Friday, August 20, 2010

आलोक वर्मा की कविताएँ



















|| कवि-कथा ||

कुछ शब्द बने खून और पसीने से
कुछ शब्द बन गए खून और पसीना
कुछ शब्द भटकते रहे आवारा
मंडराते रहे आसपास
बहुत दिनों तक
फिर मायूस हो छोड़ गए साथ एक दिन
कुछ शब्द शामिल हुए सपनो में
और हरी दूब, संतरा
या सूर्य या कोयला
या पुरानी सायकिल बन गए
कुछ शब्द खफ़ा हुए
काहिली के चलते
कुछ शब्द चुरा लिए गए बाज़ार में
और बदल दिए गए उनके मायने
कुछ शब्द हमेशा छुपे रहे
नहीं आए कभी भी सामने
बस बेचैन और पागल बनाते हुए
धधकते रहे
बहुत खराब समय में भीतर ही भीतर

कुल जमा इतना ही है
अकेले भटकते कवि की उदास कथा
कि आखिर में बचे हैं
कुछ टूटे-फूटे छूटे अधूरे शब्द
सो आपके सामने हैं ... |
















|| कोई नहीं जानता ||

कोई नहीं जागता
वादक के सिवाय
कोई नहीं पुकारता
वादक की तरह

कोई नहीं देखता
वादक के टूटे तार
कोई नहीं सुनता
भीतर का रोना

कोई नहीं जानता
आख़िर क्यों चुना
वादक ने
यह सन्नाटे भरा संसार ?

भटकते हुए बदहवास
आख़िर क्यों
बजाता रहा
वह सिर्फ़ वाद्य ?

भुलाते हुए ख़ुद को
आख़िर क्यूँ उड़ता रहा
वह बार-बार अकेला
दूर आसमान में ?

अरसा हुए
पूछे गए जब
वादक से ये सवाल
झुका लिया
ख़ामोश वादक ने
अपना सिर
और बजाने लगा
बस वाद्य... |



















|| थोड़ा सा ||

थोड़ा सा रंग
मिल गया है
संगीत में

थोड़ा सा संगीत
गूँज रहा है
पेड़ में

थोड़ा सा पेड़
उग रहा है
मुझमें

मै थोड़ा सा सूर्या हूँ
थोड़ी सी नदी
थोड़ी सी चिड़िया

थोड़ा सा मैं बिखर गया हूँ धूल में
थोड़ा सा मैं जम गया हूँ चट्टानों में
थोड़ा सा मैं थम गया हूँ अँधेरे में
थोड़ा सा मैं बह रहा हूँ हवा में

थोड़ा सा मैं
बादलों में घुलकर
तुम्हारे भीतर
लगातार बरस रहा हूँ ... |



















|| मैं पागल हूँ ||

मैं पेड़ के साथ
फल होना चाहता हूँ
और समुद्र के साथ मछली

चूँकि पक्षी के सुख का पता
घोंसले के पास है
और भूखे आदमी का दु:ख़
सिर्फ़ रोटियाँ ही जानती हैं

फिर यदि
मैं होना चाहता हूँ
फल, मछली, रोटियाँ
या घोंसला
तो क्या मैं पागल हूँ ..?

हाँ ...
मैं पागल हूँ... |



















|| एक फूल खिला ||

एक फूल
देर तक
टहनी में खिला
फिर धरती पर गिरा
तो धरती में खिला

देखा दो आँखों ने
उसे तो
वह आँखों में खिला
फिर आँखों में खिला
तो मन में भी खिला

मन में खिला एक फूल
तो स्मृति में खिला
फिर बार-बार

इस तरह
स्मृति में बार-बार
खिलता एक फूल
एक बार
शब्दों में भी खिला

यूँ शब्दों में खिला
एक फूल एक बार
तो फिर
हमेशा खिला ही रहा... |

[ रायपुर में बीमा चिकित्सा पदाधिकारी के रूप में कार्यरत आलोक वर्मा का एक कविता-संग्रह 'धीरे-धीरे सुनो' प्रकाशित हुआ है, जिसे मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के 'रामविलास शर्मा सम्मान' से नवाज़ा जा चुका है | आलोक वर्मा की यहाँ दी गईं कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र कनाडा में रह रहीं चाईनीज़ चित्रकार विनिफ्रेड ली की पेंटिंग्स के हैं | बीजिंग में 1934 में जन्मीं वान-चुनयु , विनिफ्रेड ली का पूर्व नाम, 1977 में कनाडा आ गईं थीं | विनिफ्रेड ली अपनी वाटर कलर पेंटिंग्स के लिये कला जगत में जानी जाती हैं | उन्होंने प्रायः फ्लावर्स व बर्ड्स को अपने केनवस पर चित्रित किया है | ]

4 comments:

  1. आलोक वर्मा की कविताओं में एक नया मुहावरा तो दीखता ही है, उनकी कविता मौजूदा समय की सच्चाइयों को परखती भी है |

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  2. एक कवि के रूप में आलोक वर्मा के पास अनुभवों का जो संसार है, उसे उन्होंने अपने परिवेश से ही प्राप्त किया है तभी उनकी कविताएँ आत्मीय प्रभाव छोड़ती हैं | उनकी रचनाशीलता के लिए उन्हें बधाई और शुभकामनाएँ |

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  3. आलोक की कविता में जीवन की वास्तविकताओं को तथा स्थितियों को बड़ी बारीकी के साथ प्रस्तुत किया गया है, जिनमें कवि के संवेदनशील रूप और सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति के दर्शन होते हैं | विनिफ्रेड ली ( या वान-चुन यु ) की पेंटिंग्स भी आकर्षित करती हैं |

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  4. आलोक वर्मा की काव्य-भाषा प्रभावित करती है | उस में काव्यात्मकता तो है ही, साथ ही वह लाक्षणिक न होकर चित्रणात्मक अधिक है | यथार्थ के समुचित सम्प्रेषण में भाषा कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इसे आलोक वर्मा की कविताओं में भी देखा/पहचाना जा सकता है |

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