Saturday, March 19, 2011

श्याम कश्यप की कविताएँ



















|| कन्याकुमारी का जादू ||

न सूर्योदय देख सके
न सूर्यास्त हम -
दो दिन कन्याकुमारी में

धुआँधार बरसते पानी के नीचे
सागर-लहरों की ऊँची उछाल....

एक के बाद एक जैसे
फिसलती -
चली आ रही हो
आसमान छूती
पानी की ठोस
धुँधली-पारदर्शी दर्शनीय दीवार |

तीन-तीन सागरों के महासंगम पर
एक लहर इधर एक उधर से प्रवेग
इन सबके ऊपर एक और .....

सामने से हिंद महासागर का ज़ोर
जैसे बाँहों में बाँहे फँसाये -
तीन महाबलियों के जूझने का शोर |

तीन महासागरों के संगम पर
मंत्रमुग्ध-से खोये रहे हम घंटों
त्रिकाल-बोध के कमान से छूटे
तीखे तीर-से अनंत में -

बाँध लेता है ऐसे ही
जाल में कस कर सभी को
अनोखा कन्याकुमारी का
ऐन्द्रजालिक जादू -

पिघलने लगता है आकाश
सवेग स्वर्ण-सरिता-सा
कविता की कंचन-धारा बन कर !















|| विवेकानंद शिला पर ||

विवेकानंद शिला से
देख रहे हम एकटक
तीन-तीन सागरों का
असीम विस्तार -
उछाल अनंत जलराशि की !

बंद कर लेना चाहते हैं
सीपियों में आँखों की
हिंद महासागर के सौंदर्य का
एक थिरकता उज्ज्वल मोती !

बायीं ओर बंगाल की खाड़ी
उद्वेलित लहरों के वेग से
रह-रह कर टकरातीं आकर जो
चट्टानों से जूझती .....

दूर दाहिने से
चला आ रहा
तूफ़ानी रेला
अरब सागर का दौड़ता .......

विशालकाय बाँहों में अपनी
दोनों को समेटता-समोता हिंद महासागर |

एक-दूसरे में घुलते-मिलते -
झिलमिल-झिलमिल अलग-अलग रंग
फिर एक ही विराट हरित नीलिमा में खो जाते-से !



















|| सागर मुद्राएँ ||

अनेक रंग
अनेक रूप
मुद्राएँ भी अनेक
देखीं समुद्र की
कई-कई दिन पांडिचेरी-तट पर

सुबह से शाम
कभी देर रात-रात तक
सुनहरा मटमैला कभी
और कभी धवला-सा
झाग-भरा फेन-भरा
नीला कभी हरा-हरा
कभी आँखों में सातों रंग घोलता

बाँहों में लेने को दौड़ता
कभी फिर पीछे ही लौटता
चट्टानों पर कभी सिर गुस्से से फोड़ता
कभी बस डोलता और नींद ही में बोलता
शांत कभी लेटा-लेटा बिस्तर पर लुढ़कता
कभी आकाश चूमने को बदली-संग खेलता |















|| समुद्र में आग ||

बेहद आकर्षित करता है
महाबलिपुरम के समुद्र का
गरजता-उफ़नता रौद्र रूप

तेज़ हवाओं की मथानी से
मथे जाते हुए जैसे -
फेन उगलता-उछलता चंचल सागर |

तट की चट्टानों पर
टूट कर बिखरीं
काँच की दीवार-जैसी ऊँची-ऊँची
अनवरत लहरों पर लहरें -

उगते सूरज की
स्वर्णिम लालिमा से
जल उठीं रँगकर -
अनगिनत लपकती ज्वाल-मालाएँ |

तट का एकाकी मंदिर
दिप-दिप उठा
आग फेंकती -
समुंदर की आतशी शीशे-जैसी लहरों से |

[ श्याम कश्यप की कविताओं के साथ दिये गए चित्र अनु धीर की पेंटिंग्स के हैं | इंदौर में जन्मीं और वहाँ के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में पढीं अनु देश विदेश में समकालीन भारतीय कला की एक प्रखर चितेरी के रूप में पहचानी जाती हैं | देश विदेश में अपनी पेंटिंग्स को प्रदर्शित कर चुकीं अनु की पेंटिंग्स देश के साथ साथ स्वीडन, फ्रांस, नीदरलैंड्स, कनाडा आदि में लोगों और संस्थाओं के पास संग्रहित हैं | मजे की बात यह है कि अनु ने चित्रकार बनने के बारे में कभी सचेत तरीके से सोचा भी नहीं था | एक कला संस्थान में एडमिशन लेने की अपनी कोशिश के असफल हो जाने का भी उन्होंने कोई अफसोस नहीं मनाया था | नौकरी और परिवार की जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए उनकी कला अभिरुचि लेकिन स्वतः ही कैनवस पर ट्रांसफर होने लगी, और फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा | इस ब्लॉग पर लगाने के लिए पेंटिंग्स के फोटोग्राफ देने के हमारे अनुरोध को स्वीकार करते हुए अनु धीर ने बताया कि उनकी पेंटिंग्स का कॉपीराइट अधिनियम के तहत कॉपीराइट है, जिस कारण उनकी पेंटिंग्स को कॉपी और या पुनर्प्रदर्शित नहीं किया जा सकता | ]

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