Friday, April 30, 2010

अज्ञेय की कविताएँ













|| नहीं तेरे चरणों में ||


कानन का सौंदर्य लूट कर सुमन इकट्ठे कर के
धो सुरभित नीहार-कणों से आँचल में मैं भर के,
देव ! आऊँगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूंगा वह उपहार !

खड़ा रहूँगा तेरे आगे क्षण-भर मैं चुपका-सा,
लख कर मेरे कुसुम जगेगी तेरे उर में आशा,
देव ! आऊँगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूंगा कुछ उपहार !

तोड़-मरोड़ फूल अपने मैं पथ में बिखराऊँगा,
पैरों से फिर कुचल उन्हें, मैं पलट चला जाऊँगा
देव ! आऊँगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूंगा वह उपहार !

क्यों ? मैं ने भी तेरे हाथों सदा यही पाया है -
सदा मुझे जो प्रिय था उस को तू ने ठुकराया है |
देव ! आऊंगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूँगा वह उपहार !

शायद आँखें भर आवें - आँचल से मुख ढँक लूँगा;
आँखों में, उर में क्या है, यह तुझे न दिखने दूँगा |
देव ! आऊंगा तेरे द्वार -
किन्तु नहीं तेरे चरणों में दूंगा कुछ उपहार !













|| अकाल-घन ||


घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर,
उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये |
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

जीवन की उलझन का जिस को मैंने माना था अंतिम हल
वह भी विधि ने छीना मुझ से मुझे मृत्यु भी हुई हलाहल !
विस्मृति के अँधियारे में भी स्मृति के दीप सँजो गये -
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

जीवन-पट के पार कहीं पर काँपीं क्या तेरी भी पलकें ?
तेरे गत का भाल चूमने आयीं बढ़ पीड़ा की अलकें !
मैं ही डूबा, या हम दोनों घन-सम घुल-घुल खो गये ?
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

यहाँ निदाघ जला करता है - भौतिक दूरी अभी बनी है;
किन्तु ग्रीष्म में उमस सरीखी हाय निकटता भी कितनी है !
उठे बवंडर, हहराये, फिर थकी साँस से सो गये !
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |

कसक रही है स्मृति कि अलग तू पर प्राणों की सूनी तारें,
आग्रह से कम्पित हो कर भी बेबस कैसे तुझे पुकारें ?
'तू है दूर', यहीं तक आ कर वे हत-चेतन हो गये ?
घन अकाल में आये, आ कर रो गये |











|| असीम प्रणय की तृष्णा ||


आशाहीना रजनी के अन्तस की चाहें,
हिमकर-विरह-जनित वे भीषण आहें
जल-जल कर जब बुझ जाती हैं,

जब दिनकर की ज्योत्स्ना से सहसा आलोकित
अभिसारिका ऊषा के मुख पर पुलकित
व्रीडा की लाली आती है,

भर देती हैं मेरा अन्तर जाने क्या-क्या इच्छाएं -
क्या अस्फुट, अव्यक्त, अनादि, असीम प्रणय की तृष्णाएँ !

भूल मुझे जाती हैं अपने जीवन की सब कृतियाँ :
कविता, कला, विभा, प्रतिभा - रह जातीं फीकी स्मृतियाँ |
अब तक जो कुछ कर पाया हूँ, तृणवत उड़ जाता है,
लघुता की संज्ञा का सागर उमड़-उमड़ आता है |

तुम, केवल तुम - दिव्य दीप्ति-से, भर आते हो शिरा-शिरा में,
तुम ही तन में, तुम ही मान में, व्याप्त हुए ज्यों दामिनी घन में,
तुम, ज्यों धमनी में जीवन-रस, तुम, ज्यों किरणों में आलोक !











|| सम्भाव्य ||


सम्भव था रजनी रजनीकर की ज्योत्स्ना से रंजित होती,
सम्भव था परिमल मालति से लेकर यामिनि मंडित होती !
सम्भव था तब आँखों में सुषमा निशि की आलोकित होती,
पर छायी अब घोर घटा, गिरते केवल शिशराम्बुद मोती !

