
|| बारिश के मौसम में ||
(एक)
बरसात की रिमझिम-रिमझिम बूँदों में
जब शामों की उदासी भीगने लगी है
मेरा अकेलापन मुझे ही काट खाने को दौड़ रहा है
मेरे सीने में धड़क रही है
किसी शोक धुन की अनुगूँज
मैं शर्मिन्दा हूँ
एक बहुत निजी कविता के लिए
मैं शर्मिन्दा हूँ
अपने दु:ख़ को लिखते हुए
मेरा वजूद
संस्कारों की कँटीली झाँड़ियों में फँसा
परिन्दों की तरह छटपटाता है
एक पराजित आबोहवा में साँस लेते हुए
बार-बार अपनी पराजय को ठोकर मारता हूँ
बार-बार अँगुलियों को लहूलुहान करता हूँ
यादों की गीली सड़क पर टहलते-टहलते
पर उदास कविता को जन्म देते हुए
मेरे भीतर का कवि चिन्तित है
माँ- कहीं किसी कोने से
दिलासा देती है
उम्मीद जगाती है
इरादों में ज़ंग लगे हिस्से को
फिर-फिर साफ़ करता हूँ |

(दो)
हवाएँ उन माँओं की तरह
छाती पीट-पीट कर चिल्ला रही हैं
क्रूर हादसे - जिनके जवान बेटों को
असमय छीन लिया करते हैं
पेड़ पौधों पर पागलपन सवार है
मौसम के चीख पुकार की तरह फैल रहा है
धरती और आकाश के बीच
काला धुंआ |
अतीत
किसी जंगल की भाँति
मेरे भीतर हहरा रहा है |
एक काली छाया
आँखों के आइने में
डरावने बादलों की गरजती आवाज़ से
अचानक सारा शरीर काँप जाता है
इच्छाओं की चिड़ियाँ
अपने-अपने घोसलों में दुबक जाती हैं
महत्वाकांक्षी मन ज़ोर से चिंघाड़ता है

(तीन)
तेज़ बौछारों ने खिड़कियाँ दरवाज़े भिगो दिये हैं
गीले कपड़ों की अजीब सी गन्ध
नथुनों में समा गयी है
हर चीज़ को डसते हुए
हर चीज़ को फुफकारते हुए
एकान्त रेंग रहा है
दिवाल घड़ी की टिक-टिक के सहारे
इस रात की मनहूसियत गूँज रही है
हम ठंड से सिकुड़ी-सिमटी ज़िन्दगी को
इन्तज़ार की आँच में सेंक रहे हैं |
समय का घोड़ा दौड़ रहा है
घाटियाँ टप टप की आवाज़ों से गूँज रही हैं
जब कल पौ फटने पर
अँधेरी चट्टानों में दरार पड़ेगी
सुबह के चेहरे पर
ज़िन्दगी की लालिमा बिखर जायेगी
मैं लिखूंगा - उजली उजली
धूप जैसी कविताएँ

|| तुम्हारी अँगुलियों के स्पर्श का जादू ||
वे तमाम कलाकृतियाँ
जिसमें रची बसी हैं
तुम्हारे पसीनों की सोंधी महक
तराशा है जिनको तुम्हारी
मेहनत के एक एक लफ़्ज़ ने
हमारे दिलों की धड़कनों में
गूँजता है आज भी
उन्हीं कलाकृतियों का संगीत
तुम्हारी अँगुलियों के स्पर्श का
जादू निरन्तर तब्दील हुआ है
ज़िन्दगी की धुन में
महान सपनों को साक्षात
धरती पर खड़ा कर देने की मुहिम
तुम्हीं ने छेड़ी थी एक दिन
पहाड़ों को काट कर
नदियों को ढकेल कर
तुम्हारे हाथों ने सँवारा है
कुदरत को खूबसूरती के
बेहतरीन अन्दाज़ में
तमाम नवजात चीज़ों को
तुमने सींचा है
अपने लहु से,
तब कहीं जा कर
दुनिया जवान हुई है
[ अक्तूबर 1962 में जन्मे रमन मिश्र मुंबई की सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रीय रहे हैं | पत्रिकाओं में तो उनकी कविताएँ प्रकाशित होती ही रही हैं, उनके कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं | उनकी यहाँ प्रकाशित कविताओं के साथ के चित्र महान फ्रांसीसी शिल्पकार रोदां (1840 - 1917) के मूर्तिशिल्पों के हैं | ]
बहुत बढ़िया प्रस्तुति।
ReplyDeleteआप तो छिपे रुस्तम निकले रमनजी! कहाँ छुपा रखी थीं ये कविताएँ?... बहुत-बहुत बधाई!
ReplyDeleteग़ज़ब की कविताएं।रमन जी कवि होने का ढिंढोरा नहीं पीटते पर यकीनन उनका लेखन यह बात तय कर देता है कि वह एक अच्छे कवि हैं।
ReplyDelete