Monday, August 30, 2010
सुरेश ऋतुपर्ण की कविताएँ
|| एक और सूर्यास्त ||
फिर हुआ सूर्यास्त
ज्योति के पत्र पर किन्तु
नहीं लिखा गया
उस अपराजेय समर का विवरण
जो मैंने लड़ा
पूरे दिन
दौड़ते-हाँफते
झल्ली में उठाया वज़न
खाई डाँट
माँजते बर्तन
ढोता रहा
तीन पहिए पर
रावण का थुलथुल बदन
यों मुझे भी आती रही
याद प्रिया की हर क्षण
दूर देश में कहीं
पैबंद लगी धोती में सिमट
तोड़ती होगी पत्थर
भरे नयन
कैसी है विवशता जीवन की
लड़ना है युद्ध
नित नूतन
नहीं पास कोई
हनु-लखन
ज्यों-ज्यों बढ़ता है
समय-चक्र आगे-आगे
देह-धनुष की प्रत्यंचा
ढीली पड़ती जाती है
होगा कैसे शक्ति का आराधन
सत्ता की देवी अब चाहे
राजीव नयन नहीं
केवल स्वर्ण मंजुषाओं का अर्पण
कैसे होगी जय !
फैला है जब हर ओर
भ्रष्ट नैशान्धकार
दूर कहीं जलती नहीं मशाल
कैसे होगी जय !
नियति पृष्ठ पर लिखी जब
मात्र एक पराजय
होगी कैसे जय !
लो फिर हुआ
एक और सूर्यास्त
|| एक दिन ||
बँधी मुट्ठी से
रेत की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन
रूपहले कणों में झिलमिलाते
बहुत याद आएँगे
हम एक दिन
उड़ेंगे ऊपर आसमान में
पतंग की तरह
रंगों के पूरे उठान के साथ
उम्र की सादी डोर पर
वक्त का तेज माँझा
चलाएगा अपना पेच
हिचकोले खाते
फिर जाएँगे हम एक दिन
हवाओं की लहरों पर
थिरकती कंदील की है क्या बिसात!
बरसा कर
जगमगाते रंगों की लड़ियाँ
बुझ जाएँगे हम एक दिन
घाटी में खिलखिलाते
दौड़ लगाएँगे बच्चों की तरह
और बिखेर कर खुशबू
फूलों की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन
धरती की छाती फोड़
उगेंगे फिर एक दिन
पकेंगे धूप की आग पर
हँसिये की तेज धार से
झूमते-झूमते कटेंगे हम एक दिन
सूखेंगे, पिसेंगे, गुंधेगे
चूड़ियों भरे हाथों से
सिकेंगे उपलों के ताप पर
और पेट की बुझाएँगे
आग हम एक दिन
बरसेंगे उधर हिमालय की चोटियों पर
बर्फ़ बन जम जाएँगे
सूरज की किरणें भेदेंगी मर्म भीतर तक
आँख से बहते आँसू की तरह
पिघल जाएँगे हम एक दिन
आकाश की ऊँचाई नापते
परिन्दे के टूटे पंख की तरह
अपनी नश्वरता में तिरते
अमर हो जाएँगे हम एक दिन |
बँधी मुट्ठी से
रेत की तरह
झर जाएँगे हम एक दिन |
|| दिनों का इंद्रजाल ||
दिन-दिन गिनते
बीते कितने दिन !
