों को ख़बर लगाने के पहले का अर्द्धजागरण
- कौन कब अचानक
कह देगा
अलविदा ?
विदा
अपूर्णता से
किसलयों कुचाग्रों केलि से
शब्दार्थ मौन रूपकों से
गान धैर्य अजात पौत्र से
सगुण निराकार से
अँधेरी निर्जन सड़क पर सुबह के आदमी से
मसाला पीसती बार-बार झार से आंसू पोंछती औरत से
विदा
देवताओं के पाखण्ड और ब्रह्म-प्रपंच से
विदा ककहरे से
विदा अक्षरारम्भ और अधूरे वाक्य से
हुआ-होगा-होता से
हर सर्वनाम से
क्रियापदों के झुण्डों बवंडर खिड़की के काँच से
गिलहरियों की धूप और चिड़ियों के अवकाश से
विदा का कोई समय नहीं है
हर क्षण विदा है
जो बीतता है
विदा लेता है
अक्सर बिना जाने भी |
[ कुमार गन्धर्व के लिये लिखी अशोक वाजपेयी की इन कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र युवा चित्रकार महुआ रॉय की पेंटिंग्स के हैं | ललित कला अकादमी की नई दिल्ली स्थित कलादीर्घा में अभी हाल ही में 'सोपान' शीर्षक के अंतर्गत आयोजित एक समूह प्रदर्शनी में महुआ रॉय के चित्रों ने दर्शकों व कला मर्मज्ञों का खास तौर से ध्यान खींचा तो शायद अपनी चित्र-भाषा की अप्रतिमता के कारण | महुआ रॉय ने जामिया मिलिया इस्लामिया से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है | इसके आलावा नेशनल म्युजियम से उन्होंने 'इंडियन ऑर्ट' में एक कोर्स भी किया है | महुआ ने स्कूलों, संस्थाओं व कार्पोरेट क्षेत्र के लिये एक आर्टिस्ट व डिज़ायनर के रूप में काम करने के साथ-साथ कई समूह प्रदर्शनियों में अपने चित्रों को प्रदर्शित किया है तथा आर्ट-कैम्प में भाग लिया है | ]