Thursday, August 18, 2011

सुभाष मुखोपाध्याय की दो कविताएँ














|| धूप में रखूँगा ||

हम उमरदराज़ लोग
क्यों बार-बार
घर लौट कर आँखें पोंछते हैं,
वह विस्मित लड़की सोचती है -
हम ज़रूर रो रहे हैं !
यदि नहीं
तो हमारी आँखें नम क्यों हैं ?
भोली लड़की !
हम कैसे समझाएँ
कभी-कभी आँखों के कुएँ के पानी में
रुलाई नहीं, जलन पैदा होती है,
भोली लड़की !
गीली लकड़ी को फूँकने से आग नहीं सुलगती
धुएँ के गुबार में जलती हैं आँखें,
जहाँ भी देखो सिर्फ धुआँ ही धुआँ !
जलती आँखें ले हम बाहर आते हैं
पोंछते हैं आँखें -
तभी तो हमारी आँखें नम रहती हैं

जीवन का यह हाल यूँ तो वर्ष-भर नहीं
केवल बारिश के कुछ माह ....
फिर
सूखी लकड़ियों की धधकती आग में
खदकेंगे चावल के दाने
तब तो जहाँ है - ठीक-ठाक
हम साफ़-साफ़ देख सकेंगे
वर्षा के बाद लकड़ी, कोयला, भीगा सब कुछ
हम धूप में रख देंगे

धूप में रख देंगे
यहाँ तक कि ह्रदय भी !!














|| मैं आ रहा हूँ ||

मैंने आसमान की ओर देखा
वहाँ तुम्हारा चेहरा था
मैंने बंद की आँखें
वहाँ तुम्हारा चेहरा था
वज्र को बहरा कर दे ऐसी आवाज़ में तुम मुझे पुकार रहे हो |

बच्चों की आवाज़ में
दिन और रात के टुकड़े - टुकड़े कर
कौन रो रहे हैं ?
मौत के आतंक में जीवन से लिपट कर
कौन रो रहे हैं |
और इसीलिए
वज्र को बहरा कर देने वाली आवाज़ में
तुम मुझे पुकार रहे हो |

मैं आ रहा हूँ -
दोनों हाथों से अँधेरे को ठेलते-ठेलते
आ रहा हूँ मैं |

किसने संगीनें तान रखी हैं ? ....हटाओ |
कौन खड़ी कर रहा है रुकावटों की दीवारें ? ... तोड़ो |
सारी धरती के लिए मैं लेकर आ रहा हूँ
न रोकी जा सकने वाली अनोखी शांति |

[सुभाष मुखोपाध्याय की मूल बंगला में लिखी इन कविताओं का अनुवाद उत्पल बैनर्जी ने किया है | कविताओं के साथ दिए गए चित्र रमेश झावर की पेंटिंग्स के हैं |]


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