डायरी के पन्नों में
दर्ज नहीं
उनकी आवाजाही का ब्यौरा
पर इन दिनों में
उन दिनों की याद है जो
तह किये कपड़ों सी
रखी है मेरे सिरहाने
जो सपनों में
इन्द्रधनुष-सी तन जाती है
घुल जाती है
दूध में बताशे की तरह |
दिनों की एक लम्बी
सड़क है मेरे पास
जिस पर चलतीं रहती हैं
अनगिनत वारदातें और शरारतें
कि जिनकी याद
भर देती है हरारत
शिराओं में
और तलवों में
कसकती है सफ़र की थकान |
रोज़मर्रा के कामों की फेहरिस्त में
दाल-चावल-मसालों की तरह
अटके हैं दिन
कभी आँखों में
आंसू बन डबडबाते हैं
तो कभी
मार खा सोई बच्ची
के सुर्ख़ ओंठों पर
तैरती सुबकन की तरह
उभर आते हैं दिन |
दिन, रात-दिन
खेलते हैं
चोर-सिपाही का खेल
आज तक पर जान नहीं पाया
कौन है सिपाही
और चोर है कौन?
जानता हूँ तो बस इतना
दोनों ने ही
चुपके-चुपके चुराया है
मेरा वर्तमान |
तमाम उलझनों के बीच
कबूतरों की तरह फड़फड़ाते
उड़ते फिरते हैं दिन
हवाओं के समंदर में
लगाते हैं डुबकियाँ
फिर वहीँ लौट आते हैं
उसी वीरान-सी छत की मुंडेर पर
जहां लाल होती शाम
बाहों में आते-आते
अटल उदासी के सागर में डूब गई थी |
पतंग की तरह
उड़ते रहते हैं दिन
हाथों से जुड़े होकर भी
दूर-दूर रहते हैं दिन
अपनी जादुई उंगुलियों से
हर क्षण
रचते हैं मुझे
रच-रचकर बिगाड़ते हैं दिन
लिख-लिखकर मिटाते हैं दिन
कभी सींचते हैं
तो कभी सोख़ते हैं
कभी भर देते हैं लबालब
और फिर
पूरा का पूरा
खाली कर जाते हैं दिन !
दिनों के इस इंद्रजाल में
कैद है मेरे दिनों का तिलिस्म !
|| बीज ||
मैं बीज होना चाहता हूँ |
गहरे, बहुत गहरे
गर्भ में उतर
अंकुरित होना चाहता हूँ
बीज बनना चाहता हूँ |
शब्द हुए नि:शब्द मेरे
ध्वनियाँ हो गयीं हाहाकार
स्वर डूब गये सन्नाटे में
रेखाएँ हुईं निराकार
किसी असाध्य-वीणा का
खिंचा तार होना चाहता हूँ
बीज बनना चाहता हूँ |
होंठ हो गये पथरीले
सूखे ठूंठ सी बाँहें
वर्जनाओं की आंच सुलगती
पथ-भ्रष्ट हुई निगाहें
ज्वालामुखी के मुहाने पर
लावे सा धधकना चाहता हूँ
बीज बनना चाहता हूँ |
शान्त हैं लहरें, मगर
कल्पना के पाल थरथराते हैं
चुपचाप तिरती नाव को
भावना के भँवर बुलाते हैं
बहुत निभा ली मर्यादा सागर की,
अब ज्वार बन उमड़ना चाहता हूँ |
बीज बनना चाहता हूँ |
कामना की नर्म कोंपलों से
भरी हैं शाखें
खुशबू का जाल फेंकतीं
फूल सी खिली हैं मेरी आँखें
धूप चांदनी में नहा लिए बहुत
खाद बन, मिट्टी में समाना चाहता हूँ |
बीज बनना चाहता हूँ |