सम्भव था वन की वल्लरियाँ कोकिल-कलरव-कूजित होतीं,
राग-पराग-विहीना कलियाँ भ्रान्त भ्रमर से पूजित होतीं;
सम्भव था मम जीवन में गायन की तानें विकसित होतीं,
पर निर्मम नीरव इस ऋतु में नीरव आशा की स्मित होतीं !

सम्भव था निःसीम प्रणय यदि आँखों से आँखें मिल जातीं,
सम्भव था मेरी पीड़ा भी सुखमय विस्मृति में रल जाती -
सम्भव था उजड़े ह्रदयों में प्रेमकली भी फिर खिल आती !
किन्तु कहाँ ! सम्भाव्य स्मृति से सिहर-सिहर उठती यह छाती !











|| घट ||


कंकड़ से तू छील-छील कर आहत कर दे
बांध गले में डोर, कूप के जल में धर दे |
गीला कपड़ा रख मेरा मुख आवृत कर दे -
घर के किसी अँधेरे कोने में तू धर दे |

जैसे चाहे आज मुझे पीड़ित कर ले तू,
जो जी आवे अत्याचार सभी कर ले तू |
कर लूँगा प्रतिशोध कभी पनिहारिन तुझ से ;
नहीं शीघ्र तू द्वंद्व-युद्ध जीतेगी मुझ से !

निज ललाट पर रख मुझ को जब जायेगी तू -
देख किसी को प्रान्तर में रुक जायेगी तू,
भाव उदित होंगे जाने क्या तेरे मन में -
सौदामिनी-सी दौड़ जायेगी तेरे तन में;

मन्द-हसित, सव्रीड झुका लेगी तू माथा,
तब मैं कह डालूँगा तेरे उर की गाथा !
छलका जल गीला कर दूँगा तेरा आँचल,
अत्याचारों का तुझ को दे दूँगा प्रतिफल !

[ मौजूदा वर्ष मूर्धन्य साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' का जन्मशती वर्ष है | उन्हें स्मरण करते हुए यहाँ उनकी जो कविताएँ प्रस्तुत की हैं, वह क्रांतिकारी आंदोलन सेजुड़े होने के कारण अंग्रेजों द्वारा दिल्ली जेल में बंद रखने के दौरान, वर्ष 1931 - 1932 में लिखी कविताओं में से हैं | कविताओं के साथ दिए गए चित्र प्रख्यात चित्रकार रामकुमार की अपने कला-जीवन के शुरू में की गई पेंटिंग्स के हैं | ]

Thursday, April 22, 2010

आशीष त्रिपाठी की कविताएँ



















|| बेटी का हाथ : एक ||

तुम्हारा हाथ पकड़ना
जैसे बेला के फूलों को लेना हाथों में
जैसे दुनिया की सबसे छोटी नदी को महसूसना क़रीब
जैसे छोटी बहर की ग़ज़ल का पास से गुजरना

जैसे सबसे भोले सवालों को बैठना सुलझाने
जैसे बचपन में छूट गई
अपनी सबसे प्यारी गुड़िया से फिर मिलना

जैसे फिर से गाना
अपने छुटपन के अल्लम-गल्लम गीत

जैसे कंचों के खेल की उमर में
लौटना फिर

जैसे आत्मा के सबसे प्यारे टुकड़े को छूना
















|| बेटी का हाथ : दो ||

तुम्हारा हाथ पकड़कर
दुआ करता हूँ उड़ना सीखते पाखियों के लिए
उन्हें घोंसलों में छोड़कर
दाना बीनने गई उनकी माओं के लिए
काम पर गये
या भीख माँगते बच्चों के लिए

दुनिया से विदा लेती वनस्पतियों
और बोलियों के लिए

गिलहरियों के लिए टकोरियों
मिट्ठुओं के लिए मीठे आमों
मछलियों के लिए जल
धरती के लिए बीजों
की दुआ करता हूँ

नदियों के लिए जल की धार
धरती के लिए हरियाली
आसमाँ के लिए सतरंगी इंद्रधनुष
पर्वतों के लिए मेघों के साथ

