Thursday, July 29, 2010

कुमार गन्धर्व के लिये अशोक वाजपेयी की कविताएँ



















|| बहुरि अकेला ||

अन्तराम्भ
समय से बाहर
शब्दों दुखों घावों के शिल्प से
जल जो नदी है
स्मृति में एकत्र
जासूस की तरह जीवन
यह जो
ढुलकने से पहले
मरने के पहले कितने स्थगन
थोड़ा-थोड़ा हमें भी
रंग वही सूर्यास्त उदय का
विदा का कोई समय नहीं
किए न किए का अरण्य
कहीं नहीं के घर में
घर और घर नहीं
फहा फाहा उड़ते समय से
किस शैव चट्टान पर
प्रार्थना में कोई शब्द नहीं
होना पृथ्वी न होना आकाश
असंख्य में से सिर्फ़ एक
अंत का समय आरम्भ का समय



















|| जल जो नदी है ||

नदी बिलकुल शान्त कभी नहीं हो पाती चाहकर भी
कोई न कोई आवाज़ या सन्नाटा गूँजता हुआ सा
उसके तट पर उसके मझधार में किसी चट्टान से
नीरव टकराते उसके जल में |
नदी बहती है धरातल पर सूखकर रेत के नीचे थमकर
प्रतिपल जाती हहुई अपने विलय की ओर
फिर भी उच्छल
धूप अँधेरे लू-लपट
सुख की झूलती हुई डालों
दुःख के खिसकते-ढहते ढूहों से
हर सर्वनाम को लीलता हुआ
आदि और अंत से उदासीन
सिर्फ़ बहता चलता है जल
जिसे शायद पता ही नहीं चलता कि वह नदी है |














|| थोड़ा-थोड़ा हमें भी ||

जैसे सूर्योदय बुलाता है
कलरव ओस हलकी सी ठण्ड
उषा की केलि को
वैसे ही पुकारती है
एक ही मृत्यु
दूसरे के जन्म को-
तिल-सकट कच्चे दूध में पड़े तिल
माघ की ठण्ड में हुए शुभारम्भ को-
एक जन्म ही नहीं फुँकता
एक जीवन की ही नहीं होती अन्त्येष्टि
कुछ और जन्म भी झुलसते हैं
कुछ और जीवन भी सरकते हैं
अंत कि ओर-
जो होने न होने को गाता है
उसी का होना अन्तत: मौन है
उसी का न होना शान्ति |
हम अपनी चुप्पी के पार
एक पुकार सुनते हैं
और अनसुनी करते हैं |
जो जाता है
थोड़ा-थोड़ा हमें भी ले जाता है
और इसलिए कभी
पूरी तरह से नहीं जाता है |















|| विदा का कोई समय नहीं है ||

कौन से प्रतीक, कौन से रंग
कौन सा समय
चुनती है विदा ?
अपनी विजड़ित आभा में स्थिर चट्टानें
दिन को डूबने से थामे हुए गिरिमालाएँ
अँधेरे में गाने की इच्छा-सा ठहरा हुआ सन्नाटा
वनस्पतियों में निर्बाध चमकती हरीतिमा
भोजन के बाद बचे-खुचे से सजी थाली
कुनकुने पानी से भरी छलछलाती बाल्टी
साँकल बंद करने को उठा हाथ
नींद कि नीरव निस्स्वप्न घाटी की गहरी चुप्पी
चिड़ियों को ख़बर लगाने के पहले का अर्द्धजागरण
- कौन कब अचानक
कह देगा
अलविदा ?

विदा
अपूर्णता से
किसलयों कुचाग्रों केलि से
शब्दार्थ मौन रूपकों से
गान धैर्य अजात पौत्र से
सगुण निराकार से
अँधेरी निर्जन सड़क पर सुबह के आदमी से
मसाला पीसती बार-बार झार से आंसू पोंछती औरत से
विदा
देवताओं के पाखण्ड और ब्रह्म-प्रपंच से
विदा ककहरे से
विदा अक्षरारम्भ और अधूरे वाक्य से
हुआ-होगा-होता से
हर सर्वनाम से
क्रियापदों के झुण्डों बवंडर खिड़की के काँच से
गिलहरियों की धूप और चिड़ियों के अवकाश से
विदा का कोई समय नहीं है
हर क्षण विदा है
जो बीतता है
विदा लेता है
अक्सर बिना जाने भी |

