Friday, August 26, 2011

व्योमेश शुक्ल की चार कविताएँ















|| जानना ||

एक दिन कीड़ा काग़ज़ पर बैठा
लेकिन इस बैठने से कुछ समझ पाना असंभव था
इस तरह हल्का असंभव एक बार छोड़ कर चला गया वह मेरे लिए
मैं पतंग उड़ाना तैरना या हारमोनियम बजाना नहीं जानता हूँ
वैसे ही इस कुछ या बहुत कुछ को समझना या सोचना भी शायद नहीं जानता
हूँगा मैंने ख़ुद से कहा
एक जोड़ा आँसू के डब डब को तब समझ नहीं पाया था
ख़ुशी में रोने को समझता हूँ थोड़ा बहुत
अक्सर ख़ुशी को ही नहीं समझ पाता हूँ
रोना जानता हूँ
प्यार करना और पढ़ना दुनिया के सबसे कोमल और पवित्र काम हैं
निर्दोष हँसना अब शायद कोई नहीं जानता
तमाम काम यह एक बड़ा सच है कि तमाम लोग नहीं जानते
जानना हमेशा एक मुश्किल काम रहा



















|| कुछ देर ||

तुम्हारी दाहिनी भौं से ज़रा ऊपर
जैसे किसी चोट का लाल निशान था
तुम सो रही थी और वो निशान ख़ुद से जुड़े सभी सवालों के साथ
मेरी नींद में
मेरे जागरण की नींद में
चला आया है
इसे तकलीफ़ या ऐसा या ऐसा ही कुछ कह पाने से पहले
रोज़ की तरह
सुबह हो जाती है

सुबह हुई तो वह निशान वहाँ नहीं था
वह वहाँ था जहाँ उसे होना था
लोगों ने बताया : तुम्हारे दाहिने हाथ में काले रंग की जो चूड़ी है
उसी का दाग़ रहा होगा
या कहीं ठोकर लग गई हो हल्की
या मच्छर ने काट लिया हो
और ऐसे दागों का क्या है, हैं, हैं, नहीं हैं, नहीं हैं
और ये सब होता रहता है

यों, वो ज़रा सा लाल रंग
कहीं किसी और रंग में घुल गया है

हालाँकि तब से कहीं पहुँचने में मुझे कुछ देर हो जा रही है



















|| मैं जो लिखना चाहता था ||

आँख से अदृश्य का रिश्ता है
मुझे लगा है सारे दृश्य
अदृश्य पर पर्दा डालते हुए होते हैं
जो कुछ नहीं दिखा सब दृश्य में है
और नहीं दिख रहा है

विजय मोटरसाइकिल मिस्त्री की दुकान शनिवार को खुली हुई है
और उस खुले में दुकान की रविवार बंदी
नहीं दिखाई दी लेकिन सोमवार का खुला दिख रहा है

इसका उलट लेकिन एक छुट्टी के दिन हुआ
दुकान बंद थी
बंद के दृश्य में दुकान अदृश्य रूप से खुली हुई थी

और लोग पता नहीं क्यों
उस दिन मज़े लेकर मोटरसाइकिल बनवा रहे थे
मेरे पास सिर्फ एक खटारा स्कूटर है कोई मोटरसाइकिल नहीं है
लेकिन मैं भी सिगरेट पीता हुआ एक बजाज पल्सर बनवा रहा था

अदृश्य से घबड़ाकर मैं दृश्य में चला आया
और दोस्त से पूछने लगा इस दुकान के बारे में
तो वह बोला कि आज यह दुकान
ज़्यादा याद आ रही है क्या पता अपनी याद में खुली दुकान में
वह भी मेरी सिगरेट आधी पी रहा हो