दुनिया भर की औरतों के लिए
साँस भर अवकाश
और अकुलाई आत्माओं के लिए
सबसे मीठी धुनों की
दुआ करता हूँ

दुआ करता हूँ
और कहता हूँ - आमीन |
















|| बेटी का हाथ : तीन ||

तुम्हारा हाथ पकड़कर
इच्छा जागती है
पृथ्वी को गेंद की तरह देखने की

फिर मैं तुम्हारी उँगली पकड़
दिखाना चाहता हूँ सारी दाग़दार हवेलियाँ
जिनमें रची जाती हैं अम्लीय बारिश की तकनीकें

जहाँ एक बच्चे का भविष्य रचने खातिर
लाखों लोरियों की ज़बान कर दी जाती है बंद
एक उड़ान के लिए
काट लिए जाते हैं अनगिनत परिंदों के पर

जहाँ अनगिनत खेल बच्चों के
रूठे रहते हैं बच्चों से
बच्चों की पोथियों में सब कुछ होता है
सिवा उनके बचपन के

जहाँ बच्चों से ज्यादा प्यारी लगती हैं
बच्चों की तस्वीरें
जहाँ बच्चों से ज्यादा अपने हैं
रंग, जात, धर्म, कुल

फिर मैं तुम्हें सुनाना चाहता हूँ
धूल में भरे
ठुमक-ठुमक चलते
चाँद पकड़ने की जिद करते
ईश्वर के बचपने के गीत

मेरी बच्ची
मैं तुम्हारे बचपन की पूरी उम्र
की कामना करते हुए
तुम्हारे सब संगवारियों के बीच
तुम्हें छोड़ आना चाहता हूँ |

[ 1973 में जन्में आशीष त्रिपाठी की दिलचस्पी कविता के साथ-साथ अभिनय और नाट्यालेखन में भी है | कविताओं के साथ दिये गये चित्र रेणुका सोंधी गुलाटी की पेंटिंग्स के हैं | रेणुका अपनी पेंटिंग्स की तीन एकल प्रदर्शनियां कर चुकी हैं तथा कई समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित कर चुकी हैं | आईफेक्स की कई वार्षिक प्रदर्शनियों में उनका काम चुना गया है | दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम स्थित स्टूडियो में काम कर रहीं रेणुका 'बेटी बचाओ आन्दोलन' चला रहे एक एनजीओ के साथ भी सक्रीय रूप से जुड़ी हुई हैं | ]

Wednesday, April 14, 2010

आशमा कौल की पांच कविताएँ

अंतरंग कला प्रतिष्ठान का एक निमंत्रण हमें मिला है, जो आशमा कौल के नए प्रकाशित कविता संग्रह 'बनाए हैं रास्ते' पर कानपुर में आयोजित की जा रही विचार संगोष्ठी को लेकर है | 'बनाए हैं रास्ते' आशमा कौल का तीसरा कविता संग्रह है जो अभी हाल ही में कल्याणी शिक्षा परिषद् से छप कर आया है | 'अनुभूती के स्वर' तथा 'अभिव्यक्ति के पंख' शीर्षक से प्रकाशित उनके पहले के दो कविता संग्रह कविता के संवेदनशील पाठकों के बीच प्रशंसित हो चुके हैं, और उनमें प्रकाशित कविताओं के भरोसे आशमा कौल कई संस्थाओं से सम्मानित हो चुकी हैं | जीवन के प्रति गहरे लगाव और रागबोध से संपन्न आशमा की कविताओं में वर्तमान समय और उससे जन्मे प्रत्यक्ष आवेग को साफ पहचाना और महसूस किया जा सकता है | यहाँ प्रस्तुत कविताएँ आशमा कौल के तीसरे तथा नए कविता संग्रह 'बनाए हैं रास्ते' से ली गई हैं |

|| जीवन ||

स्वप्नों के बादल
जब उड़ते हुए
यथार्थ की धरा पर
बरसते हैं
यादों के अनगिनत मोती
तब समय के धागे से
निकलकर बिखरते हैं |
महसूस होता है
उस समय,
यह उड़ना और बरसना
ही जीवन है |

