Tuesday, November 2, 2010

मोहन सिंह की एक लंबी कविता : तवी














|| एक ||

गर्मी की झुलसती ऋतु में
दूर-दूर के मैदानों से
शीतल मंद बयार के
स्पर्श के लिए
मादक निद्रा के सुख की ख़ातिर
आते हैं, कुछ साईकिल ! ताँगे |

तेरी स्नेहमयी लोरी
फर-फर झूलती है जब, जब
दिन भर की तपिश-थकान
काफ़ूर हो जाती है दूसरे ही क्षण |
मादक निद्रा
कर लेती है आलिंगनबद्ध
तुम्हारे सहवास से
मेरी पथरीली पगडंडियाँ
बन जाती हैं सैरगाह
जहाँ आते हैं
दूर-दूर से
गर्मी की झुलसती ऋतु में
शीतल मंद बयार के
स्पर्श के लिए
मादक निद्रा के सुख की ख़ातिर !

तुम्हारी स्निग्ध ममता
भर देती है
दिलों में अपूर्व शीतलता
गौरवांवित हो उठता है |
मेरा शहर
जो थी मात्र एक पथरीली पगडंडी,
जहाँ हैं कुछ लोग या पत्थर
जहाँ हैं लोग ही लोग या मंदिर
इसी सख्त ज़मीन में
करवट लेती है श्रद्धा भी कहीं ?
पर कहाँ है वह स्निग्धता?

तुम्हारी प्यार भरी लोरी
जैसे पुरवैया की थपकी
ज्यों मंझधार भी प्रतिध्वनि
माँ की गोद जैसी
कहाँ हो गई विलुप्त
तुम्हारी ममता की शीतलता
ताप से रहती मुक्त |
कोई नहीं आता
दूर-दूर के मैदानों से
साईकिल ताँगा
गर्मी की झुलसती ऋतु में
शीतल मंद बयार के
स्पर्श के लिए
मादक निद्रा के सुख की ख़ातिर
तुम बदल गई हो
या बदल गए हैं लोग ?



















|| दो ||

तुम्हारे तट पर
बसा मेरा शहर
नहीं रहा कभी
तुम्हारी दया का मोहताज
संभव है
जानता हो
तुम्हारे क्रोध की कथाएँ
इसीलिए
तुम्हारे तल से
कुछ ऊपर हैं इसकी जड़ें
और उस उठान पर स्थित
खिलखिलाकर हँसा
ताकि तुम्हारे रौद्र से
डगमगाए न इसकी नींव
न कर सकें इसे नेस्त-नाबूद |
बड़ा सयाना है मेरा शहर
तुम्हारा अहसानमंद तो है
पर नहीं बैठाता तुम्हे सिर पर |














|| तीन ||

तुम्हारे तट पर
बसा मेरा शहर
जब ढलान उतरा
फला और फैला
तो तुम्हारा क्रोध
पहुँचा सातवें आसमान पर
मेरा शहर
तुम्हारे क्रोध से
भिड़ता रहा लगातार |















|| चार ||

तुम्हारा अस्तित्व
जब छटपटाता
क्रोध से
पागल हो जाता
बाँटता
तो उठ जाती
सैकड़ों निगाहें तुझ पर
किनारों पर
आ जुड़ते लोग |
तेरे सताए
तेरे लाड़ले
तरस जाते तेरी ममता को
तुम्हारी राह देखते |
किंतु
तुम्हारा अस्तित्व
सिकुड़ता और पहचानहीन हो जाता
ज़हरीला और क्षीणतर |
क्या छ्टे -छमाही
या बरसों में
एक बार जागने से
और उन्मादित होने से
नित प्रति
करना संवाद
थोड़ा-थोड़ा
बोलना
या गुनगुनाना
श्रेयस्कर नहीं ?














|| पाँच ||

आज भी
तुम्हारी धारा झेलने
तुम्हारी जगह घेरने
की होड़ लगी है
मानो
मिल-जुलकर
मिटा देना चाहते हो
तुम्हारा वजूद
किंतु
हर बार तूने
इनके इरादों पर
पानी फेरा है
और दिया है
अपने होने का सबूत
तुम्हारी और उनकी
इतनी-सी लड़ाई है |

[ मोहन सिंह डोगरी के प्रमुख कवि व नाटककार हैं | इनकी कविता, नाटक व नुक्कड़ नाटक की दस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं | वह साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार तथा अन्य कई पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं | यहाँ दी गईं उनकी कविताओं का डोगरी से अनुवाद केवल गोस्वामी ने किया है | कविताओं के साथ दिए गए चित्र दुबई में जा बसे चित्रकार राजन की पेंटिंग्स के हैं | ]

1 comment:

  1. तुम्हारी स्निग्ध ममता
    भर देती है
    दिलों में अपूर्व शीतलता
    गौरवांवित हो उठता है |
    मेरा शहर
    जो थी मात्र एक पथरीली पगडंडी,
    जहाँ हैं कुछ लोग या पत्थर
    जहाँ हैं लोग ही लोग या मंदिर
    इसी सख्त ज़मीन में
    करवट लेती है श्रद्धा भी कहीं ?
    पर कहाँ है वह स्निग्धता?

    बहुत ख़ूब...
    एक से बढ़कर एक रचनाएं...

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