Sunday, July 4, 2010
अनीता वर्मा की कविताएँ
|| चेहरा ||
इस चेहरे पर जीवन भर की कमाई दिखती है
पहले दुःख की एक परत
फिर एक परत प्रसन्नता की
सहनशीलता की एक और परत
एक परत सुन्दरता
कितनी किताबें यहाँ इकट्ठा हैं
दुनिया को बेहतर बनाने का इरादा
और खुशी को बचा लेने की ज़िद |
एक हँसी है जो पछतावे जैसी है,
और मायूसी उम्मीद की तरह |
एक सरलता है जो सिर्फ़ झुकना जानती है,
एक घृणा जो कभी प्रेम का विरोध नहीं करती
आईने की तरह है स्त्री का चेहरा
जिसमें पुरूष अपना चेहरा देखता है,
बाल सँवारता है मुँह बिचकाता है
अपने ताकतवर होने की शर्म छिपाता है
इस चेहरे पर जड़ें उगी हुई हैं
पत्तियाँ और लतरें फैली हुई हैं
दो-चार फूल हैं अचानक आयी हुई खुशी के
यहाँ कभी-कभी सूरज जैसी एक लपट दिखती है
और फिर एक बड़ी सी खाली जगह |
|| कहीं और ||
मनुष्य की पूरी कथा
जीवन से छल की कथा है
बहुत दूर प्रकट होते हैं इसके सरोवर
उनमें खिले दुर्लभ कमल
बहुत दूर रहते हैं इसके अदृश्य पहाड़
हरियाली और ढलानें
कहीं और बसता है सुबह का आलोक
बीरबहूटियों की लाल रेशमी कतार
कोई तारा पहुँच के ऊपर
शांत चमकता है
ठंडी रेत पर प्यार और धूप के बिना
ज़हर के पौधे पनपते हैं
बंदूकों के घोड़े बजते हैं कानों में
सूरज हलकान पक्षी की तरह
गिरता है नदी की गोद में
सो गई हैं समुद्र की मीठी मछलियाँ
पृथ्वी जैसे काले जादू बाज़ार की पिटारी |
|| खोज ||
जितना जिया जाता है जीवन
उतने खतरों को पीछे छोड़ चुका होता है
उसके हाथ समय के भीतर प्रकट होते हैं
किसी झाड़ियों वाली पगडंडी पर
काँटों से बनी हुई है यह देह
जिसकी ताकत का अंदाज़ा लगाना अब भी कठिन है
वह छीन लेती है खुशी का कोई पल
जैसे यही हो सृष्टि की पहली खोज
सभी अकेले हैं
एक गोल घेरे में करते हुए क़वायद
जहाँ वे अपनी ढालें खोजते हैं
वे छिपते हैं शांति या संघर्ष के पीछे
एक पहाड़ पूछता है दूसरे पहाड़ का दुःख
एक विचार अपने ही बोझ से दबा हुआ रहता है
यहां कोई खिड़की नहीं है
फिर भी खुला रह जाता है कोई न कोई दरवाज़ा |
|| शांत रात ||
मैं पहाड़ी हवा थी
बादलों के नीचे पत्तों की गोद में बहती हुई
नीली रोशनी पर सवार
पानी में अपने पैर टिकाये रहती थी |
गाती थी मूँगे और पंखों के गीत
सफ़ेद घोड़ों के अयाल सहलाती
किसी पुरानी गुफा की आँच में डूबी
हाथ की अँगूठी चुम्बनों की बनी हुई |
अब जबकि कोई नहीं है मेरे साथ
बंटी हुई है वह हवा दो खण्डों में पूर्वी और पश्चिमी
मधुमक्खियों ने बिखेर दिया है सारा शहद
समुद्र से उड़ती रहती है भाप और बादल नहीं बनता
समय के पैरों में चकाचौंध की बेड़ियाँ हैं
मैं देखती हूँ अपने उत्सव की नदी को
बहते हुए इस शांत रात में
|| तभी ||
जब पहाड़ और झीलें तरंगित होने लगें समुद्रों में
पेड़ चिड़ियों के मित्र बन जाएँ
और उन्हें काटने की कुल्हाड़ियाँ बननी बंद हो जाएँ
दुनिया भर की बंदूकें किसी अतल में दफना दी गई हों
फौजी बूटों के मिट जाएँ कारखाने
बच्चों की हँसी से दमक उठें युवाओं के चेहरे
पृथ्वी बीजों का उत्साह गाने लगे
थकान और पसीने से भरी हो मिट्टी
कलुष और ईर्ष्या मरें अपने ही विष से
तभी मैं जागूँगी
धूप रोशनी और प्रेम के बीच
आऊँगी इस दुनिया में
[ अनीता वर्मा की यहाँ प्रस्तुत कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र प्रखर युवा चित्रकार मुकेश साल्वी की पेंटिंग्स के हैं | अगस्त 1984 में जन्में मुकेश साल्वी ने जयपुर स्थित राजस्थान स्कूल ऑफ ऑर्ट से पहले बीएफए और फिर एमएफए किया है तथा अपने चित्रों को जयपुर, उदयपुर, कोटा, भोपाल, अहमदाबाद, बंगलौर, चेन्नई और मलयेशिया में प्रदर्शित किया है | छात्र जीवन में तथा उसके बाद उन्होंने कई पुरुस्कार व सम्मान प्राप्त किये हैं, और उन्हें कई एक कला-वर्कशाप में आमंत्रित किया गया है | ]
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अच्छी लगी कवितायें..आभार पढ़वाने का.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविताएँ...
ReplyDelete"एक हँसी है जो पछतावे जैसी है,
और मायूसी उम्मीद की तरह |
एक सरलता है जो सिर्फ़ झुकना जानती है,
एक घृणा जो कभी प्रेम का विरोध नहीं करती"
कितनी गहरी बात, पर सहजता से कह दी गयी....
आभार पढवाने के लिए ..
achha pryas. keep it up
ReplyDeleteअनीता वर्मा की बहुत अच्छी कविताएँ
ReplyDeletebahut achchee kavitayen ....shukriya aparnaji...padhvane ke liye ...
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