भोग-विलास में
उड़ते हुए मनुष्य को
मोक्ष प्राप्ति के लिए
बरसना है |

बादल का मोक्ष है
धरती पर बरसना
मनुष्य का मोक्ष है
मिट्टी से मिलना |

सपनों के बादल
बार-बार उड़ते हैं
यथार्थ की धरा पर
पुनः बरसते हैं
जीवन का क्रम
इसी तरह चलता है |




















|| अहसास ||

आसमान जब मुझे अपनी बाँहों में लेता है
और जमीन अपनी पनाहों में लेती है
मैं उन दोनों के मिलन की कहानी
लिख जाती हूँ श्वास से क्षितिज बन जाती हूँ |

दिशाएं जब भी मुझे सुनती हैं
हवाएं जब भी मुझे छूती हैं
मैं ध्वनि बन फैल जाती हूँ
और छुअन से अहसास हो जाती हूँ |

किसी शंख की आवाज जब मुझे लुभाती है
किसी माँ की लोरी जब मुझे सुलाती है
मैं दर्द से दुआ हो जाती हूँ
आंसुओं से ओस बन जाती हूँ |

अनहद नाद जब भी बज उठता है
और अंतर्मन प्रफुल्लित होता है
मैं सीमित हो असीमित में विलीन होकर
आकार से निराकार हो जाती हूँ |

उस अलौकिक क्षण में मैं स्वयं को उसी का अंश मानती हूँ
उस अद्वितीय पल में मैं उसी का रूप पाती हूँ |




















|| साक्षी ||

मैं जड़ बनना चाहती हूँ
जड़ की तरह धैर्यवान
उसी की तरह अपनी जमीन
नहीं छोड़ना चाहती हूँ
चाहती हूँ मेरी जमीन पर
आशाओं के नए फूल खिलें
प्यार की कलियाँ महकें
सदभाव की बेलें पनपें
और मैं उस बसंत की साक्षी बनूं

मैं किनारा होना चाहती हूँ
किनारे - सी संयमी
उसी की तरह अपनी शर्म
अपना पानी नहीं छोड़ना चाहती
चाहती हूँ मेरा पानी
शांत बहता रहे
निरंतर सागर से मिलने की
कहानी कहता रहे
और मैं उस मिलन की साक्षी बनूं |














|| मौन रह कर ||

मौन रह कर
यह शीशा ही
बता सकता है कि
उमे कैसे ढलती है

मौन रह कर
सिर्फ पगडंडी ही
बता सकती है कि
कारवां कैसे गुजरते हैं

मौन रहकर
यह दिल ही
बता सकता है कि
जज्बात कैसे मचलते हैं

मौन रह कर
यह पर्वत ही
बता सकता है कि
तपस्या कैसे करते हैं

मौन रह कर
यह शून्य ही
बता सकता है कि
शोर कैसा लगता है

मौन रह कर
यह नियति ही
संकेत कर सकती है कि
सृष्टि कैसे चलती है














|| आंसू ||

आंसू दर्द की
मौन भाषा कहते हैं
वे हमेशा गर्व से
पलकों किनारे रहते हैं
क्षणभंगुर - सी अपनी
जिंदगी में जाने इतना दर्द
कैसे सहते हैं
आंसू दर्द .....

मन के बोझ को
हल्का बनाने की खातिर
पलकों की सेज छोड़
गालों पर आकर बहते हैं
आंसू दर्द .....

राजा से रंक तक
न छिपा सके जिसको
शोर के बिना ही
ये दर्दे - दास्तान कहते हैं
आंसू दर्द ......