[ कुमार गन्धर्व के लिये लिखी अशोक वाजपेयी की इन कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र युवा चित्रकार महुआ रॉय की पेंटिंग्स के हैं | ललित कला अकादमी की नई दिल्ली स्थित कलादीर्घा में अभी हाल ही में 'सोपान' शीर्षक के अंतर्गत आयोजित एक समूह प्रदर्शनी में महुआ रॉय के चित्रों ने दर्शकों व कला मर्मज्ञों का खास तौर से ध्यान खींचा तो शायद अपनी चित्र-भाषा की अप्रतिमता के कारण | महुआ रॉय ने जामिया मिलिया इस्लामिया से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है | इसके आलावा नेशनल म्युजियम से उन्होंने 'इंडियन ऑर्ट' में एक कोर्स भी किया है | महुआ ने स्कूलों, संस्थाओं व कार्पोरेट क्षेत्र के लिये एक आर्टिस्ट व डिज़ायनर के रूप में काम करने के साथ-साथ कई समूह प्रदर्शनियों में अपने चित्रों को प्रदर्शित किया है तथा आर्ट-कैम्प में भाग लिया है | ]

Monday, July 26, 2010

नरेन्द्र जैन की 'बंगलूर डायरी'
















|| बल्लाशाह में सुबह ||

ईंट के भट्टों से निरंतर उठाता धुआँ
कुछ कत्थई, कुछ सुर्ख़ ईंटे
धुँध की गिरफ्त में स्तब्ध जंगल
विदिशा से सात सौ मील दूर
धान के खेत में खड़ी ये तीन सायकिलें
एक निरंतर जलता अलाव जो
नियामत है मजूरों के लिए

ऐ मौला
इस परिदृश्य का निर्माता तू हो ही नहीं सकता

आ और देख ये हाथ
जो कुछ गढ़ रहे निरंतर
जिनकी त्वचा इतनी कड़ी
कि
हुई जाती हथेलियों की रेखाएं छिन्न भिन्न


















|| सिरपुरकाग़ज़नगर से गुज़रते ||

धान के खेत में
औंधा पड़ा सूरज
लुगदी के विशालकाय दलदल से बाहर
आता
खामोश काग़ज़

अभी ख़ामोश है क्षितिज तक फंसा सूखता
काग़ज़

इसी काग़ज़ पर लिखे जायेंगे एक दिन
फ़ैसले, तकरीरें, जिरहें, बहसें, आजीवन कारा
किसी को मृत्युदंड

और चंद कविताएं




















|| सिकंदराबाद में पतंगें ||

जितने रंग हो सकते हैं सृष्टि में
और जिन रंगों कि खोज की जानी अभी
बाकी है
उन सारे रंगों को लिये

असंख्य पतंगों ने
कर दिया है आच्छादित सिकंदराबाद का
आसमान

रंगबिरंगी लहरों का एक ज्वार जैसे उफनता है
और तेजी से नीचे उतरता है

ये सूर्य के मकर राशि में प्रवेश की पूर्वसंध्या है
सिकंदराबाद के पतंगसाज़ व्यस्त हैं
और पतंगबाज़ देख रहे सिर्फ आसमान
की ओर

सबसे खुश है यह लड़का
जिसने काट दी है किसी की डोर
और हल्की सी उदासी उसके इर्दगिर्द है
जिसकी पतंग कटकर अब धरती की ओर
चली आ रही है



















|| जामे उस्मानिया का कब्रिस्तान ||

जामे उस्मानिया के कब्रिस्तान में
हर क़ब्र के सामने
एक घर का भी स्मारक है

यह घर इतना छोटा है
की इसे हथेली पर रखा जा सकता है
दिवंगत ने जिस लालसा से बनाया
होगा घर
उसके इंतकाल के बाद घर भी जैसे
दफ़न हुआ