[ जापान की 'तोक्यो यूनीवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज़' में प्रोफ़ेसर पद पर कार्यरत सुरेश ऋतुपर्ण की कविता और आलोचना की कई किताबें प्रकाशित हैं | मथुरा में जन्मे सुरेश देश-विदेश की विभिन्न संस्थाओं से सम्मानित हैं | यहाँ प्रकाशित उनकी कविताओं के साथ लगे चित्र भोपाल की प्रतिभाशाली चित्रकार भावना चौधरी की पेंटिंग्स के हैं | देश के विभिन्न शहरों में भावना के चित्रों की प्रदर्शनी हुई है; मध्य प्रदेश कला परिषद सहित कई संस्थाओं ने एक चित्रकार के रूप में उनकी प्रतिभा को रेखांकित करते हुए उन्हें सम्मानित किया है | ]
Tuesday, August 24, 2010
रमन मिश्र की कविताएँ
|| बारिश के मौसम में ||
(एक)
बरसात की रिमझिम-रिमझिम बूँदों में
जब शामों की उदासी भीगने लगी है
मेरा अकेलापन मुझे ही काट खाने को दौड़ रहा है
मेरे सीने में धड़क रही है
किसी शोक धुन की अनुगूँज
मैं शर्मिन्दा हूँ
एक बहुत निजी कविता के लिए
मैं शर्मिन्दा हूँ
अपने दु:ख़ को लिखते हुए
मेरा वजूद
संस्कारों की कँटीली झाँड़ियों में फँसा
परिन्दों की तरह छटपटाता है
एक पराजित आबोहवा में साँस लेते हुए
बार-बार अपनी पराजय को ठोकर मारता हूँ
बार-बार अँगुलियों को लहूलुहान करता हूँ
यादों की गीली सड़क पर टहलते-टहलते
पर उदास कविता को जन्म देते हुए
मेरे भीतर का कवि चिन्तित है
माँ- कहीं किसी कोने से
दिलासा देती है
उम्मीद जगाती है
इरादों में ज़ंग लगे हिस्से को
फिर-फिर साफ़ करता हूँ |
(दो)
हवाएँ उन माँओं की तरह
छाती पीट-पीट कर चिल्ला रही हैं
क्रूर हादसे - जिनके जवान बेटों को
असमय छीन लिया करते हैं
पेड़ पौधों पर पागलपन सवार है
मौसम के चीख पुकार की तरह फैल रहा है
धरती और आकाश के बीच
काला धुंआ |
अतीत
किसी जंगल की भाँति
मेरे भीतर हहरा रहा है |
एक काली छाया
आँखों के आइने में
डरावने बादलों की गरजती आवाज़ से
अचानक सारा शरीर काँप जाता है
इच्छाओं की चिड़ियाँ
अपने-अपने घोसलों में दुबक जाती हैं
महत्वाकांक्षी मन ज़ोर से चिंघाड़ता है
(तीन)
तेज़ बौछारों ने खिड़कियाँ दरवाज़े भिगो दिये हैं
गीले कपड़ों की अजीब सी गन्ध
नथुनों में समा गयी है
हर चीज़ को डसते हुए
हर चीज़ को फुफकारते हुए
एकान्त रेंग रहा है
दिवाल घड़ी की टिक-टिक के सहारे
इस रात की मनहूसियत गूँज रही है
हम ठंड से सिकुड़ी-सिमटी ज़िन्दगी को
इन्तज़ार की आँच में सेंक रहे हैं |
समय का घोड़ा दौड़ रहा है
घाटियाँ टप टप की आवाज़ों से गूँज रही हैं
जब कल पौ फटने पर
अँधेरी चट्टानों में दरार पड़ेगी
सुबह के चेहरे पर
ज़िन्दगी की लालिमा बिखर जायेगी
मैं लिखूंगा - उजली उजली
धूप जैसी कविताएँ
|| तुम्हारी अँगुलियों के स्पर्श का जादू ||
वे तमाम कलाकृतियाँ
जिसमें रची बसी हैं
तुम्हारे पसीनों की सोंधी महक
तराशा है जिनको तुम्हारी
मेहनत के एक एक लफ़्ज़ ने
हमारे दिलों की धड़कनों में
गूँजता है आज भी
उन्हीं कलाकृतियों का संगीत
तुम्हारी अँगुलियों के स्पर्श का
जादू निरन्तर तब्दील हुआ है
ज़िन्दगी की धुन में
महान सपनों को साक्षात
धरती पर खड़ा कर देने की मुहिम
