Monday, November 29, 2010

आशुतोष दुबे की कविताएँ



















|| अपनी आवाज़ में ||

शुरू के बिल्कुल शुरू में
एक शुरू अन्त का भी था
और अन्त का काम तमाम करने वाला
एक बिल्कुल अंतिम भी था ही

होना लगातार शुरू हो रहा था
और ख़त्म होना भी
पैदा होना और मरना
एक ही बार में
कई-कई बार था

लोग एक-दूसरे के पास आते
और दूर जाते थे
रिश्तों की धुरी बदलती रहती थी
पुराने किनारों के बीच
एक नयी नदी बहती थी

एक आदमी जहाँ से बोलता था
उसकी बात पूरी होते-न-होते
धरती वहाँ से कुछ घूम जाती थी
और उसका पता बदल जाता था

पेड़ ख़ुद को ख़ाली कर देने के बाद की उदासी
और फिर से हरियाने की पुलक के बीच
भीतर ही भीतर
कई-कई जंगल घूम आते थे

एक देह थी
जो एक दिन गिर जाती थी
और एक मन था
जो एक और मन होकर थकता न था
चौतरफ़ा शोर के बीच
अपनी आवाज़ में कहने वाला
समझा भले न जाता हो,
सुन लिया जाता था

अपनी छोटी-सी सुई से
सिले गये रात-दिन
कोई अपने हाथों उधेड़कर
घूरे पर फेंक जाता था

घर को बनाने वाला
घर में लौट नहीं पाता था |

















|| सूत्रधार ||

अन्त में सभी को मुक्ति मिली
सिर्फ़ उसी को नहीं
जिसे सुनानी थी कथा
कथा से बाहर आकर

अपने ही पैरों के निशान मिटाते हुए
उसे जाना होगा उन तमाम जगहों पर
जहाँ वह पहले कभी गया नहीं था
देखना और सुनना होगा वह सब
जो अब तक उसके सामने प्रगट नहीं था
और इसलिए विकट भी नहीं

इस मलबे से ऊपर उठकर
उसे नये सिरे से रचना होगा सबकुछ
उन शब्दों में जिन्हें वह पहचानेगा पहली बार
जैसे अंधे की लाठी रास्ते से टकराकर
उसे देखती है

और बढ़ते रहना होगा आगे
कथा के घावों से समय की पट्टियाँ हटाने

अन्त में सभी को मुक्ति मिलेगी
सिर्फ़ उसी को नहीं |



















|| आदमी की तरह ||

डूबने से बचने की कोशिश में
हाथ-पैर मारते-मारते
वह सीख गया तैरना

और जब सीख गया
तो तैरते-तैरते
ऐसे तैरने लगा
कि अचम्भा होने लगा
कि वह आदमी है या मछली

यहाँ तक कि
ख़ुद उसे भी लगने लगा
कि पानी में जाते ही
उसमें समा जाती है
असंख्य मछलियों की
व्यग्रता और चपलता
लेकिन मछलियाँ आदमी नहीं होतीं
और पानी के स्वभाव के बारे में
वे मछलियों की तरह जानती हैं

इस बात का पता उसे तब चला
जब वह मछलियों की तरह तैरते हुए
वहाँ जा पहुँचा
जहाँ जाना नहीं था

मछलियाँ देखती रहीं उसे
आदमी की तरह डूबते हुए |



















|| आदत ||

वह धूल की तरह है
जिद्दी और अजेय

कई बार हम उसका मुक़ाबला करना चाहते हैं
मगर एक पस्त कोशिश
और फिर उसकी अनदेखी
और उसके बाद
घुटने टेकते हुए
अपनी पराजय का बेआवाज़ इकरारनामा
यही आदत का मानचित्र है

दिलचस्प हैं आदत के खेल
मसलन, हालाँकि मरना जन्म लेते ही शुरू हो गया था
पर मारने की आदत नहीं पड़ती
जीने की पड़ जाती है
और जीवन कैसा भी हो
मरना मुश्किल होता जाता है

साथ की आदत हो जाती है
जैसे उम्मीद की
और इन्तज़ार की भी

लेकिन कभी-कभी
उससे अपने-आप में
अचानक मुलाकात होती है
हम उसे स्तब्ध से पहचानते हैं
कि वह इतने दिनों से
रही आई है हममें
और हम पहली बार जान रहे हैं
कि वह हमारी ही आदत है |

[ आशुतोष दुबे की कविताओं के साथ दिये गये चित्र हुकुम लाल वर्मा की पेंटिंग्स के हैं | समकालीन कला जगत में अपनी प्रखर पहचान बना रहे हुकुम लाल वर्मा ने कई जगह अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित किया है | आने वाले आठ दिसंबर को उनकी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनी मुंबई की जहाँगीर ऑर्ट गैलरी में शुरू हो रही है, जिसे चौदह दिसंबर तक देखा जा सकेगा | ]

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