Sunday, December 5, 2010
मंजूषा गांगुली की कविताएँ
|| उसका प्यार ||
उसने पीली बसंती दुपहरी में
बुंदकियों वाली नीली चादर पर
उसकी याद को
धुले हुए गेहूँ की तरह
फैला दिया है |
एक एक दमकते दाने पर
सरसराती हैं उसकी
सुनहरी उँगलियाँ
रह रह कर ......
क्योंकि उन पर
कई दफा
उसका दिया हुआ
प्यार
जड़ा हुआ है |
बुंदकियों वाली नीली चादर पर
यादों की वह नर्म गंध ......
लौटा लाती है उसके
अनगिन बसंत ......
गहराते बसंत ......
चिलचिलाते बसंत ......
ऐसे ही किसी दुपहरी में |
|| मौसम ||
लगता है एक एक कर
अब सब
साफ़ साफ़ सूझता है मुझे
मेरा अतीत, रिश्ते और बचपन
कितना घना था यह सब
इतने अरसे तक मेरे आसपास
एक एक कर झाड़ पोंछ कर
रखने लगी हूँ करीने से
उस गर्माहट को .... नमी को ....छुअन को
फिर उसी जगह रख दिया है मैंने
घनी यादों के डिब्बे में
थोड़ा ....औ ....र ....पीछे सरकाकर
अब ये सब मुझे
परेशां नहीं करते पहले की तरह
क्योंकि
उन्हें अब मुझ पर पूरा भरोसा है
कि
मैं उन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी
अजनबी की तरह ......
मेरा मौसम
अब साफ साफ है
आइने की तरह
|| संवाद ||
चट्टान पर लेटी है धूप
या
ओढ़ा है चट्टान ने उसे
जो भी हो
एक लंबी गर्माहट बाकी है
अब भी उनमें
बरसों से चमकते हैं उनके रंग
जीवन की तरह
मानो अभी अभी घटित हुए हों
अपनी ही रंग रोशनी में
इधर अंतरालों की मानिंद
दरक गई है वह गुलाबी चट्टान
यहाँ ....वहाँ ....से
जो भी हो
धूप फिर भी होती है चुपके से वहाँ
हर रोज़
एक अनवरत संवाद की तरह
|| नमक ||
कोई और दिन होता
तो कहती ......
हो सके तो ले आना
थरथराती हथेलियों में
फिर वही चिलचिलाती गंध
ले आना दुबारा
घरघराते शब्दों की जगह
जलते हुए सूरज का नमक
और ले आना याद से
छलछलाती इच्छाओं के
हज़ार हज़ार मौसम
ले आना वे पहाड़ ....वही बर्फ़ ....
वो सड़कें ....धूप थकान ....घर
और ....और वो तमाम अकेली रातें
जो अब भी वैसी ही हैं
इधर तुम्हारी कविताओं में
छोड़ो ....रहने दो ....
तुम्हें अब क्या मिलेंगी
वह गंध, सूरज का नमक
और वे मौसम
ये सब तो
मेरी हथेलियों में सुरक्षित है
अपने नमक की सच्चाई में
[ मंजूषा गांगुली मूलतः चित्रकार हैं और उनकी पेंटिंग्स की 33 एकल प्रदर्शनियाँ हो चुकी हैं | उनकी पेंटिंग्स की 34 वीं एकल प्रदर्शनी जयपुर में होने वाली है | भोपाल में कला अध्यापन में संलग्न मंजूषा गांगुली ने कविता में भी अपने आपको अभिव्यक्त किया है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र प्रख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा की पेंटिंग्स के हैं | मंजूषा ने रज़ा की पेंटिंग्स पर शोध किया है, जिस पर 1992 में उन्हें पीएचडी अवार्ड हुई थी | ]
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मंजूषा गांगुली जी की इन कविताओं में स्मृतियों के माध्यम से वर्तमान को घेरने, जीने और / या व्यवस्थित करने की मर्मपूर्ण बेचैनी को एक जिद की तरह रचा गया है | कह सकते हैं कि पुनर्सृजित किया गया है | जीवन से गहरा प्रेम ही मंजूषा गांगुली जी की कविताओं का मूल स्वर है, शायद इसीलिए जीवन से जुड़ी स्मृतियाँ, जीवन से जुड़े अनुभव और लगाव उनकी कविता में कहीं गहरी करूणा, कहीं तिक्तता, तो कहीं बेचैनी के साथ अभिव्यक्त हुए हैं | खास बात मुझे यह लगी है कि मंजूषा जी की कविताओं में जीवन को उसकी पूरी समग्रता तथा उसके सम्पूर्ण प्रवाह में देखने / परखने का यत्न है |
ReplyDeleteAfter reading Manjusha's poem, one might consider the method of the poet's creation. One cannot make or construct a poem unless the fountain of creation is flowing within the self. I think that Manjusha knows that creation is an internal act, in which every truth must pass through the crucible of internalization to do justice to its effect.
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