तुम्हीं ने छेड़ी थी एक दिन
पहाड़ों को काट कर
नदियों को ढकेल कर
तुम्हारे हाथों ने सँवारा है
कुदरत को खूबसूरती के
बेहतरीन अन्दाज़ में
तमाम नवजात चीज़ों को
तुमने सींचा है
अपने लहु से,
तब कहीं जा कर
दुनिया जवान हुई है
[ अक्तूबर 1962 में जन्मे रमन मिश्र मुंबई की सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रीय रहे हैं | पत्रिकाओं में तो उनकी कविताएँ प्रकाशित होती ही रही हैं, उनके कविता संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं | उनकी यहाँ प्रकाशित कविताओं के साथ के चित्र महान फ्रांसीसी शिल्पकार रोदां (1840 - 1917) के मूर्तिशिल्पों के हैं | ]
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Friday, August 20, 2010
आलोक वर्मा की कविताएँ
|| कवि-कथा ||
कुछ शब्द बने खून और पसीने से
कुछ शब्द बन गए खून और पसीना
कुछ शब्द भटकते रहे आवारा
मंडराते रहे आसपास
बहुत दिनों तक
फिर मायूस हो छोड़ गए साथ एक दिन
कुछ शब्द शामिल हुए सपनो में
और हरी दूब, संतरा
या सूर्य या कोयला
या पुरानी सायकिल बन गए
कुछ शब्द खफ़ा हुए
काहिली के चलते
कुछ शब्द चुरा लिए गए बाज़ार में
और बदल दिए गए उनके मायने
कुछ शब्द हमेशा छुपे रहे
नहीं आए कभी भी सामने
बस बेचैन और पागल बनाते हुए
धधकते रहे
बहुत खराब समय में भीतर ही भीतर
कुल जमा इतना ही है
अकेले भटकते कवि की उदास कथा
कि आखिर में बचे हैं
कुछ टूटे-फूटे छूटे अधूरे शब्द
सो आपके सामने हैं ... |
|| कोई नहीं जानता ||
कोई नहीं जागता
वादक के सिवाय
कोई नहीं पुकारता
वादक की तरह
कोई नहीं देखता
वादक के टूटे तार
कोई नहीं सुनता
भीतर का रोना
कोई नहीं जानता
आख़िर क्यों चुना
वादक ने
यह सन्नाटे भरा संसार ?
भटकते हुए बदहवास
आख़िर क्यों
बजाता रहा
वह सिर्फ़ वाद्य ?
भुलाते हुए ख़ुद को
आख़िर क्यूँ उड़ता रहा
वह बार-बार अकेला
दूर आसमान में ?
अरसा हुए
पूछे गए जब
वादक से ये सवाल
झुका लिया
ख़ामोश वादक ने
अपना सिर
और बजाने लगा
बस वाद्य... |
|| थोड़ा सा ||
थोड़ा सा रंग
मिल गया है
संगीत में
थोड़ा सा संगीत
गूँज रहा है
पेड़ में
थोड़ा सा पेड़
उग रहा है
मुझमें
मै थोड़ा सा सूर्या हूँ
थोड़ी सी नदी
थोड़ी सी चिड़िया
थोड़ा सा मैं बिखर गया हूँ धूल में
थोड़ा सा मैं जम गया हूँ चट्टानों में
थोड़ा सा मैं थम गया हूँ अँधेरे में
थोड़ा सा मैं बह रहा हूँ हवा में
थोड़ा सा मैं
बादलों में घुलकर
तुम्हारे भीतर
लगातार बरस रहा हूँ ... |
|| मैं पागल हूँ ||
मैं पेड़ के साथ
फल होना चाहता हूँ
और समुद्र के साथ मछली
चूँकि पक्षी के सुख का पता
घोंसले के पास है
और भूखे आदमी का दु:ख़
सिर्फ़ रोटियाँ ही जानती हैं
फिर यदि
मैं होना चाहता हूँ
फल, मछली, रोटियाँ
या घोंसला
तो क्या मैं पागल हूँ ..?
