Monday, January 10, 2011

सुदीप बनर्जी की कविताएँ















|| इस दीवाल की व्याख्या करनी है ||

इस दीवाल की व्याख्या करनी है
यह पूरब से पश्चिम तक दीवाल है
इस पर चूना पुता है
इसमें खिड़की नहीं है और यह कहना भी
असंगत न होगा कि यह चीन की दीवाल नहीं है

पर इस दीवाल का प्रसंग और संदर्भ क्या है
यह कमरा ? यह मकान ? यह शहर ?
यह मैं ? मेरा परिवार ? मेरा पड़ोस
इस सबके प्रसंगों और संदर्भों में दीवाल
की अपनी जरूरत और अपना रवैया है :

पर दीवाल खुद के प्रसंग में क्या है

इस दीवाल की व्याख्या करनी है
पर इस दीवाल पर कुछ नहीं लिखा है |















|| मातम में शरीक होना चाहता हूँ ||

बिजली के खंभे खड़े हैं सर झुकाए
सड़क पर रोशनी सिलसिलेवार उदास है
मालगाड़ी के आधे घंटे पहले चले जाने
के बाद की चुप्पी है
मैं इस मातम में शरीक होना चाहता हूँ

प्लेटफॉर्म पर विदाई देते हुए अपने पिता को
नीले फ्राक वाली छोटी लड़की और अपने
अफसर को लेने आई हुई
मातहत इकाई
मैं शरीक होना चाहता हूँ इस मातम में

फलों से लदे हुए पेड़
और पेड़ों से आक्रांत बगीचा
मनमाने परिंदों के आसमान के ऐश्वर्य तक बदमिज़ाज़
बेंच में दुबके हुए चेहरे
और चेहरों में दुबका हुआ कोहरा
कोहरे से लगातार उलझती हुई धूप
धूप से हिफाज़त करती हुई आँखें
मैं इस मातम में शरीक होना चाहता हूँ

दूकानों में ख़रीद करती हुई महिलाएँ
गैलरी से झांकती हुई लड़कियाँ
बस से उतरती हुई भीड़
सड़क के बाईं ओर चलती हुई भीड़
मैं भी सड़क के बाईं ओर चलना चाहता हूँ
और इस मातम में शरीक होना
चाहता हूँ

मैं सर झुकाए खड़ा रहना चाहता हूँ
किसी को विदा देना चाहता हूँ
किसी और का स्वागत करना चाहता हूँ
बगीचे में ग़ाफ़िल होना चाहता हूँ
मन-पसंद चीज़ें ख़रीदना चाहता हूँ
बस स्टॉप पर उतरना चाहता हूँ
सड़क के बाईं ओर चलना चाहता हूँ
मैं अपनी नागरिकता वापिस लेना चाहता हूँ
इस मातम में शरीक होना चाहता हूँ |














|| इस वक्त स्कूल जा रहे हैं बच्चे ||

इस वक्त स्कूल जा रहे हैं बच्चे
अपनी जैसी भी जाहिल दिनचर्या है
उसमें कुछ हौसले से ही दाख़िल हो रहे हैं
वे भी बच्चे, जिनके लिए स्कूल अभी खुला नहीं है

वे सभी सूरज के हमदम हैं, हमरक्स हैं इस वक्त
तुम अपनी तामीरे मुल्क़ की शानदार तज़वीज़ को
बस इसी वक्त मत आज़माओ, नसीब को मत भारी करो
तुम्हारे करिश्मों से, जय-जयकारों से,
थोड़ी देर के लिए ही सही, बने रहने दो
इस धरती को इन बच्चों के नसीब की गेंद

फिर तो तुम्हारा पूरा दिन है
मास है, साल है, सदियाँ हैं
पूरा इतिहास है रथ यात्राओं के लिए

राम रखता है सबको, फिर भी
राम की रखवाली का तुम्हारा दावा
हमें तस्लीम, इसी वक्त मत माँगो
मुचलका हमसे हमारे नेकचलन का

इस वक्त करोड़ों माताएँ रोटी बेल रही हैं
करोड़ों पिता लौट रहे हैं
खेतों, कारखानों, दफ़्तरों से रही-सही रौशनी को
अपने अज़ीज़ों के ख़ातिर निसार करने

तुम्हारे लिए पड़ा है पूरा ज़माना, बस इसी वक्त
थोड़ी-सी मोहलत दो ख़ुदा के वास्ते
यह मुद्दआ मत उठाओ
कि राम का मंदिर कहाँ बनना है |















|| उसके चुप रहने से बात बनती ||

उसके चुप रहने से बात बनती
तो वह भी उदास रह लेता
लौट जाता अपने अंतर्गत
इंतज़ार करता अपनी बारी का

पर अब तो सब हो रहे हैं
इस तरह सड़क चलते हलाक़
किसी का आख़िरी कथन तक उसका
अपना नहीं, अख़बार का

हर एक के आख़िरी कथन में तो
नहीं ही आता 'या रब', 'हे राम'
अपनों के बीच तो फिर भी वह
गुज़र सकता था करते हुए 'हाय हाय'

अब दूसरों की मौत मरते हुए
उसे कभी सूझता है ईश्वर
जो ख़ुलासा नहीं करता कुछ
तमाम हत्यारों के बारे में

हर एक के आख़िरी कथन में नहीं
हत्यारों के मुख में तो श्रीराम
यह क्या कम कृपा है ऐसे
बेरहम ज़माने में

तुम्हारा नाम जपते नहीं तो
तुम्हारी महिमा सुनते जाएँगे
सोचकर अपनी बारी के पहले ही
वह पुकारता है ज़ोर से विराम को

उसके अंतर्गत कोई बात बनती
तो वह झाँकता भी नहीं सड़क पर
बसर कर लेता चुपचाप में
सुस्ताते आसान पाप में |

[इंदौर में जन्मे तथा उज्जैन में शिक्षा पाने वाले सुदीप बनर्जी ने दो वर्ष अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक रहने के बाद करीब तीन वर्ष भारतीय पुलिस सेवा में काम किया | इसके बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा में प्रदेश व केंद्र में विभिन्न पदों पर रहे | भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय में सचिव पद से रिटायर होने के बाद वह नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के चांसलर पद पर थे, जबकि करीब दो वर्ष पहले कैंसर से उनका निधन हो गया | 'साक्षात्कार' पत्रिका के संपादक रहे सुदीप के कई कविता संग्रह प्रकाशित हैं | उन्होंने नाटक भी लिखे जो प्रकाशित व मंचित हुए | सुदीप की कविताओं के साथ दिये गए चित्र असम निवासी बिंदु छवछरिया द्वारा खींचे गए असम के प्रकृति दृश्यों के फोटो हैं |

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