जामे उस्मानिया का
यह शांत कब्रिस्तान
शायद इस तथ्य पर रौशनी डालता है
कि
आदमी घर बनाता है
लेकिन रहते हमेशा उसमें दूसरे हैं
















|| काज़ीपेट के मुर्ग़े ||

हालांकि सूरज सिर पर है
और धूप चौंधियां रही है
काज़ीपेट में दो मुर्ग़े इस घड़ी बांग दे
रहे हैं
हो सकता है
अभी नींद पूरी हुई हो
और दड़बे से बाहर आये हों वे मुर्ग़े

यह भी हो सकता है
कि उत्तर आधुनिक हों काज़ीपेट के
मुर्ग़े
और तयशुदा न रही हो
उनके बांग देने कि घड़ी

जो हो
काज़ीपेट
तो अलस्सुबह का जागा ठहरा
बस उस आलम में गूंज रही
बांग

[ समकालीन हिंदी कविता में अपनी खास पहचान रखने वाले नरेन्द्र जैन की इन कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र के के हेब्बार के रूप में पहचाने जाने वाले प्रख्यात चित्रकार कतिंगगेरी कृष्ण हेब्बार की पेंटिंग्स के हैं | कर्नाटक के उडुपी जिले के कतिंगगेरी में 1911 जन्मे हेब्बार को 1961 में पद्मश्री तथा 1996 में पद्मभूषण सम्मान मिला था | ]

Monday, July 19, 2010

दीपशिखा की चार कविताएँ



















|| एक ||

फूलों से ज़्यादा काँटों पे चलने में मज़ा आता है
तप कर ही तो सोने में और निखार आता है

कोई साथ नहीं, कोई बात नहीं
अकेले भी रौब से जीया जाता है

फूलों से ज़्यादा ......

कोई जा के उनसे कह दे डरपोक नहीं हैं हम
चुप रहकर भी लड़ने का मज़ा लिया जाता है

फूलों से ज़्यादा .....

हार के भी जीतने का दम रखते हैं हम
गर इरादें हों फौलाद के, दुनिया को जीता जाता है

आज साथ नहीं है समय हमारे तो क्या
जो समय साथ मिला ले, उसे ही सिकंदर कहा जाता है

फूलों से ज़्यादा ......

सितारों से आगे इक जहाँ और भी है
देखने वाले को ही 'ख़ुदा' कहा जाता है

फूलों से ज़्यादा काँटों पे चलने में मज़ा आता है
तप कर ही तो सोने में और निखार आता है
तप कर ही तो सोने में और निखार आता है



















|| दो ||

रहमों कर्म की इनायत हमपे भी फरमाईए
अब इतने क़रीब आकर दूर यूं ना जाईए

रहमों कर्म की इनायत .......

दिल टूट-टूट जाता है जब तू निगाह चुराता है
ओ तोड़ने वाले ये दिल अब जोड़ते भी जाईए

रहमों कर्म की इनायत .......

माना के काबिल हम नहीं हैं आपके
बस चाहते हैं बहुत आपको, बाकी सब भूल जाईए

रहमों कर्म की इनायत .......

जी ना सकेंगे बिन तेरे, आजमा कर कभी भी देख ले
सालों हुए गम सहते हुए, अब खुशी भी देने आईए

रहमों कर्म की इनायत ........

सब पूछते हैं हाल क्या बना लिया है अपना
हमको भी हक़ है सजने का, वो हक़ तो अब लौटाइए

रहमों कर्म की इनायत .......

बैचेन बहुत रह लिया, तड़प लिया है बहुत
ओ चैन छीनने वाले, कुछ सुकूँ भी देते जाइए

रहमों कर्म की इनायत हमपे भी फरमाईए
अब इतने क़रीब आकर दूर यूं ना जाईए
अब इतने क़रीब आकर दूर यूं ना जाईए


















