Wednesday, July 6, 2011

मोहनकुमार डहेरिया की दो प्रेम कविताएँ



















|| मैं लौट आया ||

आखिर मैं लौट आया
मिल सकता था जहाँ मेरी तपती हुई आत्मा को सबसे गहरा सुकून
वहाँ पहुँचने के पहले ही
आखिर मैं लौट आया

यह वह जगह थी
दुःखों को जहाँ सीने पर तमगों सा सजना था
समाना था कामना की एक लपट को दूसरी लपट के जिस्म में
कर रही थी यहीं
समय की भयावह झाड़ियों के बीच
असंख्य पंखुड़ियों वाले विलक्षण फूल की तरह
वर्षों से एक लड़की मेरा इंतज़ार

कितना तो खुश था मैं
चल रहा था बहुत तेज-तेज
तभी धर्म के बहुत ऊँचे पहाड़ पर खड़े एक विदूषक ने घुमाई जादू
की छड़ी
मैंने देखा
अजगर की तरह जकड़ गया मेरे इरादों से मेरी माँ का आँचल
फड़फड़ाकर टूटने ही वाला है
पैरों के नीचे आकर पिता का झुर्रीदार चश्मा
दिखाई दिया मेरा अपना घर
जर्जर टिमटिमाती हुई रोशनी वाली लालटेन की तरह
कर रहा था वापस लौट आने का संकेत

थोड़ी दूर ही तो रह गई थी वह जगह
कि मैं लौट आया
मेरे ज़ख्मों को आनी थी जहाँ खूब गहरी नींद
और कंठ में फँसी एक चीख़ को तब्दील होना था एक बेहद सुंदर
राग में
वहाँ पहुँचने के पहले ही
आखिर मैं लौट आया |



















|| मुलाकात ||

कभी सोचा न था
इस तरह भी होगी मुलाकात
मिलती है जैसे किसी संगम पर एक नदी दूसरी नदी से
दिखाती हुई आपस में
एक लंबी बीहड़ यात्रा में सूजे हुए पैर
देह पर पड़े प्रदूषण के निशान

यह सच है
अलग-अलग हो चुके हमारे रास्ते
पिट चुके जीवन की बिसात पर सारे मोहरे
ज्यादा दूर नहीं पर वे दिन
मुझे देखते ही लाल सुर्ख़ हो जाती थी तुम्हारे कानों की कोर
झनझना उठते तुम्हारी आवाज से मेरे अंदर के तार
तब भी आते थे जीवन में हताशाओं के दौर
क्रूरता के उच्चतम शिखर पर पहुँच जाता कभी-कभी यातनाओं
का सूर्य
होती थी चूंकि एक दूसरे की बाँहों में बांहें
पार कर जाते अंतःशीतल हवा के झोंके सा
जीवन के सारे तपते हुए रास्ते
यह तो था कल्पना के बाहर
इस तरह भी थामेंगे एक दूसरे को कभी
थामती है जैसे एक ढहती हुई दीवार
दूसरी ढहती हुई दीवार को

सचमुच कितने सुंदर दिन थे वे
अभिसार की स्मृतियों से सनी हुई वे रातें
एक दूसरे का जरा सा स्पर्श
तेज कर देता शरीर में खून की गति
आज भी याद आती है
कामनाओं के क्षितिज पर अस्त होती तुम्हारी वह देह
और माथे पर अंकुरित होते पसीने के नन्हें-नन्हें चंद्रमा
दुःस्वप्न में भी न थी कभी आशंका
इस तरह भी संभव होगा कभी हमारे बीच प्रेम
लिपटा रहा हो जैसे झुलसी हुई पीठ वाला एक चुंबन
झुलसी हुई पीठ वाले दूसरे चुंबन से |

[केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक मोहनकुमार डहेरिया प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े हुए हैं और उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं | यहाँ उनकी कविताओं के साथ दिए गए चित्र शिमला में जन्मे और दिल्ली में रह रहे युवा चित्रकार भानु प्रताप की पेंटिंग्स के हैं |]

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