हाँ ...
मैं पागल हूँ... |
|| एक फूल खिला ||
एक फूल
देर तक
टहनी में खिला
फिर धरती पर गिरा
तो धरती में खिला
देखा दो आँखों ने
उसे तो
वह आँखों में खिला
फिर आँखों में खिला
तो मन में भी खिला
मन में खिला एक फूल
तो स्मृति में खिला
फिर बार-बार
इस तरह
स्मृति में बार-बार
खिलता एक फूल
एक बार
शब्दों में भी खिला
यूँ शब्दों में खिला
एक फूल एक बार
तो फिर
हमेशा खिला ही रहा... |
[ रायपुर में बीमा चिकित्सा पदाधिकारी के रूप में कार्यरत आलोक वर्मा का एक कविता-संग्रह 'धीरे-धीरे सुनो' प्रकाशित हुआ है, जिसे मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के 'रामविलास शर्मा सम्मान' से नवाज़ा जा चुका है | आलोक वर्मा की यहाँ दी गईं कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र कनाडा में रह रहीं चाईनीज़ चित्रकार विनिफ्रेड ली की पेंटिंग्स के हैं | बीजिंग में 1934 में जन्मीं वान-चुनयु , विनिफ्रेड ली का पूर्व नाम, 1977 में कनाडा आ गईं थीं | विनिफ्रेड ली अपनी वाटर कलर पेंटिंग्स के लिये कला जगत में जानी जाती हैं | उन्होंने प्रायः फ्लावर्स व बर्ड्स को अपने केनवस पर चित्रित किया है | ]
Tuesday, August 3, 2010
अब्दुल बिस्मिल्लाह की कविताएँ
|| चूज़े ||
चूज़े देखते हैं
कि किस तरह उनकी माँ
अपने दरबे की सीमा में
बैठती है, खड़ी होती है
और उन्हें खेलने देती है
चूज़े देखते हैं
कि किस तरह उनकी माँ
कूड़े में, गोबर में
और राख में उनके लिए
महीन दाने तलाशती है
चूज़े देखते हैं
कि किस तरह उनकी माँ
बिल्ली के आक्रमण से
उन्हें आगाह करती है
चूज़े देखते हैं
कि किस तरह उनकी माँ
सिल पर, चौके पर
और दहलीज़ पर
चोंच तेज करने का
सलीक़ा बताती है
और चूज़े देखते हैं
कि किस तरह उनकी माँ
उन्हें खूंखार दुनिया सौंपकर
दावत बन जाती है
चूज़े देखते हैं
कि उनकी चोंच
उन्हें शोरबा बनने से
बचा सकती है या नहीं
चूज़े
गमले की हरी पत्ती पर
अपनी चोंच आज़माते हैं
पत्ती टूट जाती है
चूज़े सोचते हैं
दुनिया क्या
इस पत्ती से ज्यादा सख्त होगी ?