|| तीन ||

राह चलते कभी मिल जाते हैं वो
जी करता है वो मंज़र कभी खत्म न हो

पुराने सूखे वृक्ष भी हो जाते हैं हरे-भरे
गर्म तपती हवाएँ भी देती हैं ठंडक खड़े

महसूस यूं होता है मुस्कुरा रही है हर नज़र
दुश्मन भी लगते हैं गहरे दोस्त हमें इधर

रस्ते के पत्थर भी मलमल बन जाते हैं
धूल मिट्टी रेत के कण भी झिलमिलाते हैं

नल से बहता पानी भी अमृत सा लगता है
गुजरता हुआ हर शख्स अपना सा लगता है

क़दम उठाते हैं तो फूल बरसाता है आस्मां
मानो ये सारी कायनात है हम पर मेहरबाँ

अब क्या तारीफ़ करूँ मैं अपने हुज़ूर की
खुशियों से वो दिन भर जाता है

जब राह चलते कभी मिल जाते हैं वो
जी करता है वो मंज़र कभी खत्म न हो
जी करता है वो मंज़र कभी खत्म न हो



















|| चार ||

सफ़ेद लिबास, दमकता चेहरा
दीवाना बना देता है वो तेरा नूर सुनहरा

शरबत से मीठी तेरी बोली
मेरी सूनी शामों को भी बना देती है होली

सारे इत्रों से बेहतर वो महक है यार की
मेरे पूरे घर मैं फैली है, ऐसी चाहत है सरकार की

सुकून पहुँचाती है दिल को तेरे चलने की आहट
हजारों गम भुला देती है सिर्फ़ तेरी एक मुस्कुराहट

सागर से जो गहरा ये दिल है तेरा
मेरी हर अंधेरी रात का वो ही है सवेरा

सबसे ज़्यादा प्यारी है वो सादगी तेरी
सिर्फ़ तेरा ही नाम लेना अब है बन्दगी मेरी

सिर्फ़ तेरा ही नाम लेना अब है बन्दगी मेरी

क्योंकि क्योंकि वो सफ़ेद लिबास वो दमकता चेहरा
दीवाना बना देता है तेरा नूर सुनहरा

[ दीपशिखा मूलतः एक चित्रकार हैं और चंडीगढ़ में इंड्सइंड बैंक की कलादीर्घा में अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी कर चुकी हैं | उनकी पेंटिंग्स के लिये 'सेंटर फॉर ऑर्ट एंड कल्चर' ने उन्हें 'पिकासो सम्मान' से नवाज़ा है | पिछले कुछ समय से उन्होंने कविता में भी दिलचस्पी लेना शुरू किया है | हमारे बहुत आग्रह पर उन्होंने हाल ही में लिखी अपनी ये कविताएँ उपलब्ध करवाईं | दीपशिखा की कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र प्रख्यात चित्रकार मंजीत बावा की पेंटिंग्स के हैं | ]

Friday, July 16, 2010

सुकुमारन की 'यह शताब्दी : तीन दृश्य' शीर्षक कविता



















|| दृश्य एक ||

मनुष्यों की तरह कटे हुए थे पेड़
उनके धड़ों से अभी भी हो रहा था रक्तस्राव

कल इसी रास्ते पर दिखा विरल सूर्योदय
पर्वत शिखर पर
सूर्य के मुख पर सृष्टि के आदिम मनुष्य की मुस्कान
पक्षियों की चहचहाहट
छायाओं की करुणा
पत्तों के समुद्रों की निरंतर लहरें
हवा के पार्श्व में फूलों के उदघोष
प्रकृति : मनुष्य का पहला कुतूहल
आज यह वन मरुस्थल-सा जलता है
कटे वृक्षों के बीच
धूप हुआँ-हुआँ कर रही है
वृक्षों के घाव में मौन निरपराध का
सरकारी कागज़ में चांडाल का दर्प
वृक्षों, मनुष्यों के बीच
चमक कुल्हाड़ी की

वीरान इस धरती पर
फड़फड़ाती है छटपटाहट अपने डैने



















|| दृश्य दो ||

एक रिपोर्ट :
हमारी यह शताब्दी
बेहोश पड़ी है ऑपरेशन की मेज़ पर
उसे तकलीफ है साँस की
जिगर में खराबी
हम इंतजार में खड़े हैं शवगृह के आसपास



















|| दृश्य तीन ||

मृत्यु के हाथों से गिरी और टूट गई रात उस शहर की
फैल गई शवों की दुर्गंध
सर्वत्र

गिरजाघरों से आते आख़िरी घंटे ने
ढाँप लिया दीन-हीन क्रंदन
पीढ़े से न हिलने वाला ईश्वर - मूँद ली अपनी खुली आँखें