मैंने घर आकर मन में कहा पांडिचेरी मैं वहाँ कभी नहीं गया हूँ
वहाँ का सारा स्थापत्य मैंने ख़ुद को बताया कि
पांडिचेरी शब्द की ध्वनि के पीछे है
लेकिन है ज़रूर
फिर मैंने एक वाक्य लिखना चाहा
लिखने पे चाह अदृश्य है शब्द दृश्य हैं
शब्द की वस्तुएँ दिखाई दे रही हैं और
जो मैं कहना चाहता था उसका कहीं पता नहीं है
वह शायद वाक्य के पर्दे में है
वह नहीं है वह है
मैं जो नहीं लिखना चाहता था वह क़तई नहीं है



















|| यही है ||

जैसे हर क्षण कुछ घट रहा है
हो रहा सब कुछ घटना है
ऐसा कुछ नहीं हो रहा है जो लग रहा था कि होगा
अनिश्चित इसे कहते हैं
पूरा नहीं होता हुआ ताल बज रहा है
उसका आवर्तन अनन्त जितना लम्बा जिसमें
पूरा भूगोल समय का
जंगली भालू है उसमें कुछ बाँसुरियाँ हैं
झीनी आवाज़ है नदी और माँ में से आती हुई
सब कुछ एक साथ यथार्थ है रहस्य है
यही है

[कविता के आलावा व्योमेश शुक्ल की अनुवाद तथा आलोचनात्मक व समीक्षात्मक लेखन में सक्रियता है | वाराणसी में जन्मे और पढ़े व्योमेश को कविता के लिए अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार मिला है | यहाँ उनकी कविताओं के साथ दिए गए चित्र महेश प्रजापति की पेंटिंग्स के हैं | भिलाई में जन्मे, खैरागढ़ और शान्तिनिकेतन में पढ़े तथा चंडीगढ़ ऑर्ट कॉलिज में कार्यरत महेश ने देश-विदेश में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित किया है | उन्हें ललित कला अकादमी तथा इंटरनेश्नल प्रिंट एण्ड ड्राइंग त्रिनाले का अवार्ड मिला है |]



Thursday, August 18, 2011

सुभाष मुखोपाध्याय की दो कविताएँ














|| धूप में रखूँगा ||

हम उमरदराज़ लोग
क्यों बार-बार
घर लौट कर आँखें पोंछते हैं,
वह विस्मित लड़की सोचती है -
हम ज़रूर रो रहे हैं !
यदि नहीं
तो हमारी आँखें नम क्यों हैं ?
भोली लड़की !
हम कैसे समझाएँ
कभी-कभी आँखों के कुएँ के पानी में
रुलाई नहीं, जलन पैदा होती है,
भोली लड़की !
गीली लकड़ी को फूँकने से आग नहीं सुलगती
धुएँ के गुबार में जलती हैं आँखें,
जहाँ भी देखो सिर्फ धुआँ ही धुआँ !
जलती आँखें ले हम बाहर आते हैं
पोंछते हैं आँखें -
तभी तो हमारी आँखें नम रहती हैं

जीवन का यह हाल यूँ तो वर्ष-भर नहीं
केवल बारिश के कुछ माह ....
फिर
सूखी लकड़ियों की धधकती आग में
खदकेंगे चावल के दाने
तब तो जहाँ है - ठीक-ठाक
हम साफ़-साफ़ देख सकेंगे
वर्षा के बाद लकड़ी, कोयला, भीगा सब कुछ
हम धूप में रख देंगे

धूप में रख देंगे
यहाँ तक कि ह्रदय भी !!














|| मैं आ रहा हूँ ||

मैंने आसमान की ओर देखा
वहाँ तुम्हारा चेहरा था
मैंने बंद की आँखें
वहाँ तुम्हारा चेहरा था
वज्र को बहरा कर दे ऐसी आवाज़ में तुम मुझे पुकार रहे हो |

बच्चों की आवाज़ में
दिन और रात के टुकड़े - टुकड़े कर
कौन रो रहे हैं ?
मौत के आतंक में जीवन से लिपट कर
कौन रो रहे हैं |
और इसीलिए
वज्र को बहरा कर देने वाली आवाज़ में
तुम मुझे पुकार रहे हो |

मैं आ रहा हूँ -
दोनों हाथों से अँधेरे को ठेलते-ठेलते
आ रहा हूँ मैं |

किसने संगीनें तान रखी हैं ? ....हटाओ |
कौन खड़ी कर रहा है रुकावटों की दीवारें ? ... तोड़ो |
सारी धरती के लिए मैं लेकर आ रहा हूँ
न रोकी जा सकने वाली अनोखी शांति |

[सुभाष मुखोपाध्याय की मूल बंगला में लिखी इन कविताओं का अनुवाद उत्पल बैनर्जी ने किया है | कविताओं के साथ दिए गए चित्र रमेश झावर की पेंटिंग्स के हैं |]