[ कविताओं के साथ दिये गये चित्र युवा कलाकार शिव वर्मा द्वारा अभी हाल ही में इंडिया हैबिटेट सेंटर की कला दीर्घा में प्रदर्शित इंस्टोलेशन के हैं, जो उन्होंने विभिन्न धातुओं के मूर्तिशिल्पों तथा एलसीडी प्रोजेक्शन से तैयार किये थे | ]

Thursday, April 8, 2010

दिनेश जुगरान की कविताएँ


















|| रूख्सत से पहले ||

मैंने ही हर बार
देर की है
निर्णय लेने में
हवा तो कई बार गुजरी
मेरे बहुत करीब से
हाथ थे जिस्म में लिपटे हुए
और मुट्ठियाँ बंद

आवाज़ें भटकती हुई
रोशनी वाले चौराहे से
गुजर कर
मेरी गली की कगार तक
पहुँच गई हैं
एक हत्यारा भी
दाखिल होने वाला होगा
उसकी परछाईं बिखरी हुई है

इस बेजान लम्हे में
तुम मेरे बहुत करीब से भी गुजरो
तो भी
उन हमला करने वाले हाथों को
देख नहीं पाओगे
बचाना तो कभी
तुम्हारी कोशिश में शामिल नहीं था

इस शहर की पुरानी इमारतें
अपने मौन में
किसे याद करती हैं
इनकी आखें कहाँ हैं
कोई भी आवाज क्यों सुनाई नहीं देती
सारी खामोशी मेरी पीठ पर लदी है

एक अजनबी
दीवार के पास खड़ा
मुस्कुरा रहा है
वे लम्हे
जिन्हें मैंने अपना साक्षी बनाया था
मेरी हड्डियों में चुभ रहे हैं

एक गूँगा व्यक्ति
बहुत देर से
मेरे करीब बैठा हुआ है
मेरी आवाज का सारा तिलिस्म
गायब हो चुका है
बहुत सारे चकनाचूर चेहरों के बीच
तुम मुझे साफ दिखाई दे रहे हो

एक तारा
जिसकी आँखें हैं नम
हौले से आवाज देकर
रोकता है मुझे
उसकी मुट्ठियों में बंद है
शायद
रूख्सत से पहले
गुजरा हुआ वक्त
मेरी याददाश्त का फ़रिश्ता
कहीं गुम हो गया है

जब देर रात
देह में उठता है दर्द
तब मेरी आँखों
और होठों का फासला
बहुत कम हो जाता है

मुझे अकेला छोड़ दो
मुझे जाना है
अपने बेतरतीब
और बेवजह बातों के
सिलसिलों को
आगे बढ़ाने के लिए
जहाँ नब्बे साल की दादी
अकेले ही रात को
पहाड़ों में
एक लाठी के साथ
अपनी गाय को
खोजने के लिए निकल जाती है


















|| मेरे और तुम्हारे बीच ||

जब मैं मिलता हूँ तुमसे
कोई बात नहीं करता
मेरी बातों और
तुम्हारे बीच
इतनी दूरी हो गई है
मैं तुम्हें कोई भी
आप बीती नहीं सुना सकता
कोई एक घास का तिनका भी
नहीं बचा है
मेरे अन्दर जिसे
शब्दों के बदले मैं दे सकूँ

ये समय वैसे भी
लंबी-लंबी बातें
करने का
नहीं रह गया है
सबकी कलाइयों में घड़ियाँ
अलग-अलग समय दिखा रही हैं

तुम वैसे
कुछ सुनने को तैयार भी नहीं हो
तुम्हें एहसास है
मेरे पास कहने को कुछ नया नहीं है
तुम्हारी चुप्पी से मुझे कोई भय नहीं है
डर मुझे सिर्फ
तुम्हारी आँखों से है
जो लगातार पैनी होती जा रही है

तुम करो कोई बात
या मैं दूँ कोई जवाब
कोई फर्क नहीं पड़ता है
समय की खामोशी को
आओ आपस में बाँट लेते हैं

देखो, बाहर रात का अँधेरा है
पूरी दोपहर तुम काफी बोल चुके हो
अँधेरा महसूस करो
सुबह जागते समय
फिर चिल्ला लेना


















|| रात होने तक ||

ये क्या वही आँखें हैं
जो थोड़ी देर पहले
मुझे सड़क के किनारे
घूर रहीं थीं

उन आँखों का रंग
शाम होने तक
मेरी दीवारों पर
लिपटे स्लेटी रंग
से मिलता हुआ लगता है