वक्त से पहले लौटे नीड़ों में पक्षी मर गये
जड़ हो गये जानवर
खड़े-खड़े
मर गई नि:स्पंद होकर वनस्पतियाँ
एक क़दम और बढ़ गया विज्ञान
लाशें घसीटकर

हवा के पहियों पर सवार
मृत्यु ने खदेड़ा
पैरों में प्राण लिए
भाग रहे लोग, आया प्रलय जैसे

उस मरघट में हुई सुबह
विषैले मेघों से
सूर्य के केश हो गए सफ़ेद
शवों के ढेर में
आग की निरपराधिता

अख़बार की सुर्ख़ियों में
एक और घटना
सरकारी काग़ज़ में चांडाल का दर्प
मृत्यु का अदृश्य जाल सब जगह फैल रहा
खोने का आर्तनाद खो रहा दिशाओं में
लकड़ियों की तरह जमा कर दिए गए थे मनुष्य


[ सुकुमारन समकालीन तमिल कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं | उनके कई कविता-संग्रह प्रकाशित हैं | 1957 में जन्में सुकुमारन पत्रकार और अनुवादक भी हैं | उनकी यहाँ प्रस्तुत कविता का अनुवाद एन. बालसुब्रह्मण्यम ने किया है, जो तमिल, संस्कृत, अंग्रेज़ी, हिंदी में लेखन तथा अनुवाद करते हैं | सुकुमारन की कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र वरिष्ठ चित्रकार शंकर घोष के बनाए मूर्तिशिल्पों के हैं | ]

Friday, July 9, 2010

कुमार पाशी की नज़्में



















|| मैं हँसना चाहता हूँ ||

मैं समँदर जितना हंसना चाहता हूँ
और बूँद जितना रोना

ईश्वर !
मैं सिर्फ़ तेरे ही जितना
जीना चाहता हूँ,
नित नए सपनों के साथ
अपनों के साथ

ईश्वर !
मैं पैग़म्बर नहीं हूँ
बिलकुल तेरी तरह हूँ
मेरी ख़्वाहिशों की फ़ेहरिस्त
बड़ी लंबी है
तेरी फ़ेहरिस्त से भी तवील -

लेकिन मैं
ईश्वर से क्यूं मुख़ातिब हूँ ?
जब कि मुझे मालूम है
वो मुझे फूल जितना हंसायेगा
और फिर
आस्मान जितना रुलायेगा



















|| अंतिम संस्कार ||

सूख चुकी है बहती नदी
आँखों में अब नीर नहीं है
सोचो तो कुछ
कहाँ गये वो भक्त, पुजारी
सुबह को उठ कर
जो सूरज को जल देते थे
कहाँ गया वो चाँद सलोना
जो लहरों के होंट चूम कर
झूम-झूम कर
आँखों की पुरशोर नदी में लहराता था

पानी से लबरेज़ घटाओ !
जल बरसाओ
सुन्दर लहरो !
आँखों की नदी को जगाओ
जाने कब से
बीते जुग के फूल लिये हाथों में खड़ा हूँ
सोच रहा हूँ, इन्हें बहा दूँ
जीवन का हर दर्द मिटा दूँ



















|| तेरी मख़्लूक़ तुझ से मुख़ातिब है ||

मेरे अन्दर नफ़ासत नहीं
गर्द ही गर्द है

तुम कभी मेरी खिड़की से झाँको तो देखो मुझे
मैं नहीं यह कोई दूसरा है
मिरा भूत है
मेरे अन्दर - यहाँ से वहाँ दनदनाता हुआ
अपने सूखे, सड़े गोश्त के चीथड़ों को उड़ाता हुआ
पहले वो कितना नज़दीक थी
हाथ अपना बढ़ाऊँ तो छू लूं - मगर
आज कितने धुँधलके हैं उस के मिरे दरमियाँ
ता हदे-जिस्मो-जाँ

आस्माँ - बोल !
वो जिस को देखा था सुबहों ने तेरी कभी
खिलखिलाते हुए
वो कहाँ खो गया ?
आज उस की लिखी सब किताबों में भी
उस की तस्वीर मिलती नहीं
लफ़्ज़ हैं : हड्डियों की तरह खोखले, बेसदा -
ऐ ख़ुदा -
तेरी मख़्लूक़ तुझ से मुख़ातिब है : सुन !