|| खेल-खेल में ||
हाँ, ऐसा होता है
खेल-खेल में
रोज़ ही ऐसा होता है
रोज़ ही वे
दरोगा बनते हैं
रोज़ ही वे
सिपाही बनते हैं
रोज़ ही तुम
चोर बनते हो
रोज़ ही वे
कन्हैया बनते हैं
रोज़ ही तुम
पालकी बनते हो
रोज़ ही वे
राजा बनते हैं
रोज़ ही तुम
रैयत बनते हो
हाँ, ऐसा रोज़ ही होता है
रोज़ ही उनका गुड्डा होता है
रोज़ ही तुम्हारी गुड़िया होती है
रोज़ ही वे
अपना गुड्डा सजाये आते हैं
और तुम्हारी
सुघर-सलोनी गुड़िया ले जाते हैं
हाँ, ऐसा रोज़ ही होता है
कि उनका गटापार्चा का बबुआ टूटता है
और वे चले जाते हैं
रोनी सूरत बनाये
तब तुम उनके बबुआ को
दफ़न करते हो
और तालियां बजाते हो
खेल-खेल में
ऐसा तो रोज़ ही होता है
|| कागज़ ||
काग़ज़ का यह छोटा-सा टुकड़ा
अपने दिल पर
दु:ख़ निख सकता है किसी का
यह ख़त लिख सकता है
किसी के नाम
अपने सीने पर
अपने चेहरे पर
फ़ैसला लिख सकता है यह
कैसा भी
काग़ज़ का यह छोटा-सा टुकड़ा
अपनी हथेली पर
पूरी की पूरी तबदीली
लिख सकता है
|| पांच पानियों का देश ||
पानी का नाम मत लो यहाँ
कोई सुन लेगा
तो गज़ब हो जाएगा
जी नहीं
अब तो उन नदियों के
निशान भी नहीं रहे यहां
उन नदियों का नाम मत लो
कोई सुन लेगा तो गज़ब हो जाएगा
जी नहीं
वे सूखी नहीं घाम में
वे लुप्त नहीं हुईं पाताल में
उन्हें चुरा ले गया कोई परदेसी
अपनी पोली छड़ियों में भरकर
उस परदेसी का नाम मत पूछो
कोई सुन लेगा तो गज़ब हो जाएगा
जी नहीं
यहाँ हथियार नहीं चले
यहाँ नहीं हुई कोई बग़ावत
यहाँ सिर्फ़ बदमस्त हो गये
पानी के बिना
कुछ हाथी, कुछ घोड़े ओर कुछ परिन्दे
आगे क्या हुआ
कैसे बताया जाए
कोई सुन लेगा तो ग़ज़ब हो जाएगा
जी नहीं
सूरज का रंग
यहाँ भी पहले
लाल ही होता था
जब वह पांच-पांच पानियों के भीतर से
नहाकर निकलता था
अब कितना सफ़ेद हो गया है इसका चेहरा
कि जैसे काग़ज़ का कोई गोल टुकड़ा
चिपका दिया गया हो आकाश के सीने पर
मत पूछो
काग़ज़ में लिखी इबारत की व्याख्या
कोई सुन लेगा तो ग़ज़ब हो जाएगा
हवा में
बनी हुई है हरारत
लगातार
और वे चुप हैं
सड़क पर सड़ रहें हैं
खून के थक्के
और वे चुप हैं
खिड़कियों में
खुली हुई हैं
सहमी, डरी, उदास पुतलियां
और वे चुप हैं
वे कौन हैं ?
उनका नाम क्या है ?
मत पूछो, मत पूछो, बन्धु
वर्ना कोई सुन लेगा तो ग़ज़ब हो जाएगा
[ कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित अब्दुल बिस्मिल्लाह ने कविताएँ भी लिखीं और उनकी लिखी कविताएँ चर्चित भी हुईं तथा पुरस्कृत भी | उनकी अनेक रचनाएँ मराठी, मलयालम, बंगला, उर्दू, अंग्रेज़ी तथा जापानी में अनुदित हुई हैं | यहाँ दी गई कविताओं के साथ के चित्र इंदौर के युवा चित्रकार प्रेमेन्द्र सिंह गौड़ की पेंटिंग्स के हैं | मध्य प्रदेश के शाजापुर में 1978 में जन्मे और इंदौर के गवर्नमेंट इंस्टीट्यूट ऑफ फाइन ऑर्ट से एमएफए करने वाले प्रेमेन्द्र ने इंदौर, दिल्ली व मुंबई में अपनी पेंटिंग्स की एकल प्रदर्शनियाँ की हैं तथा धार, उज्जैन, इंदौर, जबलपुर, दिल्ली, मुंबई, बंगलौर में आयोजित समूह प्रदर्शनियों में भी अपने काम को प्रदर्शित किया है | ]
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