कहीं वे मेरी ही आँखें तो नहीं हैं
जो शाम होने तक
लगने लगती हैं
इतनी भयावह

तुमने सुबह - सुबह
जिस माथे को छूकर
किया था बिदा
घर लौटते वक्त
उस पर लिखी होती हैं
मौत की कई इबारतें
हम आदी हो गए हैं
अपने - अपने
भय के दायरे में
जीने के
रात होने तक
मेरी आवाज भी
उगलने लगती है
अँधेरा

हवाएँ घर की चार दीवारी के बाहर
चौकन्नी
शहर के चौकीदारों के हाथों में
एलान करता हुआ
एक भौपूं है
अँधेरे में छुपी हुई परछाइयों की तलाश में

मेरे पास तुम्हें तसल्ली देने के लिए
कोई शब्द नहीं
तुम सो जाओ बच्चों के साथ
मैं सो जाता हूँ दरवाजे के करीब

[ पौड़ी के मूल निवासी दिनेश जुगरान का जन्म लखनऊ में हुआ | इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा पूरी करने के बाद भारतीय पुलिस सेवा में नौकरी की | रिटायर होने के बाद पूरी तरह कविता, संगीत और सत्संग में दिलचस्पी ले रहे हैं | दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र वरिष्ठ चित्रकार एसजी वासुदेव की पेंटिंग्स के हैं | ]

Sunday, April 4, 2010

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की चार कविताएँ













|| चमक ||

चमक है पसीने की
कसी हुई मांसपेशियों पर,
चमक है ख्वाबों की
तनी हुई भृकुटी पर |
चमक सुर्ख, तपे लोहे की घन में,
चमक बहते नाले की
शांत सोये वन में |
उसी चमक के सहारे मैं जिऊँगा
हर हादसे में आये जख्मों को सिऊँगा |













|| पहाड़ ||

भय से मुक्त किया तुमने
पर आशंका से नहीं |
जाने कब पहाड़ यह,
संतुलन बिगड़े
जा अतल में समाये
या फिर महाशून्य में
विलय हो जाये -
जिसे मैं अपनी छाती पर ढो रहा हूँ |
जिसके लिए निर्मल पारदर्शी जल
हो रहा हूँ |













|| हरा और पीला ||

फैले हरे पर
क्यों सिमटी पीली रेखा -
मैंने खुद को
तुम्हारी आँखों में देखा |
बाल मैं नहीं हूँ
लहराते धान का खेत में
जो कलगी बन जाऊं
दृश्य जगत का सेतमेत में
डंठल हूँ
इधर लेटा, उधर देता हूँ,
चारा हूँ पशुओं का
मत कहो प्रणेता हूँ |













|| चिड़िया ||

जितनी रंगीन चिड़ियाँ थीं मुझमें
सब उड़ गईं
जाने किन तरुओं गिरि-शिखरों से
जुड़ गईं
सूना नहीं हूँ मैं फिर भी ओ चितेरे,
राग बन कर के
सच मुझ में ही निचुड़ गईं |

[ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने यह कविताएँ प्रख्यात चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के प्रति अपने विगत स्नेह और एक बड़े कलाकार के प्रति अपनी श्रद्दा को प्रकट करने के उद्वेश्य से लिखी थीं | स्वामीनाथन का नाम उन थोड़े से कलाकर्मियों में शुमार किया जाता है जो बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्व में मनुष्य की अंतरात्मा और कला माध्यम के प्रश्नों को अटूट देखने में समर्थ हैं और जिनका कुछ भी सोचा-कहा-किया हुआ हमारे लिए एक गहरा अर्थ रखता है | कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र स्वामीनाथन की पेंटिंग्स के हैं | ]

Thursday, April 1, 2010

कुँवरनारायण की तीन कविताएँ



















|| एक दुराग्रह की हद तक ||

आदमी को पूरी तरह समझने के लिए
आवश्यक है
दूर - दूर तक उसके अतीत में जाना
- एक दुराग्रह की हद तक .....