इन के हाथों में
इन के गुनाहों की फ़ेहरिस्त दे
और सदियों से पहले का लिक्खा हुआ फ़ैसला
आज इन को सुना

ऐ ख़ुदा -
तेरे मौसम भी मुझ को न बहला सके
मेरी नींदें न ख़्वाबों से महका सके
कोई अनदेखा मंज़र न दिखला सके

कोई है ?
जो अँधेरों के अम्बार में
मेरे खोये हुए नक़्श को
ढूँढ कर ला सके ?



















|| नई फ़स्ल के नाम ||

ये मासूम पौधे
ये धरती के बेटे
जिन्हें दूध का एक क़तरा भी शायद मयस्सर नहीं है
ये दिन रात बेजान आँखों से
अपने बदन की तरफ़ बेसबब घूरते हैं
बदन - जिन से लिपटा हुआ माँस कुम्हला चुका है
जहाँ अनगिनत टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें
ख़ुनक चाँदनी की तमन्ना में उभरी हुई हैं

ये मासूम पौधे
ये धरती के बेटे, कि जिन की रगों में चुभन अपने होने की
दुःख के समँदर को कुछ और गहरा किये जा रही है
बहुत दूर - नीचे
तहों में पड़े मोतियों की चमक मन्द पड़ने लगी है
ये मासूम पौधे
अभी तक तसव्वुर की रंगीनियों के सहारे मुक़द्दर के अनदेखे
रूख़सार सहला रहे हैं
मगर इन को इतनी ख़बर भी नहीं है कि इन के सरों पर
खुला आस्माँ है
जहाँ धूप किरनों के धागे से इन के कफ़न सी रही है

[ आधुनिक उर्दू शाइरी में बड़ी पहचान रखने वाले कुमार पाशी 4 जुलाई 1935 को बग़दाद उल जदीद (पाकिस्तान) में पैदा हुए थे | विभाजन के बाद वह भारत आ गये और पहले जयपुर तथा फिर दिल्ली में रहे | 17 सितंबर 1992 को दिल्ली में उनका निधन हुआ | कुमार पाशी की यहाँ प्रस्तुत रचनाओं के साथ प्रकाशित चित्र अंजली सपरा की पेंटिंग्स के हैं | नई दिल्ली के त्रिवेणी कला संस्थान में प्रशिक्षित अंजली ने अपने चित्रों को दिल्ली, मुंबई, बंगलौर और लंदन में प्रदर्शित किया है | ]

Sunday, July 4, 2010

अनीता वर्मा की कविताएँ



















|| चेहरा ||

इस चेहरे पर जीवन भर की कमाई दिखती है
पहले दुःख की एक परत
फिर एक परत प्रसन्नता की
सहनशीलता की एक और परत
एक परत सुन्दरता
कितनी किताबें यहाँ इकट्ठा हैं
दुनिया को बेहतर बनाने का इरादा
और खुशी को बचा लेने की ज़िद |

एक हँसी है जो पछतावे जैसी है,
और मायूसी उम्मीद की तरह |
एक सरलता है जो सिर्फ़ झुकना जानती है,
एक घृणा जो कभी प्रेम का विरोध नहीं करती

आईने की तरह है स्त्री का चेहरा
जिसमें पुरूष अपना चेहरा देखता है,
बाल सँवारता है मुँह बिचकाता है
अपने ताकतवर होने की शर्म छिपाता है

इस चेहरे पर जड़ें उगी हुई हैं
पत्तियाँ और लतरें फैली हुई हैं
दो-चार फूल हैं अचानक आयी हुई खुशी के
यहाँ कभी-कभी सूरज जैसी एक लपट दिखती है
और फिर एक बड़ी सी खाली जगह |



















|| कहीं और ||

मनुष्य की पूरी कथा
जीवन से छल की कथा है
बहुत दूर प्रकट होते हैं इसके सरोवर
उनमें खिले दुर्लभ कमल
बहुत दूर रहते हैं इसके अदृश्य पहाड़
हरियाली और ढलानें
कहीं और बसता है सुबह का आलोक
बीरबहूटियों की लाल रेशमी कतार

