Thursday, July 19, 2012

श्रीप्रकाश शुक्ल की 'घर' शीर्षक कविता

  



















|| एक ||

घर बनाने में बहुत-सी सामानें आयीं |

घर को मिला सीमेंट, बालू और सरिया
मिले कुछ मजदूर, कारीगर और बढ़ई
मेरे हिस्से में आयीं कुछ ध्वनियाँ

मैं इन्हीं ध्वनियों को सुनता हूँ
और इन्हीं के सहारे
घर के भीतर पाता हूँ
ख़ुद को |
















|| दो ||

घर ध्वनियों से मुक्ति के लिए नहीं होता
वह होता है
ध्वनियों को सुनने के लिए

जितनी ही बड़ी ध्वनियाँ
उतना ही सुन्दर घर

मेरे घर का पता इन्हीं ध्वनियों में है |
















|| तीन ||

मैं अपने घर में एक किताब की तरह प्रवेश करता हूँ
पन्नों की तरह उसके कमरों में टहलता हूँ
और पिछवाड़े के जिल्द्नुमा दरवाज़े से जब निकलता हूँ

तब ख़ुद को
एक बड़े घर में पाता हूँ
जिसमें कई रोशनदान उभर आये हैं

इन रोशनदानों से ध्वनियाँ आती हैं
जहाँ मेरे पुरखे फुसफुसाते हैं |





















|| चार ||

जब नहीं था
नहीं होने का ग़म था

हर बार छोटी पड़ती गयी चारपाई
हर बार किताबों के लिए जगह कम पड़ती गयी
हर बार मेहमानों के लिए कोने का रोना रोता रहा

अब जब घर है
तब होने को लेकर नम हूँ
कैसे मिलेगा इसको दानापानी
कैसे देखूँगा इसके अकेले का होना
सफ़र का दुनिया में

घर में होने-न-होने के बीच
थरथराता है वजूद
अपनी ही उपस्थिति का |


















|| पाँच ||

एक ख़ाली ज़मीन थी
एक बड़ा घर मेरे सामने था

जैसे-जैसे ज़मीन भरती गयी
बड़ा घर
छोटा होता गया
मेरे सामने |
















|| छह ||

मैंने गृह प्रवेश किया
अतिथियों की जूठन के साथ
मैंने भी गिराये कुछ दाने

अब घर में रहने भी लगा हूँ
चूल्हा चौका सब कुछ ठीक ठाक ही है
पहले से थोड़ी जगह भी ज़्यादे है

लेकिन मुझे ही नहीं मिलता वह घर
जिसे भूमि पूजन के ठीक पहले तैयार किया था
नक्शे में |

[श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं के साथ दिये गए चित्र शिरीष देशपांडे की बॉलप्वाइंट पेंटिंग्स के चित्र हैं |]

1 comment:

  1. acchi prastutiya:"chan divaro me simat kr rah gyee hai jindgi,dekhte hi dekhte ghar gharoda ho gya,jindgi bhar aadmi jo khud ko aksr kahta raha,ban khud hi deevar o ek jharokha bn gya,.....

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