Tuesday, February 15, 2011
चंद्रप्रकाश देवल की दो कविताएँ
|| कवि होना पीड़ा का रियाज़ करना है ||
तेरा गाना
जैसे प्रीत के गहरे कुएँ के तल में
सर्द-अँधेरे में गिरती सीर टप-टप
या आँसुओं की राग में झरती हो बूँद
किसी वियोगनी की आँख से
तेरे आरोह का कंपन
जैसे कोहरे के धुँधलके में
कोई फूल की पँखुरी
अपने पर से ओस की बूँद झरने पर
काँप रही हो
पखावजिए का हाथ छू जाने पर
जैसे सुबकता हो किसी पेड़ का तना
या फिर बाँसुरी की फूँक के बहाने
सिसक उठी हो पूरी वनराजि
या किसी वियोग की पकी रसौली को
संयोग की ठेस लगी हो
और पीड़ा बह निकली हो
तुम्हारी मुरकी
जैसे अविनाशी के दरबार में
वीणा के तार पर
किसी तुंबरू की उँगली का सपना चोट करता हो
या संगीत के झुंड से भटकी
कोई अकेली सहमती रागिनी
मौन होने से पूर्व
हिचकी ले रही हो
तुम्हारे गले से
किसी ने सौंपी लगती है यह पीड़ा की सौग़ात
सुरजीत तेरे कंठ को
और तुम भी लगातार
अंडे की तरह उसे सेये चले जा रहे हो
मैं जानता हूँ
कवि को कभी-कभी
अपने पालतू दर्द को
पुचकारने का मन होता है
और यह काम
वह अपने ग़म को दूसरे के दर्द की तर्ज़ में
मिलाकर करता है
चुपचाप
मैं मानता हूँ
कवि होना ही
मात्र, पीड़ा का रियाज़ करना है
|| तितली ||
तितली अब मेरे बग़ीचे में नहीं आती
रास्ता भूलने की तो बात ही कहाँ
वह तो उड़ती-उड़ती आती है
और उड़ती-उड़ती जाती है
ज़माने में और कहीं फूल-ही फूल खिल गए हों
यह भी नहीं सुना
मेरे फूलों की ख़ुशबू कम हो गई हो
ऐसा भी नहीं जाना
बसंत भी ऋतु-चक्र में अब तक है
देर-सबेर आता भी है
पर तितली मेरे बग़ीचे में नहीं आती
पता ठिकाना होता
तो मान-मनुहार की चिठ्ठी भेजता
बल्कि हो सकता है उसे मनाने को
चलकर उसके घर जाता
सारे जतन करता
पर अब तितली नहीं तो
मैं अपने बग़ीचे को बग़ीचा कैसे कहूँ
लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे
कि मेरे बग़ीचे में तितली भी नहीं आती
यह कोई असाधारण नहीं
साधारण-सी बात है
कि तितली नहीं आती
पहले आती थी
तब फूल, हरियाली, सुगंध और रंगों को
मुक्ति दे जाती थी
वह चाँदनी को भी अर्थ दे जाती थी
वह बग़ीचे की तरह
कविता में भी अच्छी लगती थी
यहाँ तक कि पाठक भी ईर्ष्या से भर जाते थे
कि किसी कवि के ख़याल में तितली आती है
एक उसके आ जाने से
प्रत्येक गाछ-बिरछ का रुतबा बढ़ जाता था
सभी फल अचानक हरे-भरे हो जाते थे
अंतस में ठंडक व्याप्त हो जाती थी
उसके आते ही
पता नहीं कहाँ से चली आती थीं ढेर-सी आशाएँ
यह भी, वह भी
सभी कुछ सँवर जाएगा
यह खुरदरा संसार भी मुलायम हो जाएगा
उसकी आमद एक उम्मीद जगाती थी
और प्रतीक्षा में पथराई आँखें भर आती थीं
पर करूँ क्या
अब अनिष्ट की परछाँई झिलमिलाती है
कि इन दिनों मेरे बग़ीचे में तितली नहीं आती है
पहले की तरह
हैं अभी जस-के तस
दुनिया में युद्ध, ग़रीबी, महामारी और पीड़ाएँ
नहीं हैं तो बस, एक तितली नहीं है |
[चंद्रप्रकाश देवल राजस्थानी के वरिष्ठ रचनाकार हैं, जिनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं और जो हिंदी में भी लिखते-छपते हैं | भारतीय भाषा परिषद, साहित्य अकादमी आदि संस्थाएँ उन्हें पुरस्कृत कर चुकी हैं | यहाँ प्रकाशित दोनों कविताओं का अनुवाद स्वयं चंद्रप्रकाश जी ने ही किया है | कविताओं के साथ दिये गए चित्र पेशे से मेडिकल प्रेक्टिशनर चंदन साईकिया के हैं | डिब्रूगढ़ स्थित असम मेडीकल कॉलिज से पढ़े चंदन आजकल गुवाहाटी में हैं, जहाँ वह अपने फोटोग्राफी के शौक के लिए भी समय निकल लेते हैं |]
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