कोई तारा पहुँच के ऊपर
शांत चमकता है
ठंडी रेत पर प्यार और धूप के बिना
ज़हर के पौधे पनपते हैं
बंदूकों के घोड़े बजते हैं कानों में
सूरज हलकान पक्षी की तरह
गिरता है नदी की गोद में
सो गई हैं समुद्र की मीठी मछलियाँ
पृथ्वी जैसे काले जादू बाज़ार की पिटारी |



















|| खोज ||

जितना जिया जाता है जीवन
उतने खतरों को पीछे छोड़ चुका होता है
उसके हाथ समय के भीतर प्रकट होते हैं
किसी झाड़ियों वाली पगडंडी पर

काँटों से बनी हुई है यह देह
जिसकी ताकत का अंदाज़ा लगाना अब भी कठिन है
वह छीन लेती है खुशी का कोई पल
जैसे यही हो सृष्टि की पहली खोज

सभी अकेले हैं
एक गोल घेरे में करते हुए क़वायद
जहाँ वे अपनी ढालें खोजते हैं
वे छिपते हैं शांति या संघर्ष के पीछे
एक पहाड़ पूछता है दूसरे पहाड़ का दुःख
एक विचार अपने ही बोझ से दबा हुआ रहता है
यहां कोई खिड़की नहीं है
फिर भी खुला रह जाता है कोई न कोई दरवाज़ा |



















|| शांत रात ||

मैं पहाड़ी हवा थी
बादलों के नीचे पत्तों की गोद में बहती हुई
नीली रोशनी पर सवार
पानी में अपने पैर टिकाये रहती थी |

गाती थी मूँगे और पंखों के गीत
सफ़ेद घोड़ों के अयाल सहलाती
किसी पुरानी गुफा की आँच में डूबी
हाथ की अँगूठी चुम्बनों की बनी हुई |

अब जबकि कोई नहीं है मेरे साथ
बंटी हुई है वह हवा दो खण्डों में पूर्वी और पश्चिमी
मधुमक्खियों ने बिखेर दिया है सारा शहद
समुद्र से उड़ती रहती है भाप और बादल नहीं बनता
समय के पैरों में चकाचौंध की बेड़ियाँ हैं
मैं देखती हूँ अपने उत्सव की नदी को
बहते हुए इस शांत रात में



















|| तभी ||

जब पहाड़ और झीलें तरंगित होने लगें समुद्रों में
पेड़ चिड़ियों के मित्र बन जाएँ
और उन्हें काटने की कुल्हाड़ियाँ बननी बंद हो जाएँ
दुनिया भर की बंदूकें किसी अतल में दफना दी गई हों
फौजी बूटों के मिट जाएँ कारखाने
बच्चों की हँसी से दमक उठें युवाओं के चेहरे
पृथ्वी बीजों का उत्साह गाने लगे
थकान और पसीने से भरी हो मिट्टी
कलुष और ईर्ष्या मरें अपने ही विष से
तभी मैं जागूँगी
धूप रोशनी और प्रेम के बीच
आऊँगी इस दुनिया में

[ अनीता वर्मा की यहाँ प्रस्तुत कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र प्रखर युवा चित्रकार मुकेश साल्वी की पेंटिंग्स के हैं | अगस्त 1984 में जन्में मुकेश साल्वी ने जयपुर स्थित राजस्थान स्कूल ऑफ ऑर्ट से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है तथा अपने चित्रों को जयपुर, उदयपुर, कोटा, भोपाल, अहमदाबाद, बंगलौर, चेन्नई और मलयेशिया में प्रदर्शित किया है | छात्र जीवन में तथा उसके बाद उन्होंने कई पुरुस्कार व सम्मान प्राप्त किये हैं, और उन्हें कई एक कला-वर्कशाप में आमंत्रित किया गया है | ]