Friday, August 12, 2011

लीलाधर मंडलोई की एक गद्य कविता

|| हत्यारे उतर चुके हैं क्षीरसागर में ||



















(एक)
मैं रोज़ सोता था सुकून की नींद | और अब जागता हूँ जैसे नींद में | भयावह सपनों में डूबी हैं रातें | मैं हत्यारों को देखता हूँ सपनों में | उनके चेहरे अमूर्त हैं | बस उनका होना परिचितों-सा लगता है | वे बनक-ठनक में सभ्य संभ्रांत दीखते हैं | उनके पास भव्य मोटरें हैं | वे अमूमन बड़ी-बड़ी कोठियों से निकलकर आते हैं | उनके पीछे चलने वालों की जमात है | जो नई-नई शक्ल में हर जगह उपस्थित हैं | वे हथियारों से लैस हैं | उनकी आत्मा का पानी सूख गया है | इस कारण वे पैसों के एवज़ हर उस चीज़ को खरीदने पर आमादा हैं जिसमें पानी है | और सरकारें अपनी तरह से इस व्यापार में हत्यारों की सरकारी गवाह बन चुकी हैं | मेरे इस सपने में जो बिना किसी स्टिंग ऑपरेशन के मूर्त है, मुझे आकंठ घेर लेता है डर में | मैं चीखना चाहता हूँ और आवाज़ जैसे गले में अटकी | सपना मुझे लिए भागता है चौतरफ | और मैं देखता हूँ वो सब जो कभी देखा नहीं | और इस तरह तो बिल्कुल नहीं | कि मेरी आत्मा लहूलुहान |



















(दो)
मैं तो बंधक उनका | हालाँकि यह तो स्वप्न में | मैं उनके पीछे भागता | कि जान सकूँ वह सच जो जीवन भर भारी बहोत | पानी कम होता हुआ गिरवी कहीं | उसके लिए मैं दौड़ता हूँ कि वह कितना बचा याकि बच जायेगा | संततियों की संभार के लिए | मैं उतरता हूँ एक माँ की कोख में | वहाँ एक भ्रूण है | अपने भार के तिरसठ प्रतिशत पानी में | उसी से जीवित वह | मैं कैसे जानूँ कि वह उसी मात्रा में है | और बच जायेगा सुरक्षित | अगर पानी कम हुआ | तो वह बचा हुआ होगा कितना कि जब जन्म लेगा | मैं उतरता हूँ अब अपनी देह में | वहाँ उसे होना चाहिए दो-तिहाई या तीन-चौथाई | और रक्त के प्लाज़मा में चार प्रतिशत होना जरूरी है | और कोशिकाओं में सोलह प्रतिशत | क्या इतना पानी सही-सही मात्रा में होगा | इधर अनेक बीमारियों से घिरा मैं, अब स्वप्न में हूँ डॉक्टर की टेबल पर | वह जाँच करता है और पर्ची में हिदायत लिखता है | मोटे अक्षरों में वह 'शुद्ध पानी' के सेवन पर ज़ोर डालता है यह जानते हुए कि वह सिर्फ प्रदूषित | बाज़ार के दावों को गले लगाए, मैं दौड़ता हूँ शुद्ध पानी के लिए | और झूठ पर एतबार करता हूँ कि जो सच की तरह परोसा गया | कि उसमें अकूत व्यापार | बस शुद्ध का विज्ञापन है अशुद्ध | पानी में वह होगा, ये भरोसा नहीं कर पाता और भय से काँपने लगता हूँ |

[लीलाधर मंडलोई सुपरिचित कवि व आलोचक हैं, जिनकी गद्य व पद्य की अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हैं | यहाँ उनकी कविताओं के साथ दिए गए चित्र शैलेंद्र कुमार के मूर्तिशिल्पों के हैं | पूर्वी चंपारण में जन्में, खैरागढ़ विश्व विद्यालय में पढ़े शैलेंद्र ने अपने मूतिशिल्पों की तीन एकल प्रदर्शनियाँ की हैं तथा कई समूह प्रदर्शनियों में अपने मूर्तिशिल्पों को प्रदर्शित किया है |]

Tuesday, August 2, 2011

नरेन्द्र जैन की कविताएँ



















|| इस वक्त ||

इस वक्त
पीली सुनहरी रोशनी है
मकान में फड़फड़ाती अकेली

दीवारों पर चीज़ों की आधी
परछाई डोलती है
कमीज़ की दो बाहें
शीशी के आसपास दुबका अंधकार