केवल एक पशु - गंध को पकड़े
नाक की सीध में
अमीबा तक ही नहीं,
पढ़ना होगा
जीवाश्मों में संकेतित
उसकी प्रकृति के पूरे पंचांग को

भटकते रहना होगा
अनिर्दिष्ट काल तक
उस विरल 'ध्वनी' के लिए
जिससे उत्पन्न हुआ था पहला 'शब्द' ....

एक वंश - वृक्ष पर
सेब, साँप और बंदर,
वृक्ष के नीचे
प्रथम पुरुष और स्त्री
- इतना संयोग काफी नहीं

अखंड नक्षत्र-लोक को हलकोर कर
उन विश्रंखल कड़ियों को जोड़ना होगा
जिनके सुयोग से संभव हो पाती है एक स्रष्टि
तमाम विसंगतियों के बावजूद
















|| क्या चाहता हूँ ||

तुम्हारा वह परेशान सवाल
"आखिर तुम मुझसे चाहते क्या हो ?"

कैसे बताऊँ उस चाहने का अतापता
जो मेरे जीवन से बाहर
कहीं है ही नहीं |
जिसका सौंदर्य
वृक्षों से छनती धूप की तरह
झिलमिल है |

कैसे बताऊँ कि हो सकता है
एक ऐसा भी चाहना
जिसे शब्द नहीं दिए जा सकते | ....

मैं चाहता हूँ तुम्हें
पर खुद भी नहीं जानता
कि क्या चाहता हूँ तुम से |

शायद एक ऐसी अंतरंगता
जो अंगों की भाषा से व्यंजित हो
और उनसे मुक्त भी |

छूना चाहता हूँ तुम्हें
कुछ इस तरह
जैसे आग को छूती है आग
पानी को छूता है पानी
और छूते ही उनके बीच से
मिट जाता है स्थूल का अंतर |

एक पारिवारिक यथार्थ में
जकड़ी तुम्हारी देह,
धीरे - धीरे छीजता तुम्हारा रूप

कैसे बताऊँ कि पाना चाहता हूँ तुम्हें
कुछ इस तरह
जैसे पाया जाता है कभी-कभी
एक क्षणिक अनुभूति को
ठहरा कर
एक विरल जीवन - स्वप्न में




















|| माँ का कमरा ||

इस घर के कोने - कोने में बसे हैं वे
पूर्वज, सगे-संबंधी, उनकी चीजें, उनकी यादें |

ढीलाढाला वह पलंग
जैसे उस पर कोई लेटा हो |
आरामकुर्सी के पास रखा पीकदान |
पोपले मुँहवाले दद्दा की तस्वीर
जो बड़े कमरे में टँगी है |
आँगन में औंधा पड़ा टब |
वह पिचकी बाल्टी जो तब भी चूती थी
और जिसमें पानी कभी भी इतनी देर नहीं रुका
कि बासी हो पाता |
बेंत का बना वह मोढ़ा जिसे पहिये की तरह लुढ़का कर
मैं गलियारे में खेला करता था ..... सब - के - सब
न जाने कब से उसी समय में रखे हुए ......

और हाँ .....
वह कमरा
मेरी माँ की लंबी बीमारी के अंतिम दिनों का कमरा
जो तभी से बंद है
जिसमें आज भी कोई जीवित-सा लगता है,
मृत्यु से कहीं बड़े साहस भर जीवित |

[ यहाँ प्रदर्शित तीनों चित्र अनीता कृषाली की पेंटिंग्स के हैं | नई दिल्ली की त्रिवेणी कला संगम में एक चित्रकार के बतौर काम कर रहीं अनीता ने इतिहास में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय से कला का कोर्स किया है | आईफैक्स की वार्षिक प्रदर्शनी में उनका काम चुना और प्रदर्शित हो जा चुका है | उसके आलावा भी कई समूह प्रदर्शनियों में अनीता कृषाली की पेंटिंग्स प्रदर्शित हो चुकी हैं | ]