Sunday, May 9, 2010
निलय उपाध्याय की कविताएँ
|| पिछड़े ||
जिनके केश काले हैं
और कमीज सफ़ेद
जेठ की धूप
भादों की बरखा और पूस की ठंड से
जिनका कोई वास्ता नहीं
जो मौसम को जूते की तरह पहनते हैं
हवा
जिन्हें पालने पर झुलाती है
जिन्हें सींचते हैं मेघ
हर सुबह
धूप के पन्नों पर लिखा अख़बार
जिन्हें जगाता है और जो खुद
ताजमहल हैं
वे भी पिछड़े हैं
उनका प्यार.....उनकी घृणा.....उनकी पसंद
सबसे अच्छे लोगों की तरह है
गंदी बस्ती से गुजरते उनके मुँह में
थूक होता है
नाक पर रूमाल
बच्चों की फटी पतंग पर नहीं
शहर की नाक पर जिनके घर हैं
वे भी पिछड़े हैं
वे बहस चला रहे हैं
कि उनके सरोकार पिछड़े हैं
उनकी जेब में नारे हैं कंधों पर व्याकरण
वे मौसम की बात करते हैं
और छाते में रहते हैं
उन्हें दुःख है कि वे पिछड़े हैं
वे खुश हैं कि
पिछड़े हैं |
|| देख कबीरा रोया ||
किसके आगे रोए कबीरा
किससे कहे दुःख
दिन-रात भर हाड़ खटाए
रात-रात भर नींद न आए
और हाल
वह क्या बताए
किसी ने खरीद लिया जन्नत का सुख
किसी ने बेच दी पुरखों की नदी
कोई खोल ले गया दरवाजे पर बंधी गाय
कोई उठा ले गया स्कूल से लौटता बच्चा
किसी ने अस्मत लूटी
किसी ने जला दी दुकान
जब गीतों में नहीं ढल पाया दुःख
तो कबीरा रोया -
देख कबीरा रोया साधो, देख कबीरा रोया |
|| बौर ||
खूब बौर आए हैं इस बार
टूसा-टूसा निकला है मुकुट बाँध
फागुन की बतास में रंगों के पकने का उत्सव है
टिकोरों के झाँकने
और आकार लेने का मौसम
पृथ्वी के रंगीन कलश पर दीया जला है मधुमास का
जाने कितनी बार बौर आए
आए टिकोरे
आमों के टपकने और चूस खाने के दिन
नहीं आए
फिर भी क्यों अच्छी लगती है कोयल की कूक
फिर क्यों पुलकित है मन
धरती के
जाने किस भाग में छुपी होती हैं उम्मीदें
जीवन का जाने कौन हिस्सा फेंकता है टूसा
कि धरी रह जाती हैं
धरी रह जाती हैं शोकाकुल स्मृतियाँ
और आगे -
बहुत आगे निकल जाती है जय-ध्वनी |
|| एक सर्द रात की कथा ||
अस्पताल के कोने में
हरसिंगार तले बैठे उस आदमी ने
ठंड को कसाई नहीं कहा, नहीं
हवा को हिंसक पशु
चुपचाप उठा
और कहीं से उठा साइकिल का पुराना टायर
जलाया अलाव
मरीजों के
घाव से उतार फेंकी गई पट्टियाँ
कचरे में छुपे कागज, पुआल
और मिठाई के फेंक दिए गए डब्बों से
उसने पूरी कोशिश की आग को बचाए रखने की
आखिरकार
जब खत्म हो गए उसके सारे उपाय
तो उसने अपनी चीकट चादर उतारी
और इतमीनान से
अलाव पर रख दिया
अपनी नवीन खोज की खुशी से
भीग गया भीतर तक
ठंड तेज थी
सचमुच की तेज, मौसम विभाग तापमान
और अखबार मृतकों के आँकड़ों में मशगूल थे
खैरात में बाँटने के लिए लकड़ी पर
जब चल रही थी बहस
उसने अपना फटा कोट उतारा
और अलाव पर रख दिया
उसने कुर्ता और गंजी उतारी
बिना बटन की पैंट उतारते वक्त पल भर सहमा
फिर उतार दिया
इस सर्द रात में
उसकी जरा-सी आँच में गरम हो रहा था शहर
अगली सुबह -
जलाव के पास वह
कुछ इस तरह पड़ा था जैसे
फूँक मारने के प्रयास में गिरा हो
आग पैदा करने की यह शायद आखिरी कोशिश थी |
[ बिहार के बक्सर जिले के एक गाँव में 1963 में जन्मे निलय उपाध्याय कविता के पाठकों के बीच खासे परिचित हैं | कवि के रूप में निलय में स्थान-बोध के साथ प्रबल काल-बोध भी है, जिससे वे अपने परिवेश का साक्षात्कार काफी बदले हुए रूप में करते हैं | कविताओं के साथ दिए गए चित्र अविजित मुखर्जी की पेंटिंग्स के हैं | ]
Labels:
ANAL KUMAR,
AVIJIT MUKHERJEE,
BAKSAR,
BIHAR,
HINDI KAVI,
HINDI KAVITA,
NILAY UPADHYAY
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत सुंदर, भावपूर्ण कविताएँ. शब्दों का चयन शानदार है. जैसे---और अखबार मृतकों के आँकड़ों में मशगूल थे
ReplyDeleteखैरात में बाँटने के लिए लकड़ी पर
जब चल रही थी बहस
.
अविजित के चित्रों भी बहुत अच्छे लगे.