तस्वीरों की खामोश आकृतियाँ
डूबी अपने निर्जीव संसार में
बाहर मटमैले आसमान में भटके यात्री सा
आधा चाँद
आखिरी नज़र डालता है
सामने फैले अंधकार पर

कैसी है यह दुनिया
जो रोज़ जिए चली जाती है

कैसा है यह मिट्टी का दिया
जो फैलाता है
इस विध्वंस के बीच
पीली सुनहरी रोशनी

आह, आखिरी तिनके का सहारा
कितना मज़बूत है
चट्टान की तरह



















|| यहाँ से आगे ||

यहाँ से आगे
कहाँ जाऊँगा
कुछ पता नहीं

लेकिन जानता हूँ
यहाँ से आगे रास्ता
ज़िंदगी की ओर जाता है

वह
अस्तबल में हो सकती है
हो सकती है खेत की मेड़ पर
मुँह में बच्चे के
मीठे स्तन की मानिन्द
हो सकती है

मृत्यु के ऐन सामने
किलकारी की तरह

सच तो यह है
मैं इस समय इसलिए लिखता हूँ
कि मुझे ज़िंदगी का सरनामा मालूम है
और जानता हूँ
कि
पा ही लूँगा उसे मैं



















|| कहाँ-कहाँ नहीं होता हूँ ||

हवा का हल्का झोंका
मुझे बहाये लिए जाता है

कहीं न होते हुए भी
कहाँ-कहाँ नहीं होता हूँ

दृश्य की सीध में
देखो मुझे

बिजली की कौंध में
हादसों के स्पर्श में
बच्चे की स्मृतियों में देखो मुझे

यह नहीं होगा कि
चट्टान की तरह रहूँ
एक सूखे पत्ते की दिनचर्या
ज़्यादा सहज जान पड़ती है
एक पल हवा के साथ
एक पल आग के साथ

हवा का एक झोंका
बहाये लिए जाता है मुझे



















|| आलू ||

जब कुछ भी नहीं
हुआ करता
आलू ज़रूर होते हैं

जब कुछ भी न होगा
आलू होंगे ज़रूर

स्वाद से ज़्यादा
भूख से ताल्लुक रखते हैं
आलू

टुकड़ा भर आलू हो
तो पानीदार सब्ज़ी बना ही लेती हैं स्त्रियाँ

मिट्टी में दबे आलू
मिट्टी से बाहर आकर
प्रसन्न ही होते हैं

जब
आँच में भूने जाते हैं
भूखा आदमी कह उठता है
शुक्र है खुदा का
यहाँ आलू हैं

[नरेन्द्र जैन की कविताएँ उनके कई संग्रहों में तो संकलित हैं हीं, रूसी भाषा में भी अनुदित होकर प्रकाशित हो चुकी हैं | उन्होंने ख़ुद भी कविताओं, कहानियों व नाट्य-कृतियों के हिंदी अनुवाद खूब किए हैं | दो-ढाई दशक पहले उन्होंने 'अंततः' नाम की पत्रिका का संपादन भी किया था | 1948 में जन्मे नरेन्द्र जैन का आज जन्मदिन है | आधुनिक चित्रकला के प्रति गहरा रुझान रखने वाले नरेन्द्र की यहाँ प्रस्तुत कविताओं के साथ दिए गए चित्र मुक्ता गुप्ता की पेंटिंग्स के हैं | विश्व भारती यूनिवर्सिटी से एमएफए मुक्ता ने रांची, जमशेदपुर, पटना, भुवनेश्वर, धनबाद, ग्वालियर, उज्जैन आदि में आयोजित हुए कला-शिविरों में भाग लिया है तथा इन जगहों के साथ-साथ दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ आदि में आयोजित हुई समूह प्रदर्शनियों में अपने काम को प्रदर्शित किया है | दिल्ली की ललित कला अकादमी की दीर्घा में पिछले करीब एक सप्ताह से चल रही एक समूह प्रदर्शनी में उनकी पेंटिंग्स को देखा जा सकता है | मुक्ता ने अपनी पेंटिंग्स की एक एकल प्रदर्शनी भी की है, और वह कई संस्थाओं से पुरस्कृत व सम्मानित हुई हैं |]